देश को धीरे धीरे निगल रहा है हिंदुत्व, सरकार बनी है मूकदर्शक

By कुलदीप नैय्यर | Jun 07, 2017

बाबरी मस्जिद का ढहाया जाना और कत्ल के लिए पशुओं की बिक्री पर पाबंदी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ये बहुसंख्यक वर्ग का पूवार्गह ही दिखाते हैं। दोनों माहौल खराब कर रहे हैं। सप्ताह भर पहले ही सत्ता में अपने तीन साल पूरे करने वाली प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार हिंदुत्व, जो धीरे−धीरे देश को निगल रहा है, की ओर से कही जा रही विभिन्न बातों का समर्थन कर रही है।

ऐसा लगता है मानो भारतीय जनता पार्टी ने अगली लोक सभा के लिए 2019 में हो रहे चुनावों की तैयारी शुरू कर दी है। उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के शासन से यह दिख रहा है कि आरएसएस ने कई मायनों में सत्ता अपने हाथ में ले ली है और सरकार ने महत्वपूर्ण पदों पर भरोसे के लोगों को नियुक्त करना शुरू कर दिया है।

 

नर्इ दिल्ली कोर्इ बेहतर नहीं है। नेहरू मेमोरियल सेंटर इसका एक उदाहरण है जहां निदेशक को हटा कर उसकी जगह एक आरएसएस विचारक को बिठा दिया गया है। वह संगठन के चरित्र को बर्बाद कर रहे हैं और उदार माहौल के जिन गुणों से नेहरू सेंटर को जोड़ा जाता है उसके बदले दक्षिणपंथी ताकतों को समर्थन कर रहे हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अभी चल रहे झगड़े के पीछे भी इसी उद्देश्य में लगी राजनीतिक पार्टियां हैं।

 

अभी दक्षिणपंथियों का ध्यान बीफ पर टिका है। उसके अंदर का अहंकार इससे जुड़े छात्र संगठनों की ओर से देश के विभिन्न शिक्षा परिसरों में दिखाया जा रहा है। इस बार यह चेन्नर्इ के इंडियन इंस्टीच्यूट आफ टेकनोलौजी में हुआ। पहले के मुकाबले इस बार हिंसा की संख्या और इसकी तीव्रता में अंतर है। बीफ खाने वाले छात्रों की पिटाई अपने पाखण्ड पर फिर से जोर देने के लिए है। अब कैंपस का उदार माहौल उस पर निर्भर करता है कि कैंपस जिस राज्य में है उसमें किस राजनीतिक पार्टी का बोलबाला है।

 

इसका नतीजा है कि उत्तर के हिंदी भाषी राज्यों में भाजपा का असर है। भारत के बाकी हिस्सों में कांग्रेस और दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों का आदेश चलता है। इसने देश को मानसिक और वैचारिक तौर पर बांट दिया है। प्रधानमंत्री मोदी जब सत्ता में आए थे तो उन्होंने 'सबका साथ, सबका विकास' का नारा दिया था, जिसका अर्थ होता है कि हम सब साथ रहेंगे और आगे एक साथ तरक्की करेंगे। लेकिन लगता है कि बाद में वह और उनकी पार्टी रास्ते से भटक गई है।

 

और आज, वे इसे पसंद करें या नहीं, उनकी सरकार एक खास तरीके की सोच− असहिष्णु भारत, जिसका मकसद हिंदुत्व है, का प्रतिनिधित्व करने लगी है। शायद अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और बजरंग दल, जिन्होंने माहौल को खराब करना शुरू कर दिया है, की वजह से पार्टी की चिंतक−मंडली यह विश्वास करने लगी है कि समाज को बांट कर वे ज्यादा वोट पा सकते हैं। इन संगठनों ने देश के विभिन्न शहरों में अपने अभ्यास बढ़ा दिए हैं जिसमें लाठी और अन्य हथियार प्रदर्शित किए जाते हैं।

 

इसका इस्लाम के बोलबाला के भय से भी कुछ संबंध है जिसका इस्तेमाल पश्चिम देशों की दक्षिणपंथी पार्टियां कर रही हैं। हम यह भूल जाते हैं कि हमारा जिस तरह का लोकतांत्रिक ढांचा है उसमें हर औरत या मर्द अपनी पसंद का खाना खाने के लिए स्वतंत्र है। भारत जैसे विशाल देश में जहां खाना और पहनावा हर 50 किलोमीटर पर बदल जाता है, में इस तरह की विविधता का होना अनिवार्य है। वास्तव में, यही भारत की शक्ति है। विविधता के प्रति सम्मान ही हमारी विभिन्न इकाइयों को उस संघीय ढांचे में इकठ्टा रखे है जिसका हम पालन करते हैं।

 

भाजपा के कट्टरपंथियों, जिन्हें लगता है कि राष्ट्रीय मूल्यों में बुनियादी परिवर्तन के कारण वे सत्ता में आए हैं, को दोबारा सोचने की जरूरत है। इस दलील में काफी सच्चाई है कि लोगों ने उन्हें मौका दिया क्योंकि उन्होंने कांग्रेस में भरोसा खो दिया था और वे एक विकल्प की तलाश कर रहे थे।

 

लेकिन कांग्रेस जनता को असफल करेगी अगर वह खानदान की राजनीति को जारी रखती है। पार्टी को समझना होगा, जो वह अभी तक नहीं कर पाई है, कि राहुल गांधी चल नहीं पा रहे हैं। पार्टी में उपलब्ध बाकी नेताओं के मुकाबले दांव लगाने के लिए सोनिया गांधी खुद बहुत बेहतर रहेंगी। उनके इटालियन होने से जो नुकसान था वह इतने सालों में गायब हो चुका है और वह उतनी ही भारतीय मानी जाती हैं जितना कोर्इ जन्म से होता है। लेकिन समस्या यह है कि उनके लिए देश का नेतृत्व करने का कम ही मौका है क्योंकि कांग्रेस ने अपनी चमक खो दी है। निस्संदेह, भाजपा ने राजनीति का हिंदुकरण कर दिया है, लेकिन इसी विचार का बोलबाला है क्योंकि मोदी के नेतृत्व के कारण वतर्मान में इसने लोगों के मन को छू लिया है।

 

शायद यह सोच ज्यादा समय तक नहीं चलेगी क्योंकि भरतीय राष्ट्र मूलतः विविधतावादी है। ऐसा लगता है कि भाजपा इस बारे में सचेत है क्योंकि इस बात के सबूत हैं कि वह केंद्र के दाएं से केंद्र की ओर बढ़ रही है। पार्टी का संकट यह है कि उसके कार्यकर्ता आरएसएस से आते हैं। हो सकता है कि यही वजह है कि सरकार में कोई घोटाला नहीं है। आरएसएस की विचारधारा को कोई नापसंद कर सकता है, लेकिन ईमानदारी पर इसके जोर पर संदेह नहीं किया जा सकता है। लेकिन शासन में उनके हस्तक्षेप के बारे में कोर्इ गलतफहमी नहीं रहनी चाहिए। यहां तक कि शीर्ष नौकरशाहों का मूल्यांकन भी इस आधार पर किया जाता है कि वे हिंदुत्व के दर्शन के कितने नजदीक हैं।

 

पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने बहुत सारे वैसे अधिकारियों की नियुक्ति की थी जिन्हें सेकुलर माना जाता था ताकि सरकार विविधता की सोच दर्शा सके। लेकिन बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के समय उन्हें लगा कि उनके साथ व्यक्तिगत तौर पर धोखा हुआ क्योंकि उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि चीजें वहां तक पहुंच जायेंगी कि मस्जिद गिरा दी जायगी। लेकिन तथ्य है कि इस पूरे आपरेशन में उनकी मिली भगत थी। अब सीबीआर्इ कोर्ट ने सूत्र पकड़ा है जिसने एलके आडवाणी, एमएम जोशी और उमा भारती पर आपराधिक साजिश का अभियोग लगाया है।

 

अगर महत्वपूर्ण राजनीतिक पार्टियां उसे नष्ट कर देती हैं जो न्यायपालिका कर रही है तो यह बहुत बड़ी निराशा होगी। आडवाणी और उनके सहयोगी ऊंची अदालत में अपील कर सकते हैं लेकिन सत्ताधारी पार्टी कुछ ऐसा करती है जो अभियुक्त को लाभ पहुंचाता है तो यह कानून के साथ मजाक के समान होगा। कांग्रेस ने उमा भारती, जो मोदी कैबिनेट में मंत्री हैं, का इस्तीफा मांगा है। अगर मोदी के मंत्रिमंडल से उन्हें हटा दिया जाता है तो इससे अच्छा संदेश जायगा। लोगों को भरोसा देने के लिए मोदी सराकर इतना तो कर ही सकती है कि लगे कि अदालत को मदद करने के अलावा सरकार का अपना कोई पक्ष नहीं है।

 

- कुलदीप नैयर

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