गुलामी के दिनों में भारत को एक सूत्र में पिरोने का काम हिंदी ने किया

By सिद्धार्थ शंकर गौतम | Jan 10, 2020

आज भारत−भारती की भाषा हिंदी के प्रति अपनी विनम्र आदरांजलि व्यक्त करने का दिन है। हिंदी राजभाषा भी है और जनभाषा भी है। हिंदी का अपना समृद्ध इतिहास रहा है। 'हिंदी के द्वारा सारे भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है', महर्षि दयानंद की यह उक्ति हिंदी की चिर प्रासंगिकता को लक्ष्य करती है। जब हम हिंदी भाषा के उद्भव एवं विकास के संबंध में पड़ताल करते हैं तो कई दिलचस्प तथ्य हमारे हाथ लगते हैं। हिंदी शब्द की उत्पत्ति सिंधु से जुड़ी हुई है। सिंधु नदी के आसपास का क्षेत्र सिंध प्रदेश कहलाता है। यही शब्द ईरानियों के संपर्क में आकर हिंदू या हिंद हो गया। हिंद से ही हिंदीक बना है, जिसका अर्थ है हिंद का। यूनानी शब्द इंडिका या अंग्रेजी शब्द इंडिया इसी हिंदीक की ही उपज है।

 

हिंदी साहित्य का प्रारंभ 1000 ईस्वीं के आसपास माना जाता है। इससे पूर्व का हिंदी साहित्य अपभ्रंश में है, जिसे हिंदी की पूर्व पीठिका माना जा सकता है। 1500 ईस्वीं के आसपास हिंदी स्वतंत्र रूप से विकसित हुई और हिंदी में लेखन का प्रचलन बढ़ा। हिंदी पर शुद्धतावाद के निंदनीय आरोप लगते रहे हैं। आरोप लगाने वाले कृपया ध्यान दें कि सांस्कृतिक संश्लेष न केवल भारतीय संस्कृति बल्कि हिंदी भाषा की भी सबसे बड़ी विशेषता है और उसने विश्व की अनेक भाषाओं की शब्दावली को आत्मसात किया है।

 

मुगलों के भारत आगमन के पश्चात् हिंदी के सौष्ठव में आमूलचूल परिवर्तन हुआ। मुगलों की भाषिक संस्कृति का सीधा प्रभाव हिंदी पर पड़ा, जिसके फलस्वरूप फारसी के लगभग 3500 शब्द, अरबी के 2500 शब्द, पश्तो के 50 शब्द तथा तुर्की के 125 शब्द हिंदी भाषा की शब्दावली में शामिल हुए। ठीक इसी प्रकार अंग्रेजों सहित यूरोपियन साम्राज्यवादियों के भारत आगमन के बाद कई यूरोपीय भाषाओं के शब्द हिंदी का हिस्सा बने। कठिन परिस्थितियों के बावजूद हिंदी लगातार समृद्ध हो रही थी। हिंदी ने कई देशज शब्दों को भी अपनी मुख्यधारा में समाहित कर लिया। इससे उसका अभिव्यक्ति पक्ष और पुष्ट हुआ।

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हिंदी में रचे गए उच्च कोटि के साहित्य को विश्व पटल पर प्रशंसा मिली। भारत को एक सूत्र में पिरोने की बात की जाए तो गुलामी के दिनों में हिंदी ने यह भूमिका भी बखूबी निभाई थी। महात्मा गांधी स्वयं गुजरात से थे और वे अनेक वर्ष विदेश में रहे थे, लेकिन उन्होंने हिंदी और हिंदुस्तानी पर हमेशा बल दिया। हिंद, हिंदी और हिंदुस्तान एक−दूसरे के पर्याय बन गए थे। आज एक स्वतंत्र भारत के नागरिक होने के हमारे गौरव में हिंदी की अस्मिता का भी एक बड़ा योगदान है। लेकिन यह देखकर वेदना होती है कि हमारी हिंदी को लगातार हाशिये पर धकेला जा रहा है। वैश्वीकरण की आड़ में विश्व भाषा का आग्रह पुख्ता हुआ है। मैं इसका विरोधी नहीं, लेकिन यह आग्रह जिस तरह हमारी भाषा की अस्मिता पर लगातार प्रहार कर रहा है, उससे जरूर मन को ठेस पहुंचती है।

 

दुनियाभर के देश अपनी−अपनी भाषाओं की विलक्षणता का उत्सव मनाते हैं, लेकिन अपनी ही राष्ट्रभाषा के प्रति ऐसा पूर्वाग्रहग्रस्त हेय व्यवहार भारत के अलावा और कहीं देखने को नहीं मिलेगा। वर्तमान में हिंदी की दुर्दशा के लिए हिंदी पट्टी भी कम जिम्मेदार नहीं है, जिसने अपनी भाषिक संस्कृति के विकास में अपेक्षित रुचि नहीं ली। यही वजह रही कि हिंदीतर प्रदेशों में अपनी राष्ट्रभाषा के प्रति विद्वेष के दृश्य देखे जा सकते हैं। हमें यह समझना होगा कि हिंदी हाशिये की भाषा नहीं है, वह किसी एक वर्ग या क्षेत्र का संस्कार नहीं है, वह हमारी राष्ट्रभाषा है और राष्ट्रभाषा की एक सर्वमान्य स्वीकृति होती है, होनी चाहिए। ऐसा होगा तो ही हिंदी हमारी बिंदी यानी हमारा अलंकार और हमारा आभूषण बन पाएगी।

 

-सिद्धार्थ शंकर गौतम

 

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