पराजय का समीक्षा सत्र (व्यंग्य)

By विजय कुमार | Oct 19, 2019

शर्माजी मेरे परममित्र हैं। चार-छह दिन यदि उनसे भेंट न हो, तो मुझे उनके दर्शन करने जाना पड़ता है। वैसे इससे मुझे कई लाभ होते हैं। शाम का टहलना और शर्मा मैडम के हाथ की तुलसी और अदरक वाली कड़क चाय। यदि भाग्य अच्छा हो, तो चाय के साथ मिठाई या पकौड़े भी मिल जाते हैं।

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मेरे पिछले दस दिन बहुत खराब बीते। मेरे पड़ोस में रामलीला होती है। रात में दो बजे तक वहां के कानफोड़ शोर से नींद हराम रही। कल कुछ ठीक हुआ, तो शर्माजी की याद आयी। शाम होते ही मैं उनके घर जा पहुंचा। वे ऐसे उदास बैठे थे, जैसे सबसे छोटी साली की बीमारी की खबर सुनी हो। मैंने शर्मा मैडम को आवाज दी, तो उन्होंने दो कप चाय भेज दी। चाय की सुगंध से शर्माजी में कुछ चेतना आयी।

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-कहो वर्मा, कैसे हो ?

 

-मैं तो ठीक हूं शर्माजी; पर आपने ये कैसा हुलिया बना रखा है। कुछ लेते क्यों नहीं ?

 

-क्या लूं, कुछ समझ नहीं आता। हमारी पार्टी की हालत बिगड़ती जा रही है। कोई दवा असर ही नहीं कर रही।

 

-मैं आपकी बात कर रहा हूं, पार्टी की नहीं।

 

-एक ही बात है वर्मा। पार्टी में जान हो, तो सब समर्थकों पर भी असर होता है।

 

-पर पिछले दिनों मम्मीश्री ने पार्टी की कमान संभाली थी, उससे कुछ फरक तो पड़ा होगा ?

 

-खाक फरक पड़ा है। उन्होंने राहुलजी के सब युवा समर्थकों को किनारे कर पार्टी को फिर से बुड्ढा दल बना दिया। 

 

-लेकिन पार्टी में अनुभवी लोग भी तो चाहिए ?

 

-पर दफ्तर में बैठे अनुभवी लोगों का क्या अचार पड़ेगा, जब वे क्षेत्र में निकलेंगे ही नहीं।

 

-तो वे निकलते क्यों नहीं ?

 

-अरे बाबा, उनकी टांगों में दम हो, तब तो निकलें ? कोई 70 का है, तो कोई 80 का। वे तो बस सलाह दे सकते हैं। इसीलिए तो 2019 में पार्टी की दुर्गति हुई। अब हाल ये है कि लोकसभा चुनाव में हार की अब तक समीक्षा नहीं हो सकी।

 

-उसे तो छह महीने होने वाले हैं। 

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-बिल्कुल; पर हमारे यहां कोई इसके लिए तैयार नहीं है। सबको पता है कि हार का कारण यह परिवार है; पर उनके खिलाफ बोलने की हमारे यहां परम्परा नहीं है। वे जिंदाबाद तो सुन सकते हैं; पर मुर्दाबाद नहीं। निजी बातचीत में तो सब नेता हार की समीक्षा कर चुके हैं; पर साथ बैठते ही उन्हें सांप सूंघ जाता है। अब तो सलमान खुर्शीद और ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे गंभीर नेता भी मजबूरी में मीडिया के सामने ही अपने दिल की भड़ास निकाल रहे हैं। 

 

-हां, मैंने अखबार में पढ़ा तो है। 

 

-हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव सिर पर हैं। कौन कहां प्रचार करेगा, कुछ पता नहीं। मम्मीश्री बीमार हैं। दीदी का कमाल सब उत्तर प्रदेश में देख चुके हैं। इसलिए उन्हें भी कोई बुलाना नहीं चाहता। सरकारें न होने के कारण अब पैसे भी नहीं मिलते। ‘कंगाली में आटा गीला’ हो रहा है। उधर ‘कोढ़ में खाज’ की तरह हमारे युवा नेताजी फिर विदेश घूमने चले गये हैं। 

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-देखिये शर्माजी, हर व्यक्ति को शारीरिक और मानसिक सुख चाहिए। किसी को यह घर में मिलता है किसी को बाहर। वे वयस्क हैं और समझदार भी। हमें इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।

 

-पर लोकसभा चुनाव में हार की समीक्षा का मुहूर्त कब निकलेगा ?

 

-मेरा एक सुझाव है। महाराष्ट्र और हरियाणा में चुनाव हो रहे हैं। वहां भी कांग्रेस की हार निश्चित है। तो इन तीनों हार की समीक्षा एक साथ ही कर लें। तीन महीने और रुक जाएं, तो झारखंड की हार को भी इसी ‘पराजय समीक्षा सत्र’ में निबटा सकते हैं। समय भी बचेगा और खर्चा भी कम होगा। 

 

मुझे लगता था कि शर्माजी इस बात से भड़क जाएंगे; पर वे शांत रहे। मैं समझ गया कि उन्होंने भी सबकी तरह पार्टी की इस नियति को मन से स्वीकार कर लिया है।

 

-विजय कुमार

 

 

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