जन्मदिन (व्यंग्य)

By विजय कुमार | Jan 28, 2019

पिछले दिनों एक काम से दिल्ली गया। वहां मैं अपने मित्र रमेश के घर ही ठहरता हूं। दो दिन अपने काम में लग गये। तीसरे दिन रविवार था। सुबह रमेश ने बताया कि नौ बजे पड़ोसी शरद जी के घर चलना है, उनके बच्चे का जन्मदिन है। शरद जी से मेरा भी परिचय था, वे एक निजी विद्यालय चलाते हैं। मैंने रमेश से एक लिफाफा मांगा, जिससे उसमें कुछ राशि रख सकूं। रमेश ने बताया कि उनके घर में जन्मदिन विशेष पद्धति से मनाया जाता है। चलते समय रमेश की बिटिया ने घर की वाटिका से ताजे पुष्प तोड़ लिये और हम सब शरद जी के घर पहुंच गये।

 

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शरद जी के पुत्र प्रांजल का आठवां जन्मदिन था। प्रायः ऐसे कार्यक्रम रात को मनाये जाते हैं, जिसमें केक काटकर मोमबत्तियां बुझाई जाती हैं। फिर गुब्बारे फोड़कर ‘हैप्पी बर्थ डे टू यू’ का गान, तालियां और खानपान होता है। सभी अतिथि बच्चे को महंगे उपहार या नकद धनराशि देते हैं। अब तो ‘रिटर्न गिफ्ट’ की भी परम्परा चल निकली है। किसी बड़े का जन्मदिन हो, तो खाने से पहले ‘पीना’ भी होता है; पर यहां जो हुआ, उससे मैं अभिभूत रह गया।

 

जब हम पहुंचे, तो आसपास के लगभग बीस परिवार वहां आ चुके थे। शरद जी के कुछ सहयोगी तथा प्रांजल के कुछ कक्षामित्र भी थे। सबके हाथ में ताजे पुष्प ही थे। एक विशेषता यह भी थी कि मेहमान से लेकर मेजबान तक सब लोग भारतीय वेशभूषा अर्थात कुर्ता-पाजामा-धोती आदि में थे। थोड़ी देर में यज्ञ प्रारम्भ हो गया। पूर्णाहुति के बाद सबने प्रांजल पर पुष्पवर्षा की। प्रांजल ने सर्वप्रथम अपने माता-पिता और फिर सभी बड़ों के पांव छुए। इसके बाद अल्पाहार का आयोजन था। चलते समय सबको प्रसाद भी दिया गया। ऐसा लगा कि प्रायः सभी लोग इस प्रक्रिया से परिचित हैं, क्योंकि कोई भी लिफाफा या उपहार लेकर नहीं आया था। 


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मैंने सोचा कि मध्यमवर्गीय परिवारों में तो ऐसे जन्मदिन नहीं मनाया जाता। कई बार तो अतिथि की कीमत उसके उपहार या लिफाफे से आंकी जाती है; पर यहां तो मामला दूसरा ही था। रमेश ने बताया कि शरद जी जन्मदिन को धार्मिक संस्कार देने वाला पर्व मानते हैं। इसलिए वे भारतीय वेशभूषा का आग्रह करते हैं। जन्मदिन पर बच्चे का दान देने का स्वभाव बनना चाहिए। इसलिए वे यज्ञ के बाद सपरिवार निकटवर्ती मंदिर, गोशाला, अनाथालय, कुष्ठाश्रम आदि में जाकर बच्चे के हाथ से दान-पुण्य कराते हैं। 

 

शाम के समय सब बच्चे की इच्छानुसार फिल्म देखते हैं या किसी पर्यटन स्थल, पिकनिक आदि पर जाते हैं। भोजन भी घर से बाहर ही करते हैं। अर्थात पूरा दिन उस बच्चे की इच्छा सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानकर पूरा परिवार चलता है। इससे बच्चे को संस्कार भी मिलते हैं और परिवार का प्यार भी।

 

जन्मदिन के साथ एक कुरीति आजकल और जुड़ गयी है। वह है बच्चे की कक्षा में या फिर पूरे विद्यालय में टॉफी, ठंडे पेय, पेस्ट्री आदि का वितरण। वैसे तो यह सामान्य-सा लगता है; पर इससे वहां पढ़ने वाले निर्धन छात्र के मन पर क्या बीतती है, यह वही जानता है। अतः वह भी अपने अभिभावकों को दो-चार हजार रु. खर्च करने को बाध्य करता है। घर में खाने को चाहे न हो; लेकिन दिल पर पत्थर रखकर उन्हें यह खर्च करना ही पड़ता है। 

 

इसका उपाय भी शरद जी ने अपने विद्यालय में किया है। सुबह होने वाली प्रार्थना में वे उन बच्चों को अवश्य बुलाते हैं, जिनका उस दिन जन्मदिवस होता है। प्रार्थना के पूर्व भारत माता के चित्र पर पुष्पार्चन वे बच्चे ही करते हैं। बाद में कोई अध्यापक उनके लिए शुभकामनारूपी कुछ शब्द कहते हैं। उनके अभिभावकों को भी बुलाया जाता है। इस प्रकार विद्यालय में जन्मदिवस कार्यक्रम को भी उन्होंने संस्कार देने का माध्यम बना दिया है।

 

मैं जिस काम से गया था, वह तो नहीं हुआ; पर जन्मदिवस को आडम्बर, दिखावा और धन की बरबादी के बदले संस्कार देने का माध्यम कैसे बनाया जा सकता है, यह मैंने जरूर सीख लिया।

 

-विजय कुमार

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