आज हिन्दी तेजी से वैश्विक रूप धारण करती जा रही है। भूमण्डलीकरण के इस दौर में हिन्दी अपनी उपयोगिता सिद्ध करने में कामयाब हुई है। इसमें किसी तरह का कोई शक नहीं होना चाहिए कि हिन्दी न केवल हिन्दुस्तान के दिल की भाषा है, बल्कि विश्व के कोने-कोने में यह रचती बसती है। एक तरफ दक्षिण अफ्रीका, फीजी, मॉरीशस, गुयाना, त्रिनिदाद, सूरीनाम जैसे देशों में हिन्दी की जड़ें निरन्तर गहरी होतीं चली जा रही हैं तो दूसरी तरफ अमेरिका, रूस, जापान, ब्रिटेन, जर्मनी, इटली, कोरिया, चीन, पौलेण्ड जैसे सभी प्रमुख देशों को भूमण्डलीकरण के इस दौर में टिके रहने के लिए हिन्दी का मुँह ताकने के लिए विवश होना पड़ रहा है। प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। आज विश्व के चालीस से अधिक देशों के 600 से अधिक विश्वविद्यालयों और स्कूलों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है। हिन्दी विदेश में प्रवासी भारतीयों के लिए सम्पर्क भाषा तो है ही, साथ ही वहां के अन्य लोगों के लिए भी रूचिकर भाषा हो गई है। देश में हिन्दी की सर्वव्यापकता जगजाहिर ही है। पूर्वी, पश्चिमी, उत्तरी अथवा दक्षिणी भारतीय चाहे कोई भी अपनी मातृभाषा बोलते हों, लेकिन सभी हिन्दी भाषा में जरूर संवाद कर लेते हैं। एक तरह से हिन्दी भाषा पहले दिलों को जोड़ती रही है और अब देशों को जोड़ने का काम कर रही है।
आंकड़ों के हिसाब से देखा जाए तो विश्व में सर्वाधिक बोलने वाली भाषा चीनी है, उसके बाद हिन्दी ने अपना गौरवमयी स्थान बनाया है। अंग्रेजी तीसरे स्थान पर है। भूमण्डलीकरण ने हिन्दी की उपयोगिता को अच्छा खासा बढ़ाया है। भूमण्डलीकरण युग में बाजारीकरण हुआ है। बाजार में उपभोक्ताओं तक उत्पादों की अधिक और सहज पहुंच सुनिश्चित करने के लिए आम आदमी की सम्पर्क भाषा का चुनाव किया जाता है। इस मामले में हिन्दी ने बाजी मारी है। एक अनुमान के अनुसार आज वैश्विक बाजार में हिन्दी भाषा के विज्ञापनों वाले उत्पाद अंग्रेजी भाषा वाले विज्ञापनों से दस फीसदी से अधिक कमाई कर रहे हैं। हिन्दी भाषी चैनलों के दर्शकों की संख्या अन्य भाषा के चैनलों से कई गुणा अधिक आंकी गई है। देश में इलैक्ट्रोनिक मीडिया हो या प्रिन्ट मीडिया, दोनों में हिन्दी का प्रभुत्व देखा जा सकता है। देश में सर्वाधिक समाचार पत्र एवं पाठक हिन्दी के ही हैं।
हिन्दी आम आदमी की भाषा है। इस तथ्य को कोई भी नहीं नकार सकता है। वास्तव में हिन्दी को एक रिक्शावाले से लेकर, दुकानदार, मजदूर, किसान तक सहज समझ लेता है। असल में इसी आम तबके ने हिन्दी को सरताज बनाने का सौभाग्य प्रदान किया है। हिन्दी की पहुंच आम आदमी के घर तक ही नहीं, बल्कि उसके दिल तक पहुंचती है। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान जन-जन में स्वतंत्रता प्राप्ति का जज़्बा भरने के लिए सभी क्रांतिकारियों ने हिन्दी भाषा को अपने अभियान का अभिन्न अंग बनाया था। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान जितने भी समारोह, प्रचार-प्रसार अभियान आदि आयोजित हुए, सभी में हिन्दी भाषा को प्रमुख रूप से प्रयोग किया जाता था। यहाँ तक कि उस दौरान प्रचार-प्रसार के लिए छपने वाले समाचार पत्र, पत्रिकाएं एवं परचे भी हिन्दी भाषा में ही होते थे। स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले का दौर रहा हो या फिर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद का समय, हमारे राष्ट्रीय नेताओं को अपने आचार-विचार जनता तक पहुंचाने के लिए हिन्दी को अपनी संवाद भाषा बनाना पड़ा। हिन्दीतर क्षेत्रों के होने के बावजूद राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, स्वामी दयानंद, रविन्द्र नाथ ठाकुर, बाल गंगाधर तिलक, राजगोपालाचार्य जैसे अनेक महान् लोगों ने आम आदमी तक अपने विचार पहुंचाने के लिए हिन्दी को ही अपनाया।
अब इंटरनेट की दुनिया में भी हिन्दी का रूतबा बढ़ा है। आईएएस के स्तर पर भी हिन्दी का आधार मजबूत हुआ है। आईआईटी के शिक्षार्थियों का भी हिन्दी के प्रति पहले से कहीं अधिक रूझान बढ़ा है। पहले आईआईटी करने का माध्यम अंग्रेजी था, लेकिन ग्रामीण बच्चों की बढ़ती भागीदारी को देखते हुए, अब अंग्रेजी के साथ हिन्दी को भी आईआईटी करने का माध्यम बना दिया गया है। वेबसाइट, ब्लॉग, ऐप आदि भी हिन्दी में संचालित होने लगे हैं। हिन्दी रोजगार के क्षेत्र में भी आगे बढ़ी है। तकनीकी एवं वैज्ञानिक ज्ञान-विज्ञान की पुस्तकों में हिन्दी ने अंग्रेजी के एकाधिकार को कड़ी चुनौती देना शुरू कर दिया है। कुल मिलाकर अब हिन्दी असीमित हो गई है, उसकी अपनी कोई सीमा नहीं रह गई है। हर वर्ग, हर क्षेत्र, हर देश और हर स्तर पर हिन्दी की बेहतरीन उपस्थिति सहज देखी जाने लगी है। अब हिन्दी पर केवल हिन्दुस्तान का हक नहीं रह गया है, अब यह वैश्विक भाषा बन गई है। इस तथ्य को इंग्लैण्ड के प्रोफेसर की यह अभिव्यक्ति बखूबी सिद्ध करती है, ‘‘हिन्दी जिन्दगी का हिस्सा है। हिन्दी जिन्दा है। हिन्दी किसी एक वर्ग या वर्ण या जाति या धर्म या मजहब या मार्ग या देश या संस्कृति की नहीं है। हिन्दी भारत की है। मॉरीशस की है। इंग्लैण्ड की है। सारी दुनिया की है। हिन्दी आपकी है। हिन्दी मेरी है।’’
विदेशों में हिन्दी को हिन्दुस्तान का प्रतीक माना जाता है। ज्यों-ज्यों हिन्दुस्तान विकसित देशों की श्रेणी में शामिल होने व एक महाशक्ति बनने की तरफ अग्रसित हुआ है, त्यों-त्यों हिन्दी को अधिक महत्व मिला है। आज हिन्दी धीरे-धीरे अपनी सभी कमजोरियों के मकड़जाल से बड़ी तेजी से निकलती चली जा रही है। हिन्दी वैश्विक स्तर पर बाजार की भाषा बन गई है। व्यवसायिक क्षेत्रों में भी हिन्दी को बखूबी सम्मान मिलने लगा है। विदेशों में तो हिन्दी के प्रति अप्रत्याशित रूप से रूझान बढ़ा है। अमेरिका जैसे देश हिन्दी शिक्षण-प्रशिक्षण पर लाखों-करोड़ों डॉलर खर्च कर रहा है। एक सामान्य अनुमान के अनुसार अकेले अमेरिका में दो सौ से अधिक स्कूलों में हजारों विद्यार्थी हिन्दी सीख रहे हैं। अन्य देशों में भी इसी तरह का सुखद नजारा देखने को मिल रहा है।
अन्य देश लाखों रूपये मासिक वेतन पर भारत से बुलाकर हिन्दी अध्यापकों एवं प्राध्यापकों की नियुक्ति कर रहे हैं। जानकारों के मुताबिक विदेशों में हिन्दी सिखाने वाले अध्यापकों की भारी कमी हो गई है। पहले हिन्दी में रोजगार की न्यून संभावनाओं का रोना रोया जाता था। लेकिन आज हिन्दी रोजगारप्रद भाषा बन चुकी है। विदेशों में हिन्दी में शिक्षित लोगों को विशेष तौर पर भर्ती किया जाने लगा है। पौलेण्ड जैसे देशों में तो हिन्दी में पारंगत लोगों को पर्यटन, अनुवाद, पुस्तकालयों, संग्रहालयों आदि लगभग हर क्षेत्र में भर्ती किया जा रहा है। लगभग हर देश में हिन्दी के क्षेत्र में रोजगार की अपार संभावनाओं के द्वार खुल गए हैं। इन्हीं सब तथ्यों से सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि हिन्दी भविष्य में कितने बड़े स्तर पर पहुंचने जा रही है।
इसके साथ ही बहुत बड़ी विडम्बना की बात यह है कि जहां हिन्दी विश्व में सफलता के झण्डे का गाड़ रही है, वहीं हम अपने देश में इसे निरन्तर पछाड़ने पर तुले हुए हैं। हिन्दी को उसके अपने देश में पिछले कई दशकों से सरेआम छला जा रहा है। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत पूर्ण विचार-मंथन करने के बाद 26 जनवरी, 1950 के दिन संविधान के अनुच्छेद 343/1 के अनुसार देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी को संघ की राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया था। लेकिन इसी अनुच्छेद के साथ अनुच्छेद 343/2 के तहत प्रावधान बनाया गया कि आगामी 15 वर्षों तक हिन्दी के साथ अंग्रेजी का प्रयोग पूर्ववत् चलता रहेगा, उसके बाद यानी 1965 के बाद हिन्दी को उसका स्वत्व प्राप्त हो जाएगा। लेकिन क्या यह सब हो पाया? निश्चित अवधि के पाँच दशक से अधिक समय के बाद भी आज हिन्दी को उसका स्वत्व प्राप्त नहीं हो पाया। आखिर क्यों?
यदि हम वास्तव में हिन्दी को उसका सम्मान दिलाना चाहते हैं तो हमें हिन्दी की देश में हो रही उपेक्षा को रोकना होगा। हिन्दी को अंग्रेजी से निम्न मानना व अंग्रेजी को उच्च प्रतिष्ठित भाषा मानकर हिन्दी की उपेक्षा करना पूर्णतः बंद करना होगा। हमें अपने बच्चों की शिक्षा-दीक्षा भी हिन्दी माध्यम में करवाने के लिए प्राथमिकता देनी चाहिए। हमारी सभी शैक्षणिक कक्षाओं में हिन्दी अनिवार्य विषय बने, ऐसा प्रावधान बनाया जाना चाहिए। इनके अलावा हिन्दी भाषा के समक्ष आने वाली चुनौतियों एवं समस्याओं के निवारण के लिए हम सबको सकारात्मक भूमिका सुनिश्चित करनी होगी। इसके साथ ही सरकार द्वारा राजभाषा नीति संबंधी आदेषों की पालना करना व करवाना होगा। हिन्दी को हिन्दुस्तान में उसका हक दिलाने के बाद उसे राष्ट्रसंघ की भाषा बनाने के अभियान पर भी ध्यान देना चाहिए।
24 अक्तूबर, 1945 को जब संयुक्त राष्ट्रसंघ का प्राधिकार (चार्टर) बनाया गया था, तब उस समय अंग्रेजी, फ्रेंच, रूसी, चीनी और स्पेनिश आदि पाँच भाषाओं को राष्ट्रसंघ की भाषाओं के रूप में स्वीकृत किया गया था। प्राधिकार में यह प्रावधान किया गया था कि कोई भी भाषा राष्ट्रसंघ की भाषा बन सकती है, बशर्ते कि उसे राष्ट्रसंघ की जनरल असेम्बली के दो-तिहाई सदस्यों का समर्थन प्राप्त हो। ऐसे में आज हिन्दी को राष्ट्रसंघ की भाषा का सम्मानजनक दर्जा दिलाने के लिए जनरल असेम्बली के 191 सदस्यों में से 128 सदस्यों के समर्थन की आवश्यकता है। इसके लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ में प्रस्ताव भेजने की घोषणा वर्ष 1975 के नागपुर में आयोजित प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन में की गई थी। लेकिन दुर्भाग्यवश आज तक यह प्रस्ताव तैयार करके नहीं भेजा गया है। हालांकि वर्ष 2003 में वाजपेयी सरकार में तो इस विषय पर कुछ प्रयास किए गए थे। उसके बाद यह मामला ठण्डे बस्ते में चला गया। हिन्दी के शुभचिन्तकों को हिन्दी के समक्ष आने वाली हर तरह की बाधाओं के निवारण के लिए अपनी सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए, ताकि हिन्दी को वैश्विक स्तर पर सर्वोच्च स्थान हासिल हो सके।
- राजेश कश्यप