कुछ कहावतें समय के साथ बदलती रहती हैं। जैसे तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा। लेकिन पंखे की तीन पत्तियाँ तीन तिगाड़ा तो कतई नहीं हो सकती। गर्मी के दिनों में वो न हो तो आदमी का बिगाड़ा हो सकता है। जिस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु, महेश की तिकड़ी दुनिया चलाती है, ठीक उसी तरह पंखे की तीन पत्तियाँ मेरे घर को। पंखे की स्पीड पाँच की हो तो कहना ही क्या, बिखरे हुए अखबार के पन्नों की तरह सब कुछ फड़फड़ाने लगता है। पंखा पुराण में नाना प्रकार की कष्ट लीलाएँ वर्णित हैं। पंखा न चले तो बच्चे घर से भाग जाते हैं। सब्जियाँ खराब हो जाती हैं। गर्मी में जिन कपड़ों को धोने के लिए पांच मिनट लगते हैं, वही पसीने से तर-बतर होने के लिए दो मिनट। कभी-कभी तो लगता है कि मैगी नूडल्स ने दो मिनट का फार्मूला यहीं से चुराया है।
पंखे के बंद होते मैं इस तरह छटपटाने लगता हूँ जैसे बिन पानी मछली। वैसे मछलियाँ बरसात के दिनों में भी सुरक्षित नहीं होती। भूख के आगे सभी अभागे हैं। कभी-कभी सोचता हूँ यह पंखा न होता तो क्या होता? न मेरी शादी होती, न मेरे बच्चे। या यूँ कहिए कि दुनिया ही नहीं होती। बहरहाल, पंखे के बंद होते ही, सारा-का-सारा माहौल अचानक से पसीने का पानीपत बन जाता है। कभी आप बगलों को खुजलाते हैं तो कभी सिर। कभी पीठ को खुजलाते हैं तो कभी कुछ। ऐसे समय में हमें अपने शरीर पर बड़ा पछतावा होता है। भगवान से प्रार्थना करते दिखाई देते हैं कि यह गर्मी का मौसम क्यों बनाया? बनाया तो बनाया बदन खुजलाने के लिए और दो-चार हाथ क्यों नहीं दिए? सच कहें तो पंखे का बंद होना समस्त मानवजाति के लिए अभिशाप बन जाता है। पंखा है तो हवा है। हवा है तो वाह-वाह है। नहीं तो आह-आह है।
गर्मी के दिनों में वैसे तो सब कुछ जल्दी पकता है, लेकिन दिमाग का नंबर पहले आता है। इन दिनों में सरल वाक्यों का प्रयोग श्रेष्ठ माना जाता है। संयुक्त अथवा मिश्रित वाक्यों से खोपड़िया कुछ ज्यादा ही पक जाती है। ऐसे में मनुष्य गलतियों का पुतला वाली उक्ति को चरितार्थ करने में अपना सब कुछ लगा देता है। यही कारण है कि जब कोई किसी के घर जाता है तो उसके लिए टेबल वाला तीन पत्तियों का झेलनदार तीव्र गति में दौड़ा दिया जाता है। उसके बाद पानी, शरबत और आवभगत की अन्य सामग्री दी जाती है। गर्मी की दुपहरिया में जब सूर्य सिर को भूमध्य रेखा समझ शून्य डिग्री पर प्रयाण करता है तब सुनने, समझने और बोलने की क्षमता समाप्त हो जाती है। डैड डेड की तरह, मम्मी मिस्र की मम्मी की तरह दिखाई देने लगते हैं।
गर्मी के दिनों में बिजली चली जाए तो सबके मुँह से एक ही वाक्य निकलता है– बिजली कब आएगी? गर्मी के दिनों में बिजली को छुप्पम-छुपाई खेलने का बड़ा शौक होता है। आदमी जब तक जीने की आस न छोड़ दे तब तक उसके दर्शन नहीं होते। थोड़ी सी हवा भी कहीं से आ जाए तो मानो ऐसा लगता है जैसे पंखा चल पड़ा। अब भला पंखा सरकार थोड़े न है कि भेड़-बकरियों के वोट से चल पड़ेगा। इसके लिए बिजली की आवश्यकता पड़ती है, जो कि इस समय मंहगाई को छोड़कर कहीं दूसरी जगह दिखाई नहीं देती। मैं तो कहूँ महंगाई की बिजली से सपनों का पंखा चलाइए और इस जिंदगी से छुटकारा पाइए।
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,
(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)