टोपी, बुर्का, दाढ़ी कांग्रेस को क्यों है प्यारी? Hijab के प्रति प्रेम दिखाकर क्या कांग्रेस तुष्टिकरण की पराकाष्ठा पर उतर आयी?

By नीरज कुमार दुबे | Dec 23, 2023

कर्नाटक विधानसभा चुनावों में मुस्लिमों के 82 प्रतिशत से ज्यादा मत अकेले कांग्रेस को मिले थे इसलिए ऐसा लगता है कि कांग्रेस पार्टी की सरकार तुष्टिकरण की राजनीति की पराकाष्ठा पर उतर आयी है। पहले कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने पूर्व की भाजपा सरकार के उस फैसले का विरोध किया जिसके तहत मुस्लिमों के लिए 4 प्रतिशत आरक्षण को खत्म कर दिया गया था। अब राज्य सरकार ने शैक्षणिक संस्थानों में हिजाब पहनने पर जारी प्रतिबंध को हटा दिया है। खुद मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने इस बात का ऐलान किया और साथ ही भाजपा पर निशाना साधते हुए कहा, "वे कहते हैं 'सबका साथ, सबका विकास' लेकिन टोपी, बुर्का पहनने वालों और दाढ़ी रखने वालों को दरकिनार कर देते हैं। क्या उनका यही मतलब है।" हम आपको याद दिला दें कि विधानसभा चुनावों के समय कांग्रेस ने वादा किया था कि वह भाजपा सरकार के फैसलों को पलटेगी। इसलिए अब सवाल यह है कि अगला फैसला कौन-सा होगा जिसे कर्नाटक सरकार पलटने की तैयारी में है? क्या भाजपा ने जबरन धर्मांतरण विरोधी जो कानून बनाया था उसे पलट दिया जायेगा? क्या कर्नाटक में भाजपा ने गौ हत्या के खिलाफ जो कानून बनाया था उसे रद्द कर दिया जायेगा? सवाल यह भी है कि जब कांग्रेस को तुष्टिकरण की राजनीति ही करनी है तो वह हिंदूवादी होने का ढोंग क्यों करती है? 


देखा जाये तो ऐसा प्रतीत होता है कि कर्नाटक सरकार ने आगामी लोकसभा चुनावों की दृष्टि से एक बार फिर ध्रुवीकरण कराने के मकसद से हिजाब पर रोक हटाने का फैसला किया है। हम आपको बता दें कि कर्नाटक में मुस्लिमों की आबादी लगभग 13 प्रतिशत के आसपास मानी जाती है। वैसे कर्नाटक सरकार को हिजाब पर फैसला करते समय उच्चतम न्यायालय की वृहद पीठ का निर्णय आने की प्रतीक्षा करनी चाहिए थी। हम आपको यह भी याद दिला दें कि कर्नाटक हिजाब मामले में जब उच्चतम न्यायालय ने खंडित फैसला सुनाया था तब भी पुरातनपंथियों ने जिस प्रकार के बयान दिये थे वह मुस्लिम लड़कियों की स्वतंत्रता के विरोध में ही थे।


कर्नाटक सरकार को समझना होगा कि हिजाब पहनना भले निजी पसंद का मामला हो लेकिन स्कूलों में उन वस्त्रों को पहनने की इजाजत कैसे दी जा सकती है जिससे समानता, अखंडता और सार्वजनिक व्यवस्था बाधित होती हो। यहां यह भी प्रश्न खड़ा होता है कि जब कई देशों में इस्लाम आधुनिकता की ओर बढ़ रहा है तो हमारे यहां के कट्टरपंथी इसे पीछे ले जाने पर क्यों आमादा हैं? देखा जाये तो कर्नाटक सरकार का यह फैसला शिक्षण संस्थानों की ‘धर्मनिरपेक्ष प्रकृति’ के प्रति चिंता पैदा करता है।


वैसे देखा जाये तो भारत में तुष्टिकरण की राजनीति कोई नई बात नहीं है। लेकिन 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को प्रचंड बहुमत मिलने के बाद दूसरे दलों को समझ आया कि तुष्टिकरण की राजनीति के दिन लद गये हैं। मोदी की देखादेखी अन्य नेता भी मंदिरों में जाने लगे, खुद को सबसे बड़ा तपस्वी बताने लगे, माथे पर चंदन का टीका लगाने लगे, जो नेता पहले सिर्फ मजारों या दरगाहों पर ही जाते थे वह अब आरती करने लगे, व्रत करने लगे और हवन पूजन करने लगे। लेकिन आप विभिन्न राज्यों की राजनीति का अध्ययन करेंगे तो पाएंगे कि तुष्टिकरण की राजनीति से तौबा करने का सबक सिर्फ कुछ नेताओं ने ही लिया है। कई राज्यों में आज भी तुष्टिकरण की राजनीति धड़ल्ले से जारी है। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी पर तो तुष्टिकरण के खूब आरोप लगते रहते हैं, यही नहीं पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के बेटे नारा लोकेश ने पिछले दिनों वादा किया था कि विधानसभा चुनावों में यदि उनकी पार्टी सत्ता में आई तो इस्लामिक बैंक की स्थापना करेगी। तेलंगाना के मुख्यमंत्री पद पर रहने के दौरान केसीआर तो तुष्टिकरण की राजनीति के मास्टर बने हुए थे। चुनावों के दौरान वह अपनी सभाओं में अल्लाह का शुक्रिया अदा किया करते थे और वादा किया था कि उनकी पार्टी यदि चुनाव जीती तो हैदराबाद में मुस्लिम आईटी पार्क की स्थापना करेगी। हम आपको यह भी याद दिला दें कि पिछले साल कर्नाटक हिजाब मामले के दौरान तेलंगाना में एक वीडियो सामने आया था जिसमें मंगलसूत्र पहने महिला से परीक्षा केंद्र में प्रवेश से पहले मंगलसूत्र उतरवाया जा रहा था तो दूसरी ओर हिजाब पहने लड़की परीक्षा केंद्र में आराम से जा रही थी। केसीआर पर तुष्टिकरण की राजनीति के जो तमाम आरोप लगते हैं उनमें एक कथित आरोप यह भी था कि पिछले साल ग्रुप 1 की नौकरियों की परीक्षा में उर्दू में उत्तर देने की अनुमति दी गयी थी। तमिलनाडु में द्रमुक सरकार भी तुष्टिकरण की राजनीति को तेजी से बढ़ावा दे रही है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या इस तरह की राजनीति करके हमारे राजनीतिज्ञ उस शपथ का उल्लंघन नहीं कर रहे हैं जिसके तहत उन्होंने कहा था कि वह बिना किसी भेदभाव के सबके साथ न्याय सुनिश्चित करेंगे? 


बहरहाल, जहां तक कर्नाटक के हिजाब मामले की बात है तो यह सही है कि सभी को अपनी पसंद के कपड़े पहनने और भोजन का चयन करने की आजादी है लेकिन जब बात शिक्षण संस्थान की आती है तब यह आजादी सीमित हो जाती है। कहा जा सकता है कि कर्नाटक सरकार ने शिक्षण संस्थानों में धार्मिक परिधान को मंजूरी देकर युवाओं को धार्मिक आधार पर बांटने का काम किया है। जबकि राज्य सरकार को ऐसा माहौल निर्मित करना चाहिए था जहां छात्र धार्मिक प्रथाओं से प्रभावित हुए बगैर शिक्षा पर ध्यान केन्द्रित कर सकें।


-नीरज कुमार दुबे


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