दिव्य युग पुरुष, शान्ति के पुंज श्री गुरू अर्जुन देव जी सिखों के पाँचवें गुरू हैं। आप जी का जन्म 15 अप्रैल 1563 को श्री गुरू रामदास जी के घर व माता भानी जी की कोख से गोइंदवाल, जिला अमृतसर में हुआ। वे गुरू रामदास जी के सब से छोटे पुत्र थे। पृथी चंद व महादेव जी इनके बड़े भाई थे। आप जी को 18 साल की उम्र में, सन् 1581 को गुरगद्दी की प्राप्ति हुई।
शहीदों के सिरताज श्री गुरू अर्जुन देव जी एक महान विभूति संत सतगुरू, कवि थे। जिन्होंने सच्ची गुरबाणी की रचना कर व ऊँची कुर्बानी से सुनहरे, अविस्मरीणय व अदभुत इतिहास का सृजन किया। श्री गुरू अर्जुन देव जी द्वारा संपादित श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी जिसे 'गुरबाणी जग महि चानण' व 'सर्व सांझी गुरबाणी' कहा जाता है। इस अमोलक ग्रन्थ से प्रत्येक जाति, वर्ग व सम्प्रदाय प्रेरणा प्राप्त कर सकता है। इसके द्वारा हिन्दु को प्रभु के दर्शन होते हैं, मुसलमान को खुदा व सिख को अकाल पुरख के। इस महान ग्रन्थ में हरि 8344 बार, प्रभु 1371 बार, ठाकुर 216 बार, राम 2533 बार, गोपाल 491 बार, नारायण 85 बार, अल्लाह 49 बार, वाहेगुरु 16 बार, पारब्रह्म 324 बार, एवं करतार 220 बार आया है।
गुरु ग्रन्थ साहिब जी में 31 रागों में बाणी दर्ज है। 13 प्रदेशों की भाषाओं का प्रयोग किया गया है। 6 गुरुओं श्री गुरू नानक देव जी से लेकर 5वें गुरू श्री गुरू अर्जुन देव जी व नौवें गुरु श्री गुरू तेग बहादुर जी की बाणी अंकित है, 15 जातियों के भक्त, 4 संत, 11 भट्टों की वाणी दर्ज है। सुखमनी साहिब गुरू जी द्वारा रचित बाणी है, जिसे पढ़ने, सुनने, चिंतन करने से सब दुःख तकलीफों से छुटकारा मिलता है। संक्षिप्त में कहा जाए तो श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में दर्ज, महापुरुषों की पवित्र वाणी से संपूर्ण मानव जाति जीवन जीने की कला, भक्ति−शक्ति, सेवा, समर्पण, परोपकार इत्यादि जैसे विलक्षण गुणों का अमृत प्राप्त करती है।
श्री गुरूदेव जी की बहुआयामी शख्सियत अवर्णनीय है। वे महान गुरू हैं जिन्होंने सामाजिक भलाई व परमार्थ द्वारा मानवता की सेवा कर विश्व को नई रौशनी प्रदान की। वे महान कवि हैं जिनकी लेखनी ने भारतीय संत काव्य में एक विशेष सुहृदयता व सुंदरता फूंक दी। 43 साल की छोटी सी आयु में इस युग पुरुष ने इतिहास, धर्म, साहित, समाज, संस्कृति व कला क्षेत्र में जो योगदान प्रदान किया वो अद्वितीय है। उन्होंने श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी में बाहरवीं सदी से लेकर सोहलवीं सदी तक के पांच सौ वर्षीय संत साहित्य को संपादित कर, भारतीय संस्कृति पर एक महान उपकार किया। उन्होंने धर्म के लिए अपनी कुर्बानी देकर यह सिद्ध कर दिया कि एक सच्चा संत कैसे जालिम, जुल्म व अत्याचार के खिलाफ स्वयं को कुर्बान कर सकता है। अहिंसा, हिंसा पर विजय प्राप्त कर कैसे सत्यमेव जयते के सिद्धांत को बरकरार रख सकती है।
श्री गुरूदेव जी की सर्व गुण सम्पन्न शख्सियत में सद्गुरु, सुधारक, शान्ति के पुंज, सुजान संपादक, संगीतकार, शायर व विलक्षण शहीद का, अनोखा संगम देखने को मिलता है। सुखमनी साहिब श्री गुरू अर्जुन देव जी की शाहकार रचना है। सिर्फ पंजाबी ही नहीं अपितु भारतीय कवियों में उनका शिरोमणी स्थान है। उन्होंने अपना समस्त जीवन सेवा व परोपकार में ही व्यतीत किया। लोगों के सुख आराम के लिए बाग, बावड़ीयां, सराय, ताल−तालाब, दवाखाने व लंगर लगाने की सेवा ताउम्र की। और अंत में अपनी दिव्य देह भी धर्म की रक्षा व लोक हित के लिए ही न्यौछावर कर दी।
उनके नाना श्री गुरू अमरदास जी ने उनके लिए वचन किया था−दोहिता बाणी का बोहिथा अर्थात यह बाणी का जहाज बनेगा जो इसके द्वारा खुद भी तरेगा औरों को भी तरने की युक्ति प्रदान करेगा।
यह घटना उस समय की है, जब एक दिन श्री गुरू अमरदास जी अपने तख्त पर ध्यानस्थ थे। और बालक अर्जुन देव अपने साथियों के साथ प्रांगण में गेंद खेल रहे थे। सहसा उनकी गेंद उछली और गुरूदेव के आसन के समीप जाकर गिर गई। इधर−उधर तलाश करने के उपरांत बालक अर्जुन के मन में ख्याल आया कि कहीं गेंद नाना जी के आसन पर न गिर गई हो? फिर क्या था उन्होंने गुरूदेव के तख्त तक उछलने का प्रयास किया। सुगठित शरीर का मालिक, बालक अर्जुन अच्छे से लपक नहीं पाया। शायद वे अपने नाना जी के ध्यान को भंग नहीं करना चाहता था। फिर उन्होंने धीरे से तख्त के पाये पर पैर रखकर ऊपर झांकने का प्रयास किया। और गुरूदेव का आसन डोल गया और उनकी योगनिद्रा टूट गई। उन्होंने प्रेम से कहा कि यह कौन महान विभूति है। जिसने हमारी सारी की सारी सत्ता ही हिला के रख दी?
श्री गुरूदेव पास खड़े बालक अर्जुन को कलावे में भरकर लाड़ लड़ाने लगे। और उन्होंने वचन किया−एक दिन आएगा जब आप बहुत महान कार्य करेंगे, दीन दुनिया व धर्म की रक्षा कर नए कीर्तिमान स्थापित करेंगे। और गुरूदेव के वचन पूर्ण हुए। गुरू अर्जुन देव जी श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी का संपादन कर बाणी का बोहिथा भी बने और उन्होंने धर्म की रक्षा हेतु बलिदान कर महान कीर्तिमान भी स्थापित किया।
आप जी को बचपन से ही ईश्वर भक्ति के प्रति विशेष लगाव था। आपकी ईश्वर के प्रति यह आस्था देखकर आपके माता−पिता अत्यन्त हर्षित होते। आप शरीर के बलिष्ठ, लंबे एवं ललाट पर तेजस्व और नयनों में एक विशेष प्रकार के ज्योति पुंज को धारण किए थे। आपके मुखारविंद पर एक मधुर मुस्कान सदैव बिराजमान रहती। आप मधुर भाषी व उच्च व्यक्तित्व के स्वामी थे। आप सदैव स्वार्थ से दूर केवल त्याग की भावना से ओतप्रोत रहते। विन्रमता आपका सबसे बड़ा गुण था। गुरू दरबार के सेवा कार्यों में आपको बहुत आनंद मिलता। इसीलिए पिता श्री गुरू रामदास जी का अपने आज्ञाकारी पुत्र के प्रति विशेष लगाव था। इस कारण पृथी चंद जो कि र्ईष्यालु व अहंकारी स्वभाव का था। वह स्वयं गुरूगद्दी पर बिराजमान होना चाहता था। इसलिए वह अर्जुन देव जी के खिलाफ अनेकों तरह के षड़यंत्र गढता रहता था। इसी के तहत जब श्री गुरू अर्जुन देव जी लाहौर अपने ताऊ के यहाँ विवाह में सम्मिलित होने गए, तो वहाँ पर काफी समय बीतने के बाद, उन्होंने अपने गुरू पिता जी को वापिस आने की आज्ञा प्राप्त करने के लिए चिट्ठियां लिखीं लेकिन पृथी चंद नहीं चाहता कि अर्जुन देव वापिस गोइंदवाल आए। इसलिए उसने वो चिट्ठियां अपने पास ही रख ली। जब दो चिट्ठियां लिखने के पश्चात् भी गुरू पिता की ओर से कोई आज्ञा नहीं आई तो उन्होंने तीसरी चिट्ठी सेवादार को देते हुए कहा कि आपने यह चिटठी श्री गुरूदेव पिता जी के करकमलों में ही देनी है। और संदेशवाहक ने भरे दरबार में ही चिट्ठी गुरूदेव को सौंप दी। पत्र पढ़ते ही अर्जुन देव की वाणी गुरूदेव को अंदर तक झकझोर गई। उन्होंने तुरंत उनको वापिस लिवाने का इंतजाम करवाया। गुरूदेव सहज भाव में कहने लगे कि इस पत्र पर तो 3 अंक लिखा हुआ है। क्या इससे पहले भी अर्जुन ने हमारे लिए पत्र भेजे थे? इस पर संदेशवाहक ने बताया कि वो पहले 2 पत्र पृथी चंद जी को देकर गया था। और उन्होंने कहा था कि गुरूदेव पिता कह रहे हैं कि जब अर्जुन देव की यहाँ आवश्यक्ता होगी हम बुला लेंगे। तभी गुरूदेव ने पृथी चंद को दरबार में बुलवाया। पृथी चंद संदेशवाहक को देखकर सब समझ गया। परंतु ऊपर से कहने लगा कि पिता जी मेरे लिए क्या संदेश है? गुरूदेव ने पूछा कि आपने अर्जुन के भेजे पत्र, मुझ तक क्यों नहीं पहुँचाए? तो वह तरह−तरह के बहाने बनाने लगा।
वास्तव में गुरू रामदास जी गुरू गद्दी देने से पहले अर्जुन देव जी की परीक्षा ले रहे थे जिसमें वे उतीर्ण हुए और गुरूदेव ने उनका गुरूगद्दी के लिए बाबा बुढ्ढा जी से तिलक करवाया व समस्त संगत को आदेश दिया कि अब गुरू अर्जुन ही उनके गुरू हैं। इस प्रकार देश दुनिया को महान तपस्वी, धैर्यवान, जगत तारक संत सद्गुरू के रूप में श्री गुरू अर्जुन देव जी की प्राप्ति हुई। जिन्होंने हमें जीवन जीने की विशिष्ट कला प्रदान की जिससे हम अपना लोग परलोक संवार सके।
- सुखी भारती