गवर्नर की भूमिका और विवेक, कब-कब राज्यपालों ने सत्ता बनाई और बिगाड़ी

By अभिनय आकाश | Jul 29, 2020

ये 1982 की बात है। गर्म दोपहर में हरियाणा के तत्कालीन गवर्नर गणपतराव देवजी तपासे चंडीगढ़ राजभवन के सोफे पर बैठे थे। लोकदल के गुस्साए विधायकों से घिरे गवर्नर के कानों में एक दमदार आवाज गूंजती है। 'ये हरियाणा है यहां गोलियां चलेंगी और खून बहेगा। इन विधायकों में शामिल थे लोकदल के नेता देवीलाल। तपासे के पास इन नेताओं के सवालों का कोई जवाब नहीं था। लेकिन जैसे ही तपासे बात करते करते अपना हाथ अपनी मुंह की ओर लेकर जाते हैं तो देवीलाल गु्स्से में उनका हाथ झटक देते हैं। हरियाणा का यह जाट नेता चिल्लाकर बोलता हैं 'इंदिरा गांधी के गुलाम तुम क्या समझते हो तुमने जो किया है उसके बाद क्या तुम बच जाओगे'। 23 मई 1982 को एक गवर्नर के फैसले ने भारतीय राजनीति के दल-बदल को नई परिभाषा दी। आज के इस विश्लेषण में बात सिर्फ हरियाणा की नहीं अपितु देश की करेंगे, देश के विभिन्न राज्य सरकारों की करेंगे और राज्यों के राज्यपालों की करेंगे। साथ ही बताएंगे की कब-कब राज्यपालों ने राज्यों में सत्ता बनाई और बिगाड़ी है। 

जाने-माने समाजवादी नेता मधु लिमये 1970-80 के दशक में कहा करते थे कि राज्यपाल का पद समाप्त कर देना चाहिए। उनका कहना था कि 'राज्यपाल सफ़ेद हाथी है' जिस पर बहुत सरकारी पैसा बेवजह ख़र्च होता है। राज्यपालों की यह कहानी कोई आजकल की नहीं, बल्कि बहुत पुरानी है, जिसे आए दिन कोई न कोई राज्यपाल देश को याद दिलाता रहता है। राजस्थान के राज्यपाल कलराज मिश्र ने विधानसभा का सत्र बुलाने के लिए अशोक गहलोत सरकार की सिफारिश को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। वर्षों में राज्य सरकारों के गठन और बर्खास्तगी में राज्यपालों के विवादास्पद फैसलों के कितने उदाहरण इतिहास में मौजूद हैं।

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केंद्र में सत्ता में होने पर कांग्रेस और भाजपा दोनों पर राजनीतिक उद्देश्यों के लिए राज्यपाल के कार्यालय का दुरुपयोग करने का आरोप लगाया जाता रहा है। जब-जब बीजेपी और कांग्रेस विपक्ष में होती है तो एक-दूसरे पर लोकतंत्र और संविधान की हत्या का आरोप लगाया करती है। राज्यपालों की राजनीतिक भूमिका को लेकर भारतीय इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं। लंबे अरसे तक राजभवन राजनीति के अखाड़े बने रहे हैं। उत्तर प्रदेश में रोमेश भंडारी, झारखंड में सिब्ते रज़ी, बिहार में बूटा सिंह, कर्नाटक में हंसराज भारद्वाज और कई अन्य राज्यपालों के फ़ैसले राजनीतिक विवाद का कारण बने हैं।

कब-कब किसने सरकार बनाए-बिगाड़े

शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव के बाद केरल में आंदोलन की आग और तेज हो गई। जब केरल जल रहा था तब इंदिरा गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष नियुक्त ही हुई थीं। उन्होंने और अन्य कांग्रेसियों में मिलकर नेहरू पर फैसला लेने का दबाव बनाया। केरल के गवर्नर ने जब केंद्र को हस्तक्षेप करने की लिखित मांग की तो केंद्र सरकार ने आर्टिकल 356 का सहारा लेकर ईएमएस नंबूदरीपाद की सरकार को बर्खास्त कर दिया। बता दें कि संविधान के अनुच्छेद 356 के अनुसार केंद्र सरकार को किसी सरकार राज्य सरकार को बर्खास्त करने और राष्ट्रपति शासन लगाने की व्यवस्था में देता है जब राज्य का संवैधानिक तंत्र पूरी तरह विफल हो गया हो। लेकिन एक सरकार को गिराने और दूसरे को स्थापित करने में राज्यपालों की भूमिका का ये कोई पहला मामला नहीं था। आगे चलकर ऐसे कई मामलों से देश दो-चार होने वाला था। 1967 में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल धर्मवीर ने बहुमत दल के नेता अजय मुखर्जी की सरकार को इस तुच्छ आधार पर बर्खास्त कर दिया और पी सी घोष के नेतृत्व में कांग्रेस समर्थित सरकार स्थापित की।

राज्यपालों ने सरकार बनाने के लिए सबसे बड़ी पार्टी को आमंत्रित न करके कई बार विवाद खड़ा किया है।

 कांग्रेस शासन और 1980-90 का दौर 

अगस्त-सितंबर 1984 की बात है, सूबे के मुख्यमंत्री एनटी रामाराव हार्ट सर्जरी के लिए विदेश गए थे। आंध्र प्रदेश के राज्यपाल राम लाल ने मंत्री नादेंदला भास्कर राव को आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ दिला दी। उनके इस फ़ैसले के बाद वहां की राजनीति में तब भूचाल आ गया था। अमरीका से लौटने के बाद एनटी रामराव ने राज्यपाल के ख़िलाफ मोर्चा खोल दिया, इसके बाद केंद्र सरकार को शंकर दयाल शर्मा को राज्यपाल बनाना पड़ा। सत्ता संभालने के बाद नए राज्यपाल ने एक बार फिर आंध्र प्रदेश की सत्ता एनटी रामाराव के हाथों में सौंप दी। उसी वर्ष, सिक्किम के गवर्नर होमी तालेयारखान ने नर बहादुर भंडारी सरकार को बर्खास्त कर दिया। ये दोनों उदाहरण केंद्र में इंदिरा गांधी के शासनकाल के दौरान के थे। 

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राजनीतिक फेदबदल में राज्यपाल की भूमिका की एक और चर्चित कहानी है हरियाणा की। यहां जीडी तापसे 1980 के दशक में हरियाणा के राज्यपाल बनाए गए थे। हरियाणा में 1982 का चुनाव हुआ था। 90 सीटों वाली विधानसभा में 36 सीटें जीतकर कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी लेकिन भारतीय राष्ट्रीय लोक दल का बीजेपी से चुनाव से पहले से गठबंधन था। इस गठबंधन को 37 सीटें मिली थीं। किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था। अब ये राज्यपाल पर था कि वो किस गठबंधन को सरकार बनाने के लिए बुलाते हैं. उस दौरान हरियाणा में गणपतराव देवजी तपासे राज्यपाल थे। राज्यपाल ने पहले देवीलाल को 22 मई 1982 को सरकार बनाने के लिए बुलाया। इसी बीच भजनलाल कांग्रेस और निर्दलियों को एककर उसके नेता घोषित किये गए. उनके पास बहुमत के लिए जरूरी 52 विधायकों का समर्थन था। तपासे ने तुरंत भजनलाल को बुलाया और मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। देवीलाल बहुत नाराज हुए। वो अपने और बीजेपी के विधायकों के साथ राजभवन पहुंचे। उनमें और राज्यपाल के बीच विवाद होने लगा। ये विवाद इतना बढ़ा कि ताऊ देवीलाल राज्यपाल के हाथ को झटक दिया था। कई मीडिया रिपोर्टस की माने तो ताऊ के नाम से प्रसिद्ध देवीलाल ने तपासे को गुस्से में झप्पड़ भी झड़ दिया था। 

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एसआर बोम्मई और सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला

जब भी चुनावों के बाद किसी त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति बनती है या पार्टियों को सरकार बनाने का मौका नहीं मिलता है तो राजनीतिक गलियारों में एस आर बोम्मई केस की चर्चा बढ़ जाती है। राज्यपाल की राजनीतिक भूमिका की यह कहानी 80 के दशक की है। कर्नाटक में 1983 में पहली बार जनता पार्टी की सरकार बनी थी। उस समय रामकृष्ण हेगड़े राज्य के मुख्यमंत्री बनाए गए थे। पांच साल बाद जनता पार्टी एक बार फिर सत्ता में आई। टेलीफ़ोन टैपिंग मामले में हेगड़े को इस्तीफ़ा देना पड़ा और उनके बाद एसआर बोम्मई कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने। उस समय कर्नाटक के तत्कालीन राज्यपाल पी वेंकटसुबैया ने एक विवादित फ़ैसला लेते हुए बोम्मई की सरकार को बर्ख़ास्त कर दिया था। राज्यपाल ने कहा कि सरकार विधानसभा में बहुमत खो चुकी है। राज्यपाल ने उन्हें विधानसभा में बहुमत साबित करने से इंकार कर दिया था। राज्यपाल के इस निर्णय के खिलाफ बोम्मई ने कर्नाटक हाईकोर्ट का रुख किया, जहां उनकी रिट याचिका खारिज हो गई थी। राज्यपाल के इस फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। फ़ैसला बोम्मई के हक में आया और उन्होंने फिर से वहां सरकार बनाई। यह भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है, सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा था कि बहुमत होने न होने का फ़ैसला सदन में होना चाहिए, कहीं और नहीं। 

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1990 का दशक: संयुक्त मोर्चा

1996 में, गुजरात के राज्यपाल केपी सिंह ने भाजपा शासित राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश की। केंद्र में एच डी देवेगौड़ा के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार थी। सुरेश मेहता सरकार के लिए संकट शंकरसिंह वाघेला और 40-विधायकों के विद्रोह के बाद शुरू हुआ। मेहता ने बहुमत साबित कर दिया लेकिन सत्र में विधायकों के बीच काफी संघर्ष हुआ। संवैधानिक मशीनरी के टूटने का हवाला देते हुए, राज्यपाल ने राष्ट्रपति शासन की सिफारिश की जिसे स्वीकार कर लिया गया। फिर उत्तर प्रदेश में रोमेश भंडारी प्रकरण आया। 1998 के लोकसभा चुनाव के बीच में, जगदंबिका पाल के नेतृत्व वाली 22-सदस्यीय लोकतांत्रिक कांग्रेस के समर्थन के बाद कल्याण सिंह सरकार लड़खड़ा गई। राज्यपाल भंडारी ने रात 8 बजे के बाद सरकार को बर्खास्त कर दिया, पाल को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया और उन्हें 17 मंत्रियों के साथ लगभग 10 बजे मुख्यमंत्री के रूप में शपथ दिलाई। कल्याण सिंह ने इस फ़ैसले को इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती दी। 1998 में जगदंबिका पाल वर्सेज भारतीय संघ और अन्य मामले में उच्चतम न्यायालय ने बहुमत परीक्षण का आदेश दिया। जिसमें कल्याण सिंह के समर्थन में 225 और जगदंबिका पाल को 196 वोट मिले। स्पीकर के आचरण की बहुत आलोचना हुई थी क्योंकि उन्होंने 12 सदस्यों को दल-बदल कानून के तहत अयोग्य ठहराए जाने के मामले में दिए अपने फैसले को रद्द कर दिया था। साल 1998 में ही बिहार में राबड़ी देवी की सरकार को तत्कालीन राज्यपाल वीसी पांडे ने बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया था. केंद्र में उस दौरान अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी। राष्ट्रपति शासन का फ़ैसला लोकसभा में पारित होने के बावजूद राज्यसभा में पारित नहीं हो सका था, लिहाजा वाजपेयी सरकार को मजबूरन राबड़ी देवी की सरकार को फिर से बहाल करना पड़ा था।

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2004-14: यूपीए शासन

2005 में हुए बिहार विधानसभा के चुनाव किसी भी दल या गठबंधन को सरकार बनाने लायक बहुमत प्राप्त नहीं हुआ था, लिहाजा बूटा सिंह की सिफ़ारिश पर मई 2005 में विधानसभा भंग कर दी गई थी। उस समय केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार थी। जब राज्यपाल बूटासिंह ने अपनी रिपोर्ट भेजी तब जनता दल यूनाइटेड के नेता नीतीश कुमार सरकार बनाने का दावा करने वाले थे। लेकिन राज्यपाल ने उन्हें मौक़ा देने से इंकार कर दिया। राज्यपाल की रिपोर्ट पर फ़ैसला लेने के बाद प्रधानमंत्री ने कहा था कि विधायकों की ख़रीद फ़रोख़्त रोकने के लिए यह निर्णय लिया गया। कहा जाता है कि यूपीए के केंद्रीय मंत्रिमंडल ने आधी रात को बैठक की और राज्यपाल की रिपोर्ट राष्ट्रपति अब्दुल कलाम को सौंपी जो मॉस्को में थे। कलाम ने दो घंटे में सिफारिश को मंजूरी दे दी और विधानसभा भंग कर दी गई थी। हालांकि बाद में इसे लेकर एक जनहित याचिका दायर की गई थी जिसे सुप्रीम कोर्ट ने संविधान पीठ को भेजने का निर्णय लिया था। सात अक्तूबर को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि बिहार विधानसभा को भंग करना असंवैधानिक था लेकिन तब तक शुरु हो चुकी चुनाव प्रक्रिया को रोका नहीं गया। सुप्रीम कोर्ट ने उस वक्त अपने अंतरिम आदेश मेंयह माना गया कि राज्यपाल ने केंद्र को गुमराह किया है और केंद्रीय मंत्रिपरिषद को उनकी सिफारिश को स्वीकार करने से पहले क्रॉस-चेक करना चाहिए। बाद में सिंह ने इस्तीफा दे दिया। 

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 2005 में ऐसा ही खेल खेलते हुए झारखंड में राज्यपाल सैयद सिब्ते रज़ी ने अल्पमत के नेता शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री की पद की शपथ दिला दी थी, लेकिन बहुमत साबित न कर पाने के कारण उन्हें महज नौ दिन में ही इस्तीफा देना पड़ा था। भाजपा के अर्जुन मुंडा ने अगले मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली।

2014 से अब तक: एनडीए

18 मार्च, 2016 हरीश रावत की अगुवाई वाली कांग्रेस सरकार उस समय अल्पमत में आ गई थी, जब कांग्रेस के नौ विधायक बाग़ी होकर बीजेपी में शामिल हो गए थे। मुख्यमंत्री हरीश रावत को बहुमत साबित करने के लिए पांच दिन का वक़्त दिया गया था, लेकिन उनके बहुमत का परीक्षण होने से पहले ही केंद्र सरकार ने राज्यपाल केके पाल की रिपोर्ट के आधार पर राष्ट्रपति से राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफ़ारिश कर दी थी, जिसे तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने स्वीकार भी कर लिया था। हरीश रावत ने इस फैसले को नैनीताल हाई कोर्ट में चुनौती दी थी। हाई कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन लगाए जाने को असंवैधानिक करार दिया था। केंद्र सरकार ने हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी लेकिन वहां भी उसे निराशा हाथ लगी और हरीश रावत सरकार फिर बहाल हो गई। गोवा विधानसभा के चुनाव में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला था। वहां 40 सदस्यीय विधानसभा में 17 सीटों के साथ कांग्रेस सबसे बडी पार्टी के रूप में सामने आई थी, जबकि भाजपा को 13 सीटें हासिल हुई थीं। सबसे बड़ी पार्टी को सरकार बनाने का न्योता देने की स्थापित परंपरा को नज़रअंदाज करते हुए राज्यपाल मृदुला सिन्हा ने भाजपा के इस मौखिक दावे को स्वीकार कर लिया कि उसके पास बहुमत है, जिसे वह विधानसभा में साबित कर देगी। मनोहर पर्रिकर को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी गई, बाद में भाजपा ने छोटे-छोटे स्थानीय दलों के विधायकों को साथ लेकर बहुमत बना लिया, ठीक यही कहानी मणिपुर में भी दोहराई गई थी। कांग्रेस के सियासी नाटक से तो पूरा देश परिचित है। किस तरह पहले बहुमत न मिलने पर कांग्रेस और जेडीएस ने सत्ता के लिए चुनाव बाद गठबंधन कर लिया। फिर भाजपा सरकार बनाने के लिए वहां के राज्यपाल वजूभाई वाला ने जिस तरह का उतावलापन दिखाया, वह भी किसी से छिपा नहीं है। राज्यपाल वजुभाई वाला ने भाजपा के बी एस येदियुरप्पा को आमंत्रित किया और बहुमत साबित करने के लिए उन्हें 15 दिन का समय दिया। येदियुरप्पा ने 17 मार्च को शपथ ली। कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट चली गई जिसने दिए गए समय को रोक दिया और येदियुरप्पा को 19 मई को अपना बहुमत साबित करने के लिए कहा। नंबर पाने में असमर्थ, उन्होंने फ्लोर टेस्ट लिए बिना इस्तीफा दे दिया। लेकिन उसके बाद इस सिलसिले में महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने तो अपनी 'ऐतिहासिक' करनी से सभी राज्यपालों को पीछे छोड़ दिया। 22 नवंबर 2019 की रात तक कांग्रेस, राकांपा और शिवसेना के गठबंधन की चर्चा हुई। राकांपा प्रमुख शरद पवार ने शिवसेना सुप्रीमो उद्धव ठाकरे को नेता मानने की बात कही। देर रात तक रणनीति बनाने वाले नेताओं की तैयारी धरी रह गई और सुबह भाजपा के देवेंद्र फडणवीस और राकांपा के अजित पवार ने शपथ ले ली। बेहद तेजी से बदलते घटनाक्रम के बीच, महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी के फैसले पर भी सवाल उठे। जानकारी के मुताबिक, रात 12.30 बजे मुंबई से दिल्ली जाने के लिए तैयार राज्यपाल ने अपनी यात्रा रद्द की। इसके बाद सुबह तक राज्य से राष्ट्रपति शासन भी हट गया और शपथ ग्रहण भी हो गया।

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अब आते हैं वर्तमान के राजस्थान प्रकरण पर जहां विधानसभा सत्र बुलाने को लेकर राज्यपाल कलराज मिश्रा और अशोक गहलोत के बीच सवाल-जवाब का खेल चल रहा है। 

सदन को बुलाने की शक्तियां किसके पास हैं?

संविधान के अनुच्छेद 163 और 174 में राज्यपाल की शक्तियों और राज्य विधानसभा का सत्र बुलाने को लेकर नियमों की चर्चा है। अनुच्छेद 163 कहता है कि मुख्यमंत्री की अगुआई में मंत्रिपरिषद राज्यपाल को सलाह देगी और सहायता करेगी, लेकिन तब नहीं जब उन्हें संविधान के तहत अपना विवेकाधिकार इस्तेमाल करने की जरूरत होगी। राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह को दरकिनार करके कब अपने विवेकाधिकार का इस्तेमाल कर सकते हैं? क्या वह विधानसभा का सत्र बुलाने को लेकर भी ऐसा कर सकते हैं? इसका जवाब सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों और आर्टिकल 174 में निहित है, जो कहता है कि राज्यपाल समय-समय पर सदन की बैठक बुलाएंगे, जब भी उन्हें उचित लगे, लेकिन एक सत्र के आखिरी दिन और अगले सत्र के पहले दिन के बीच 6 महीने से अधिक का अंतर ना हो।

अनुच्छेद 174 मसौदा संविधान के अनुच्छेद 153 से निकला है। अनुच्छेद 153 की तीसरी धारा के मुताबिक, गवर्नर सत्र बुलाने के अधिकार का इस्तेमाल विवेक से करेंगे। संविधान सभा में जब इस अनुच्छेद पर चर्चा हुई तो बीआर आंबेडकर सहित कुछ सदस्यों ने इस नियम का विरोध किया। आंबेडकर ने यह कहकर हटाने की मांग की कि यह संवैधानिक राज्यपाल की योजना के साथ असंगत है। उनका प्रस्ताव पास हो गया और इस क्लॉज को हटा दिया गया। ड्राफ्ट आर्टिकल 153 बाद में अनुच्छेद 174 बना। इस प्रकार, संविधान निर्माताओं की मंशा विधानसभा बुलाने के लिए राज्यपाल को विवेकधार देने की नहीं थी। 

अरुणाचल मामले में SC ने क्या कहा?

2016 के नबम रेबिया बना डेप्युटी स्पीकर केस के फैसले में भी अनुच्छेद 174 की यही व्याख्या की गई है। 5 जजों की संवैधानिक पीठ ने कहा कि सत्र बुलाने, स्थगित करने और भंग करने के अधिकार का इस्तेमाल राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह पर करेंगे। इस केस में अरुणचाल प्रदेश के राज्यपाल ज्योति प्रसाद राजखोवा ने विधानसभा का सत्र 14 जनवरी 2016 को बुलाया था। हालांकि, 20 बागी कांग्रेस विधायकों ने बीजेपी से हाथ मिला लिया और राजखोवा से मिलकर स्पीकर नबम रेबिया के साथ असंतोष जाहिर किया। राजखोवा ने कांग्रेस के बागी विधायकों के साथ मुलाकात के बाद सत्र को 16 दिसंबर 2016 के लिए पुनर्निर्धारित कर दिया। उन्होंने यह फैसला मंत्रिपरिषद से सलाह लिए बिना किया था। रेबिया राजखोवा की कार्रवाई के विरोध में सुप्रीम कोर्ट चले गए। सुप्रीम कोर्ट ने राजखोवा के सत्र पुनर्निर्धारण को अनुच्छेद 174 का उल्लंघन पाया और निरस्त कर दिया। नबाम रेबिया जजमेंट यह भी कहता है कि यदि राज्यपाल के पास यह मानने का कारण है कि मंत्रिपरिषद विश्वास खो चुका है तो वह मुख्ममंत्री को बहुमत साबित करने को कह सकते हैं।

एक राज्यपाल अपने विवेक का उपयोग कब कर सकता है?

अनुच्छेद 163 कहता है कि मुख्यमंत्री की अगुआई में मंत्रिपरिषद राज्यपाल को सलाह देगी और सहायता करेगी, लेकिन तब नहीं जब उन्हें संविधान के तहत अपना विवेकाधिकार इस्तेमाल करने की जरूरत होगी। जब मुख्यमंत्री सदन का समर्थन खो चुके हैं और उनके पर्याप्त संख्याबल पर आशंका है तो राज्यपाल को फ्लोर टेस्ट कराने के लिए मंत्रिपरिषद की सलाह का इंतजार करने की जरूरत नहीं है।-  अभिनय आकाश

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