सिर्फ आंकड़ेबाजी और शाब्दिक हमदर्दी से मजदूरों की हालत नहीं सुधरेगी

By राजेश कश्यप | May 21, 2020

देश में मजदूरों की हालत अति दुःखद एवं विडम्बनापूर्ण है। मजदूरों पर संकीर्ण सियासत और शर्मनाक संवेदनहीनता अति निन्दनीय एवं असीम पीड़ादायक है। कोरोना की त्रासदी ने करोड़ों मजदूरों के परिवारों को खून के आंसू रोने पर विवश कर दिया है। इन बेबस मजदूरों के घावों पर मरहम लगाने की बजाय राजनीतिक रोटियां सेंकी जा रही हैं। इस संकटकाल में मजदूरों की यह नारकीय स्थिति चीख चीखकर पूछ रही है कि उनका कसूर क्या है और इसका असली कसूरवार कौन है? लॉकडाउन के नियमों का अक्षरशः पालन करने के बावजूद मजदूरों को क्यों सड़क और रेल की पटरियों पर अपनी जान गंवानी पड़ रही है? अपने खून-पसीने से बड़े-बड़े उद्योगपतियों, व्यापारियों और पूंजीपति लोगों की किस्मत चमकाने वाले मजदूरों की किस्मत में सिर्फ भुखमरी, प्रताड़ना और सिसकियां ही क्यों लिखी हैं? आखिर क्यों शोषण, छलावा और विवशता मजदूरों की नियति बन गई है? क्या मजदूर होना गुनाह है? क्या मेहनतकश लोगों के जीवन में कभी उजाला आ पायेगा? ऐसे ही अनेक सुलगते सवाल हैं जो इस समय सड़कों पर बदहाल और नारकीय दौर से गुजर रहे मजदूरों के बेबस चेहरों को देखकर स्वतः विस्फोटित हो रहे हैं।


यह कटु सत्य है कि आज मजदूर वर्ग आर्थिक व भावनात्मक रूप से बुरी तरह टूट चुका है। जिनके लिए वे घर छोड़कर काम करने आए, उन्हीं ने बुरे वक्त में दुत्कार दिया और अनेक तरह से प्रताड़ित किया। जिस समय राज्य व केन्द्र सरकारों से सहानुभूति एवं सहयोग की आवश्यकता थी, उन पर पुलिस का कहर टूटा। जिस समय उन्हें रोटी, पानी और आवास की सुविधाओं की आवश्यकता थी, उस समय उन्हें सड़कों पर भूखे-प्यासे अपने मासूम बच्चों के साथ अपनी जिन्दगी दांव पर लगानी पड़ी। जिस समय उनके जीवन की सुरक्षा की जिम्मेदारी सरकारों को लेने की आवश्यकता थी, उस समय सैंकड़ों मजदूरों को अकाल मौत के मुंह में समाने के लिए विवश होना पड़ा। कितनी बड़ी विडम्बना का विषय है कि आज मजदूरों को राजनीतिक तौर पर हमदर्दी की आवश्यकता है, लेकिन देशभर में संकीर्ण राजनीति के जरिए मजदूरों के साथ घिनौना मजाक किया जा रहा है।


सबसे बड़ी चिंता का विषय है कि मजदूरों की समस्याएं कम होने का नाम नहीं ले रही हैं और भविष्य भी भयंकर संकटमय दिखाई दे रहा है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की हाल में आई एक रिपोर्ट के अनुसार कोरोना वायरस की वजह से देश के लगभग 40 करोड़ असंगिठत मजदूरों की रोजी-रोटी प्रभावित हो सकती है और गरीबी के भयंकर दुष्चक्र में फंसा सकती है। ऐसे में केन्द्र व राज्य सरकारों को देश के श्रमिकों की सुध पूरी गम्भीरता के साथ लेने की आवश्यकता है। सिर्फ आंकड़ेबाजी और शाब्दिक हमदर्दी से मजदूरों की हालत सुधरने वाली नहीं है। तत्काल प्रभाव से मजदूरों को बुनियादी सुविधाएं मुहैया उपलब्ध करवाने की आवश्यकता है। इसके साथ ही उनके अन्दर आत्मविश्वास और भावनात्मक लगाव बनाए रखने की आवश्यकता है।

 

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इस समय श्रमिक वर्ग के हित में कई प्रभावी कदम उठाने की आवश्यकता है। वर्ष 2019 में जारी आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार देश की कुल श्रम शक्ति में 93 प्रतिशत हिस्सा असंगठित मजदूरों का है। इसका मतलब लगभग 41.85 करोड़ श्रमिक असंगठित क्षेत्र से जुड़े हुए हैं। लेकिन, विडम्बना का विषय है कि जिस असंगठित श्रम शक्ति का देश की इकोनोमी बढ़ाने में सबसे बड़ा हाथ है, उसी की हालत आज पूरे देश में अत्यन्त दयनीय और चिंताजनक है। इसके साथ ही इन श्रमिकों को पंजीकृत न होने और बैंक खाते के न होने से केन्द्र व राज्य सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के लाभ से भी वंचित होना पड़ रहा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक 17 प्रतिशत मजदूरों के पास बैंक खाते नहीं हैं और 14 प्रतिशत के पास राशन कार्ड तक उपलब्ध नहीं है। इसके साथ ही यह चौंकाने वाला तथ्य भी सामने आया है कि 62 प्रतिशत प्रवासी मजदूरों को सरकार की कल्याणकारी व आपातकालीन योजनाओं की समुचित जानकारी ही नहीं है। इसके साथ ही 37 फीसदी मजदूरों को यह ही मालूम नहीं है कि सरकारी योजनाओं का लाभ कैसे उठाया जाए? क्या यह सरकारी तंत्र की निष्क्रियता नहीं है कि वह मजदूरों को अपने हकों का ज्ञान ही नहीं है?


देश में बड़े पैमाने पर मजदूरों को पंजीकृत नहीं किया गया है क्योंकि अधिकतर पंजीकृत श्रमिकों को ही कल्याणकारी योजनाओं का लाभ हासिल हो पाता है। एक अनुमान के अनुसार इस समय पंजीकृत मजदूरों की संख्या मात्र 3.5 करोड़ के आसपास ही है। आधिकारिक तौर पर 30 सितम्बर, 2018 को यह संख्या 3.16 लाख थी। मजदूरों को उनके अधिकारों और कल्याणकारी कदमों से अच्छी तरह अवगत करवाया जाना चाहिए। खासकर, प्रवासी मजदूरों के प्रति अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। प्रवासी मजदूरों को सबसे अधिक परेशानियों का सामना करना पड़ता है। एक अनुमान के मुताबिक देश में 45 करोड़ घरेलू प्रवासी हैं। वर्ष 2017 के आर्थिक सर्वे के अनुसार 10 से अधिक लोग दूसरे राज्यों में अपनी रोजी-रोटी कमाने जाते हैं।

 

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बेहद विडम्बना का विषय है कि बड़े पैमाने पर श्रमिकों को न तो न्यूनतम मजदूरी मिल पा रही है और न ही उन्हें वैतनिक अवकाश अथवा सामाजिक सुरक्षा का लाभ मिल पा रहा है। श्रम मंत्रालय द्वारा वर्ष 2015 में तैयार एक रिपोर्ट के अनुसार कृर्षि और गैर-कृषि क्षेत्र में काम करने वाले 82 प्रतिशत मजदूरों के पास कोई लिखित अनुबन्ध नहीं होता। 77.3 प्रतिशत कामगारों को सही समय पर न तो उचित वेतन मिलता है और न ही समुचित अवकाश मिलता है। इसके साथ ही 69 प्रतिशत श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा का भी लाभ नहीं पाता। इन्हीं सब तथ्यों को ध्यान में रखते हुए मोदी सरकार ने नया ‘वेजेज कोड बिल’ तैयार किया। इसे ‘न्यूनतम मजदूरी कानून’ की संज्ञा दी गई।


श्रम और रोजगार मामलों के राज्यमंत्री संतोष गंगवार ने 30 जुलाई, 2019 को संसद में ‘वेजेज कोड बिल’ पेश करते हुए दावा किया था कि इस बिल से 50 करोड़ संगठित और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी का अधिकार मिल जाएगा। इसके साथ ही बताया गया कि असंगठित क्षेत्र के सभी मजदूरों को चाहे वे खेतीहर हों या ठेला चलाने वाले अथवा सफाई या पुताई करने वाले हों या फिर सिर पर बोझा ढ़ोने वाले या ढाबों व घरों में काम करने वाले हों, सभी को इस कानून का लाभ मिलेगा। सरकार ने मजदूरी की न्यूनतम दर 178 रूपये प्रतिदिन और 4628 रूपये प्रतिमाह तय किया। लेकिन, बताया जा रहा है कि मोदी सरकार ने मजदूरों की न्यूनतम दर तय करने के लिए एक विशेषज्ञ कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी ने केन्द्र सरकार को मजदूरों के लिए न्यूनतम दर 375 रूपये प्रतिदिन और 18000 रूपये प्रतिमाह तय करने की सिफारिश की थी। ऐसे में सवाल उठता है कि फिर मोदी सरकार ने मजदूरों के हितों पर बड़ी निर्ममता से कैंची क्यों चलाई? इसके बावजूद भी लगभग 33 प्रतिशत मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी नहीं मिल पा रही है।

 

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देश की आर्थिक असमानता भी श्रमिकों की दयनीय दशा के लिए जिम्मेदार है। हाल ही में ऑक्सफैम की ‘टाइम टू केयर’ रिपोर्ट के अनुसार भारत के शीर्ष एक प्रतिशत अमीर लोगों के पास देश के 70 प्रतिशत लोगों के कुल धन से चार गुना धन है। इस रिपोर्ट के अनुसार देश के 63 अरबपति लोगों का कुल धन देश के वार्षिक बजट 2018-19 के बजट से भी अधिक बनता है। दूसरी तरफ देश के गरीबों और मजदूरों की हालत दनि-प्रतिदिन अति दयनीय होती चली जा रही है। वर्ष 2011 में किए गए सामाजिक सर्वेक्षण के अनुसार गाँवों में रहने वाले लगभग 67 करोड़ लोग 33 रूपये प्रतिदिन पर जीवन-निर्वाह करते हैं। इसके साथ ही एक किसान परिवार की औसत आय मात्र 60 रूपये प्रतिदिन रह गई है। वर्ष 2013 की राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार 9 करोड़ किसान परिवारों में से 75 प्रतिशत के पास डेढ़ एकड़ से भी कम कृषि योग्य भूमि रह गई है। ऐसे में केन्द्र व राज्य सरकारों को अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करने की सख्त आवश्यकता है।


-राजेश कश्यप

(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं समाजसेवी)

टिटौली (रोहतक)


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