सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नुम:॥
प्रभासाक्षी के धर्म प्रेमियों ! पिछले अंक में श्री शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित को विराट पुरुष का स्वरूप समझाते हुए कहा-- हे परीक्षित! समस्त ब्रह्मांड उस विराट पुरुष में स्थित है, ऐसा समझकर उस सत्य स्वरूप विराट भगवान का ही भजन करना चाहिए।
आइए ! अब आगे की कथा प्रसंग में चलें—
परम हंस श्री शुकदेव जी महाराज कहते हैं-- विराट भगवान का स्वरूप प्रेम का सागर है और हम उसकी एक बूंद हैं। इसीलिए रास के समय गोपियों का घमंड तोड़ने के लिए जब प्रभु अंतर्ध्यान हो गए तब गोपियाँ कहती हैं।
तू प्यार का सागर है तेरी एक बूंद के प्यासे हम।
लौटा जो दिया तुमने चले जाएंगे जहां से हम॥
तू प्यार का सागर है-------
घायल मन का पागल पंछी उड़ने को बेकरार।
पंख हैं कोमल आँख है धुंधली जाना है सागर पार
अब तू ही इसे समझा राह भूले थे कहाँ से हम॥
तू प्यार का सागर है----------
बोलिए विराट भगवान की जय ------
बिले बतोरूक्रमविक्रमान् ये न श्रृण्वत: कर्णपूटे नरस्य
जिह्वासती दार्दुरिकेव सूत न चोपगायत्युरूगाय गाथा।।
शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित, जिसके कान भगवान के गुण-गान नहीं सुनते वे कान सर्प के समान हैं जिह्वा भगवान का गुण-गान नहीं करती मेढक के समान जीवन भर टर्र-टर्र करती रहती है, आँख जो हरि के दर्शन नहीं करती वह मोर पंख के समान है।
अंत में परीक्षित ने पूछ दिया, भगवान ने इस संसार की रचना कैसे की ?
सूत जी कहते हैं— शौनकादि ऋषियों, परीक्षित को अपने शरीर, पत्नी, पुत्र, राज-पाठ और धन-दौलत में दृढ़ ममता थी किन्तु एक ही क्षण में उन्होंने उस ममता का त्याग कर दिया, किन्तु हम संसारी उस ममता को छोड़ नहीं पाते।
दृष्टांत;-- एक आदमी काफी वृद्ध हो गया था। एक दिन यमराज उसके प्राण लेने आए, वह वृद्ध रोने-बिलखने लगा और कहने लगा मुझे कुछ दिनों तक और जीने दो मैं अपने नाती की शादी देख लूँ फिर मुझे ले चलना। शादी हो गई उसके नाती के बाल-बच्चे भी हो गए। यमराज फिर पधारे, यमराज को देखते ही उस बुड्ढे ने अपने मन में विचार किया—
इस दुनिया में इतने लोग पड़े हैं सबको छोड़कर जब देखो तब यह मेरे प्राण के पीछे ही पड़ा रहता है, आज इसको ठिकाने लगा ही देता हूँ, ऐसा सोचकर जैसे ही उसने डंडा लेकर यमराज को मारने दौड़ा, लुढ़क कर नीचे गिर गया और राम नाम सत्य हो गया।
यह केवल उस वृद्ध व्यक्ति की कहानी नहीं है, बल्कि हम सबकी कहानी है। इस संसार का भोग भोगते-भोगते हम वृद्ध हो जाते हैं किन्तु हमारी तृष्णा जवान ही रहती है। सच कहा गया है— तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा यदि तृष्णा को मिटाना है तो कृष्ण की कृपा चाहिए।
यदि तू मिटाना चाहे जीवन की तृष्णा
सुबह शाम बोल बंदे कृष्णा कृष्णा ।
कृष्ण नाम पावन-पावन कृष्ण नाम प्यारा
मन का मिटे अँधियारा बोल कृष्णा कृष्णा ।
सृष्टिवर्णन
परीक्षित ने सृष्टि-रचना के बारे में पूछा तो श्री शुकदेव जी महाराज ने श्री कृष्ण की स्तुति की।
नम; परस्मै पुरुषाय भूयसे, सदुद्भव स्थान निरोध लीलया।
गृहीत शक्ति त्रितयाय देहिनामंतर्भ्वायानुपलक्ष्य वर्त्मने ॥
यत्कीर्तनम यत्स्मरणम् यदीक्षणम, यदवंदनम यद्श्रवणम यदर्हणम
लोकस्य सद्यो विधुनोति कल्मषम, तस्मै सुभद्र श्रवसे नमो नम;॥
तपस्विनों दानपरा यशस्विनो मनस्विनो मंत्रविद; सुमंगला; ।
क्षेमं न विंदन्ति विना यदर्पणम् तस्मै सुभद्र श्रवसे नमो नम;॥
शुकदेव जी ने कहा– परीक्षित ! ध्यान से सुनो। यही प्रश्न एक बार नारद जी ने अपने पिता ब्रह्मा जी से पूछा था-- पिताजी! सारा संसार तो आप बनाते हैं लेकिन ये आँख बंद करके ध्यान किसका लगाते हैं? क्या आप से भी ऊपर कोई है? तब नारद से ब्रह्मा ने हँसते हुए कहा, बेटा ! मेरे से भी ऊपर कोई है और यह कहकर अपने प्रिय पुत्र नारद को विस्तार से सृष्टि प्रक्रिया सुनाई। प्रकृति और पुरुष की समान अवस्था में लय हो जाता है और विषम अवस्था में ही सृजन होता है। प्रकृति से सर्वप्रथम महातत्व की उत्पत्ति हुई। उससे सत, रज, तम उत्पन्न हुए।
तमो गुण से पंच महाभूतों की उत्पत्ति हुई। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश।
गोस्वामी जी ने बड़े ही सुंदर ढंग से चौपाई में पिरोया है–
क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा, पंच रचित यह अधम शरीरा।
और इसी के द्वारा पंच तन्मात्राएं शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्ष आदि उत्पन्न हुए।
रजो गुण के द्वारा इंद्रियो की उत्पत्ति हुई और सतो गुण के द्वारा इंद्रियों के देवताओं की उत्पत्ति हुई। जैसे हाथ के देवता इन्द्र हैं, नेत्र के देवता सूर्य हैं मन के देवता चंद्रमा हैं इत्यादि। भगवान श्रीनारायण के नाभिकमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई। ब्रह्मा जी सोचने लगे हम कौन हैं कहाँ से आए हैं? चारो तरफ देखने लगे तो चार मुख प्रकट हो गए, इसीलिए ब्रह्मा को चतुरानन भी कहा जाता है।
क्रमश: अगले अंक में--------------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
- आरएन तिवारी