सज्जनों! श्रीमद्भगवत गीता केवल श्लोकों का पुंज नहीं है। श्लोक होते हुए भी भगवान की वाणी होने से ये मंत्र भी हैं। इन मंत्र रूपी श्लोकों में बहुत गहरा अर्थ भरा हुआ है जो समस्त मानव जाति के लिए अत्यंत उपयोगी है।
आइए ! गीता प्रसंग में चलें--- पिछले अंक में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन के मन में उत्पन्न शंका का समाधान करते हुए कर्मयोग करने का उपदेश दिया था। इस जगत में कर्म ही प्रधान है, कर्म की प्रधानता को देखकर ही गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में कहा—
कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करहि सो तस फल चाखा।
श्री भगवान उवाच
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥
आगे भगवान कहते हैं- हे अर्जुन! महापुरुष जो-जो आचरण करता है, सामान्य मनुष्य भी उसी का ही अनुसरण करते हैं, वह श्रेष्ठ-पुरुष जो कुछ आदर्श प्रस्तुत कर देता है, समस्त संसार भी उसी का अनुसरण करने लगता है।
इंसान के कर्तव्य कर्म का असर देवताओं पर भी पड़ता है और वे भी अपने कर्तव्य कर्म में संलग्न हो जाते हैं।
इस विषय में एक दृष्टांत है- चार किसान बालक थे। आषाढ़ का महीना आने पर भी वर्षा नहीं हुई तो उन्होंने विचार किया कि हल चलाने का समय आ गया है, वर्षा नहीं हुई तो न सही, हम तो समय पर अपने कर्तव्य का पालन कर दें। ऐसा सोचकर उन्होंने खेत में जाकर हल चलाना शुरू कर दिया। मोरों ने उनको हल चलाते देखा तो सोचा कि क्या बात है? वर्षा तो अभी हुई नहीं, फिर
ये हल क्यों चला रहे हैं? जब उनको पता लगा कि ये अपने कर्तव्य का पालन कर रहे हैं, तब उन्होंने विचार किया कि हम अपने कर्तव्य पालन में पीछे क्यों रहें? ऐसा सोचकर मोर भी बोलने लगे। अब मेघों (बादलों) ने विचार किया, हमारी गर्जना सुने बिना मोर कैसे बोल रहे हैं? सारी बात पता लगने पर उन्होंने भी सोचा कि हम अपने कर्तव्य से क्यों हटें? उन्होंने भी गर्जना करनी शुरू कर दी। अब मेघों की गर्जना सुनकर इंद्र ने सोचा कि बात क्या है? जब इंद्र को मालूम हुआ कि वे अपने कर्तव्य का पालन कर रहे हैं, तब इंद्र ने भी अपने कर्तव्य-पालन का निश्चय किया और मेघों को वर्षा करने की आज्ञा दे दी।
यह है, कर्म का प्रभाव। जब प्रत्येक व्यक्ति अहंकार छोड़कर अपने-अपने कर्तव्य का पालन करता है, तब परिवार, समाज, राष्ट्र और सम्पूर्ण संसार को सुख पहुंचता है।
अब निम्नलिखित श्लोक में भगवान अपना स्वयं का उदाहरण देकर अपने वक्तव्य की पुष्टि करते हैं।
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- हे पृथा पुत्र पार्थ! इस त्रैलोक में मेरे लिए कुछ भी करना बाकी नहीं है। मुझे सब कुछ प्राप्त है फिर भी मैं कर्म करता हूँ। भगवान ने बड़ी विलक्षण बात कही है। अपने लिए कोई कर्तव्य न होने पर भी भगवान दूसरों के हित के लिए इस धरती पर अवतार लेते हैं और सज्जनों का उद्धार, दुर्जनों का विनाश तथा धर्म की स्थापना करने के लिए कर्म करते हैं।
“धर्म संरक्षणार्थाय धर्म संस्थापनाय च”
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥
भगवान कहते हैं- हे अर्जुन ! यदि मैं अपना कर्म सावधानी पूर्वक न करूँ तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा, क्योंकि मैं आदर्श पुरुष हूँ। सम्पूर्ण प्राणी मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं, यदि मैं अपने कर्तव्य का पालन नहीं करूँ, तो इस संसार में कोई भी अपने कर्तव्य का पालन नहीं करेगा और कर्तव्य का पालन नहीं करने से उनका पतन हो जाएगा। मनुष्य को इस जगत में कैसे रहना चाहिए? यह बताने के लिए भगवान मनुष्य लोक में अवतार लेते हैं। सच पूछिए, तो संसार एक पाठशाला है जहाँ हमें लोभ और लालच को किनारे कर अपने साथ-साथ दूसरों के हित के लिए कर्म करना सीखना है। शास्त्र और उपनिषदों का यही निचोड़ है कि हम जीवन पर्यंत दूसरों के हित में लगे रहें। उसी का जीवन धन्य है जिसने स्वयं को पर हित में लगा दिया।
गोस्वामी तुलसीदास महाराज की यह अमर चौपाई भी इसी बात का समर्थन करती है।
परहित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ॥
श्री वर्चस्व आयुस्व आरोग्य कल्याणमस्तु...
जय श्रीकृष्ण
- आरएन तिवारी