मरने के बाद मुआवजे से अच्छा है किसानों को जीवन में ही राहत दें

By रमेश सर्राफ धमोरा | Jun 26, 2017

एक समय पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान, जय किसान का नारा दिया था। शास्त्री जी इस नारे के जरिये समाज में वह एक संदेश पहुंचाना चाहते थे कि किसान और जवान देश की दशा और दिशा तय करते हैं, अगर ये नहीं होंगे तो देश की दुर्दशा हो जाएगी। जहां जवान देश की रक्षा करता है, वहीं किसान खेती के जरिये देश को अनाज देता है। अगर किसान नहीं होगा तो देश में अन्न के टोटे पड़ जायेंगे। आज हम जब जय किसान का नारा सुनते हैं तो कुछ अजीब सा लगता है। आज किसान की जय नहीं बल्कि पराजय हो रहा रही है। किसान भूखा और कमजोर हो रहा है। फसल बर्बाद होने की वजह से किसान आत्महत्या कर रहे हैं। कृषि और किसान भारतीय परम्परा के वाहक हैं। जब परम्परा मरती है तो देश मरता है। किसानों की खुशहाली से ही देश व सम्पूर्ण मानवता खुशहाल होगा। किसान खुशहाल नहीं होंगे तो देश को दुखी होने से कोई नहीं रोक पायेगा। 

हमारे देश में किसानों की आत्महत्या एक राष्ट्रीय समस्या का रूप धारण कर चुकी है। आये दिन देश के किसी ना किसी हिस्से से किसानों के आत्महत्या करने की खबरें मिलती रहती हैं। देश की प्रगति एवं विकास में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने के बाद भी किसानों को जिन्दगी से निराश होकर ऐसे कदम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। यह निश्चित रूप से गंभीर चिंता का विषय है। देश में किसानों द्वारा आत्महत्या करने के मामलों में अप्रत्याशित तौर पर काफी वृद्धि हुई है। 

 

सर्वोच्च न्यायालय ने देश में किसानों की आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं पर चिंता व्यक्त करते हुए हाल ही में केंद्र सरकार को ऐसी घटनाओं पर विराम लगाने के लिए एक रोडमैप बनाने का निर्देश दिया था। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जगदीश सिंह केहर की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने कहा कि सिर्फ मरने वाले किसान के परिवार को मुआवजा देना काफी नहीं है। आत्महत्या के कारणों को पहचानना और उनका हल निकालना जरूरी है। न्यायालय ने किसानों की हालात का जिक्र करते हुए कहा की अभी तक किसान बैंक से कर्ज लेता है और न चुकाने की स्थिति में वो आत्महत्या कर लेता है। सरकार किसान को मुआवजा देकर अपनी जिम्मेदारी पूरी करती है। लेकिन इसका हल मुआवजा नहीं है। आप ऐसी योजनायें बनाएं जिससे किसान आत्महत्या करने के बारे में न सोचे। अगर बम्पर फसल होती है तो भी किसान को फसल के उचित दाम क्यों नहीं मिलते हैं। 

 

भारत में किसान आत्महत्या 1990 के बाद पैदा हुई स्थिति है जिसमें प्रतिवर्ष दस हजार से अधिक किसानों के द्वारा आत्महत्या की रपटें दर्ज की गई हैं। भारतीय कृषि बहुत हद तक मानसून पर निर्भर है तथा मानसून की असफलता के कारण नकदी फसलें नष्ट होना किसानों द्वारा की गई आत्महत्याओं का मुख्य कारण माना जाता रहा है। मानसून की विफलता, सूखा, कीमतों में वृद्धि, ऋण का अत्यधिक बोझ आदि परिस्तिथियां समस्याओं के एक चक्र की शुरुआत करती हैं। बैंकों, महाजनों, बिचौलियों आदि के चक्र में फंसकर भारत के विभिन्न हिस्सों के किसानों ने आत्महत्याएं की हैं।

 

प्रारम्भ में किसानों द्वारा आत्महत्याओं की रपटें महाराष्ट्र से आईं। लेकिन जल्दी ही आंध्र प्रदेश से भी आत्महत्याओं की खबरें आने लगीं। शुरुआत में लगा की अधिकांश आत्महत्याएं महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र के कपास उत्पादक किसानों ने की हैं लेकिन महाराष्ट्र के राज्य अपराध लेखा कार्यालय से प्राप्त आंकड़ों को देखने से स्पष्ट हो गया कि पूरे महाराष्ट्र में कपास सहित अन्य नकदी फसलों के किसानों की आत्महत्याओं की दर बहुत अधिक रही है। आत्महत्या करने वाले केवल छोटी जोत वाले किसान नहीं थे बल्कि मध्यम और बड़े जोतों वाले किसान भी थे। राज्य सरकार ने इस समस्या पर विचार करने के लिए कई जांच समितियां बनाईं। बाद के वर्षों में कृषि संकट के कारण महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, आंध्र प्रदेश, पंजाब, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी किसानों ने आत्महत्याएं कीं। 

 

दिसम्बर 2016 में जारी राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट ‘एक्सिडेंटल डेथ्स एंड सुसाइड इन इंडिया 2015’ के मुताबिक साल 2015 में 12,602 किसानों और खेती से जुड़े मजदूरों ने आत्महत्या की है। 2014 की तुलना में 2015 में किसानों और कृषि मजदूरों की कुल आत्महत्या में दो फीसदी की बढ़ोतरी हुई। साल 2014 में कुल 12360 किसानों और कृषि मजदूरों ने आत्महत्या की थी। गौर करने वाली बात यह है कि इन 12,602 लोगों में 8,007 किसान थे जबकि 4,595 खेती से जुड़े मजदूर थे। साल 2014 में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 5,650 और खेती से जुड़े मजदूरों की संख्या 6,710 थी। इन आंकड़ों के अनुसार किसानों की आत्महत्या के मामले में एक साल में 42 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। वहीं कृषि मजदूरों की आत्महत्या की दर में 31.5 फीसदी की कमी आई है।

 

किसानों की आत्महत्या के मामले में सबसे ज्यादा खराब हालत महाराष्ट्र की रही। राज्य में साल 2015 में 4291 किसानों ने आत्महत्या कर ली। महाराष्ट्र के बाद किसानों की आत्महत्या के सर्वाधिक मामले कर्नाटक 1569, तेलंगाना 1400, मध्य प्रदेश 1290, छत्तीसगढ़ 954, आंध्र प्रदेश 916 और तमिलनाडु 606 में सामने आए। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के रिपोर्ट के अनुसार किसानों और कृषि मजदूरों की आत्महत्या का कारण कर्ज, कंगाली और खेती से जुड़ी दिक्कतें हैं। आंकड़ों के अनुसार आत्महत्या करने वाले 73 फीसदी किसानों के पास दो एकड़ या उससे कम जमीन थी।

 

किसानों की आत्महत्या को लेकर महाराष्ट्र बदनाम है लेकिन देश के दूसरे राज्यों में भी स्थिति कमोबेश यही है। मध्य प्रदेश और राजस्थान की सरकारों ने स्वीकार किया है कि हाल के दिनों में कई किसानों ने खुदकुशी की है। मध्य प्रदेश में प्रतिदिन औसतन तीन किसान एवं कृषि मजदूर विभिन्न कारणों से अपना जीवन समाप्त कर रहे हैं। मध्य प्रदेश विधानसभा में लिखित जवाब में गृह मंत्री भूपेंद्र सिंह ठाकुर ने ये जानकारी दी है। भूपेंद्र सिंह ठाकुर ने बताया कि प्रदेश में 16 नवम्बर, 2016 के बाद से प्रश्न पूछे जाने के दिन तक यानी लगभग तीन महीने की अवधि में कुल 106 किसान और 181 कृषि मजदूरों ने मौत को गले लगाया है। 

 

राजस्थान विधानसभा में सरकार द्वारा दिए गए आंकड़े भी किसानों की बदहाली की तस्वीर पेश करते हैं। सरकार के अनुसार पिछले 8 साल में 2870 किसान खुदकुशी कर चुके हैं। गृहमंत्री गुलाबचंद कटारिया ने लिखित जवाब में बताया कि साल 2008 से 2015 के दौरान 2870 किसानों ने पारिवारिक और धन की तंगी के कारण आत्महत्या की है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार किसानों की आत्महत्या के बढ़ते मामले के पीछे फसल की बर्बादी, कृषि उत्पादों का उचित मूल्य न मिलना, बैंक कर्ज न चुका पाना है। इसके अलावा देश में किसानों को आत्महत्या करने के लिए गरीबी, बीमारी भी लोगों को आत्महत्या करने पर मजबूर कर देती है। 

 

सत्ता में कोई भी रहे किसानों के लिए कोई भी दल गंभीर नहीं है। उत्तर प्रदेश के चुनाव में किसानों की बदहाली मुद्दा तो है लेकिन आरोप प्रत्यारोप से आगे कोई चर्चा नहीं होती। 2022 तक किसान की आमदनी को दो गुना करने के अपने सपने को साझा करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी जनसभाओं में कहते हैं कि राज्य में सरकार बनते ही किसानों का कर्ज माफ हो जाएगा। इस पर किसानो का कहना है कि ये नेता सिर्फ घडियाली आंसू बहते हैं। ना पिछली यूपीए सरकार गंभीर थी और ना ही वर्तमान मोदी सरकार। यानी किसान अब सच्चाई समझने लगे हैं, और शायद बड़ें सपने देखने से कतराने भी लगे हैं।

 

किसानों की आत्महत्या किसी भी समाज के लिए एक बेहद शर्मनाक स्थिति है। आखिर वो कौन सी परिस्थितियां हो सकती हैं जिसकी वजह से किसान, जो सबके लिए अनाज उपजाता है वो आत्महत्या करने को मजबूर हो जाता है। भारत में अभी हाल के दिनों में किसानों के आत्महत्या करने के आंकड़ों में वृद्धि दर्ज की गयी है जो वाकई चिंता का विषय है और इस ओर अगर वक्त रहते ध्यान नहीं दिया गया तो ये हालात और भी बिगड़ सकते हैं। सरकार को किसानों की आत्महत्या जैसे ज्वलंत मुद्दे को समझने और उन कारणों, जिनकी वजह से किसान इतना बड़ा कदम उठाने पर मजबूर हो जाते हैं, का समाधान सोचने की आवश्यकता है। 

 

भारत जैसे एक कृषि प्रधान देश में किसानों की आत्महत्या बेहद चिंताजनक स्थिति है। कृषि क्षेत्र में निरंतर मौत का तांडव दोषपूर्ण आर्थिक नीतियों का नतीजा है। दोषपूर्ण आर्थिक नीतियों के चलते कृषि धीरे-धीरे घाटे का सौदा बन गई है, जिसके कारण किसान कर्ज के दुश्चक्र में फंस गए हैं। पिछले एक दशक में कृषि ऋणग्रस्तता में 22 गुना बढ़ोतरी हुई है। अत: सरकार को किसानों के लिये प्रभावी नीतियों का निर्माण करना होगा। सबसे बढ़कर इन नीतियों का कार्यान्वयन सुनिश्चित करना होगा।

 

किसानों की बेहतरी के लिए सरकारों ने अभी तक कई समितियां बनार्इं। इन समितियों ने अच्छी सिफारिशें भी प्रस्तावित कीं, फिर भी किसानों के हालात में कोई सुधार नहीं आया है। जमीनी स्तर पर आज किसानों की हालत बेहद खराब है। उन्हें तमाम परेशानियों से जूझना पड़ रहा है। किसानों की खुदकुशी रोकने के लिये यदि सरकार वाकई संजीदा है, तो वह जल्द से जल्द एक ऐसी योजना बनाए जिसमें किसानों के हितों का खास खयाल रखा जाए। किसानों के सामने ऐसी नौबत ही न आए कि वे खुदकुशी के बारे में सोचें। किसानों की स्थिति बेहतर बनाने और उन्हें आत्महत्या करने से रोका नहीं गया तो यह स्थिति और भी भयावह रूप धारण कर सकती है। उनके लिए फसल बीमा, फसलों का उच्च समर्थन मूल्य एवं आसान ऋण की उपलब्धता सरकार को सुनिश्चित करनी होगी तभी किसानों की स्थिति सुधरेगी और उन्हें आत्महत्या करने से रोका जा सकेगा।

 

- रमेश सर्राफ धमोरा

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