भारत में लोकतंत्र का महापर्व सम्पन्न हो चुका है। भा.ज.पा. को पहले से भी अधिक सीटें मिलीं। जैसे गेहूं के साथ खरपतवार को भी पानी लग जाता है, वैसे ही रा.ज.ग. के उसके साथियों को भी फायदा हुआ; पर आठ सीटें बढ़ने के बावजूद कांग्रेस की लुटिया डूब गयी। अब वह अपने भविष्य के लिए चिंतित है। राहुल बाबा की मुख्य भूमिका वाला नाटक ‘त्यागपत्र’ मंचित हो रहा है। उन्होंने कहा है कि कांग्रेस अपना नया अध्यक्ष ढूंढ़ ले, जो सोनिया परिवार से न हो। इशारा सीधे-सीधे प्रियंका वाड्रा की ओर है। उन्हें लाये तो इस आशा से थे कि उ.प्र. में कुछ सीट बढ़ेंगी; पर छब्बे बनने के चक्कर में चौबेजी दुब्बे ही रह गये। अपनी खानदानी सीट पर ही अध्यक्षजी हार गये। किसी ने ठीक ही कहा है -
न खुदा ही मिला न बिसाल ए सनम
न इधर के रहे न उधर के रहे।।
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सच तो ये है कि यदि भा.ज.पा. पांच साल पहले स्मृति ईरानी की ही तरह किसी दमदार व्यक्तित्व को रायबरेली में लगा देती, तो सोनिया गांधी को भी लेने के देने पड़ जाते; पर उनकी किस्मत कुछ ठीक थी। लेकिन बेटाजी की मानसिकता अब भी खुदाई सर्वेसर्वा वाली है। यदि वे अध्यक्ष रहना नहीं चाहते, तो पार्टीजन किसे चुनें, इससे उन्हें क्या मतलब है; पर उन्हें पता है कि यह सब नाटक है, जो कुछ दिन में शांत हो जाएगा।
कांग्रेस का भविष्य शीशे की तरह साफ है। उत्तर भारत में उसका सफाया हो चुका है। पंजाब की सीटें वस्तुतः अमरिन्द्र सिंह की सीटें हैं। अगर कल वे पार्टी छोड़ दें, या अपना निजी दल बना लें, तो वहां कांग्रेस को कोई पानी देने वाला भी नहीं बचेगा। और इस बात की संभावना भरपूर है। क्योंकि राहुल के दरबार में चमचों को ही पूछा जाता है, जबकि कैप्टेन अमरिन्द्र सिंह जमीनी नेता हैं। फौजी होने के कारण वे काम में विश्वास रखते हैं, चमचाबाजी में नहीं।
म.प्र., राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पिछले विधानसभा चुनाव कांग्रेस ने जीते थे। राहुल को लगता था कि इनसे 50 सीटें मिल जाएंगी; पर मिली केवल तीन। कमलनाथ ने एक ही तीर से दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया को निबटा दिया। दिग्विजय का तो अब कोई भविष्य नहीं है; पर सिंधिया के भा.ज.पा. में जाने की पूरी संभावना है। राजस्थान में सचिन पायलट चाहते थे कि अशोक गहलोत की नाक थोड़ी छिले, जिससे वे मुख्यमंत्री बन सकें; पर जनता ने दोनों की नाक ही काट ली। अब म.प्र. और राजस्थान की सरकारों पर खतरा मंडरा रहा है। छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में भूपेश बघेल ने अच्छा प्रदर्शन किया था; पर लोकसभा चुनाव में बाजी पलट गयी।
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कर्नाटक में सरकार होने के बावजूद कांग्रेस का प्रदर्शन लचर रहा। अब वहां की सरकार भी खतरे में है। कांग्रेस की इज्जत केवल केरल में बची, जहां मुस्लिम लीग का उसे समर्थन था। राहुल भी सुरक्षित सीट की तलाश में वायनाड इसीलिए गये थे। शेष दक्षिण में तेलंगाना में तीन और तमिलनाडु में द्रमुक के समर्थन से उसे आठ सीट मिली हैं। अर्थात् पंजाब, केरल और तमिलनाडु के अलावा सभी जगह कांग्रेस को औरों की मदद से ही संतोष करना पड़ा है।
कांग्रेस की दुर्दशा का कारण उसका लचर नेतृत्व है। इंदिरा गांधी के समय से ही पार्टी को इस परिवार ने बंधक बना रखा है। इससे हटकर जो कांग्रेस में आगे बढ़े, उनका अपमान हुआ। सीताराम केसरी को धक्के देकर कुर्सी से हटाया गया था। नरसिंहराव के शव को कांग्रेस दफ्तर में नहीं आने दिया गया था। मनमोहन सिंह कैबिनेट के निर्णय को प्रेस वार्ता में राहुल ने फाड़ दिया था। ऐसे में अपमानित होने से अच्छा चुप रहना ही है। इसीलिए सब राहुल को ही अध्यक्ष बने रहने के लिए मना रहे हैं।
सच तो ये है कि सोनिया परिवार कांग्रेस से कब्जा नहीं छोड़ सकता। चूंकि कांग्रेस के पास अथाह सम्पत्ति है। यदि कोई और अध्यक्ष बना और उसने सोनिया परिवार को इससे बेदखल कर दिया; तो क्या होगा ? सोनिया परिवार के हर सदस्य पर जेल का खतरा मंडरा रहा है। यदि राहुल अध्यक्ष बने रहेंगे, तो उनके जेल जाने पर पूरी पार्टी हंगामा करेगी; और यदि वे अध्यक्ष न रहे, तो कोई क्यों चिल्लाएगा ? इसलिए चाहे जो हो; पर राहुल ही पार्टी के अध्यक्ष बने रहेंगे; और यदि कोई कुछ दिन के लिए खड़ाऊं अध्यक्ष बन भी गया, तो पैसे की पावर सोनिया परिवार के हाथ में ही रहेगी।
इसलिए फिलहाल तो कांग्रेस और राहुल दोनों का भविष्य अंधकारमय है। यद्यपि लोकतंत्र में सबल विपक्ष का होना जरूरी है; पर कांग्रेस जिस तरह लगातार सिकुड़ रही है, वह चिंताजनक है। अतः जो जमीनी और देशप्रेमी कांग्रेसी हैं, उन्हें मिलकर सोनिया परिवार के विरुद्ध विद्रोह करना चाहिए। सोनिया परिवार भारत में रहे या विदेश में; संसद में रहे या जेल में। उसे अपने हाल पर छोड़ दें। चूंकि व्यक्ति से बड़ा दल और दल से बड़ा देश है।
पर क्या वे ऐसी हिम्मत करेंगे ? कांग्रेस का भविष्य इसी से तय होगा।
-विजय कुमार