By राकेश सैन | Jul 26, 2021
पिछले लगभग सवा-एक माह से पंजाब कांग्रेस में चली सिर-फुट्टोवल का लब्बो-लुआब यही निकला कि कबीले पर कुनबा भारी, पीढ़ियों की परम्परा को अक्षुण्ण रखते हुए खास परिवार के सामने पूरी की पूरी पार्टी दण्डवत दिखी। परिवार ने बोलने वाले गुड्डे के सिर पर हाथ क्या फेरा कि अनुभव, वरिष्ठता, लोकप्रियता जैसे लोकतान्त्रिक गुण ढह-ढेरी हो गए और भारी पड़ गई परिवार भक्ति। 23 जुलाई को खास परिवार के चहेते नवजोत सिंह सिद्धू ने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का पद सम्भाल लिया और उनसे अतीत में मिले अपमान के बदले माफी मंगवाने की शर्त पर अड़े मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह ने भी अन्तत: परिवार के सम्मुख आत्मसमर्पण कर दिया। सिद्धू के पदभार सम्भालने के समारोह में दोनों ने एक साथ बैठ कर चाय पी, परन्तु चुस्कियों की गर्मी रिश्तों के बीच की बर्फ को पिघला पाई है या नहीं और पार्टी की आन्तरिक राजनीति किस करवट बदलती है यह अभी कहना जरा अति शीघ्रता समयपूर्व प्रसव जैसी बात होगी।
पंजाब कांग्रेस की यह अंतर्कलह पूरी तरह कांग्रेस का स्वदेशी उत्पाद है और इसका निर्माण भी बल्कि दिल्ली दरबार में हुआ। कौन नहीं जानता कि नवजोत सिंह सिद्धू अनुभव, लोकप्रियता, योग्यता, प्रशासनिक कुशलता, राजनीतिक सूझ-बूझ आदि मोर्चों पर कैप्टन के सामने एक पल नहीं टिक सकते, मगर खास परिवार के आशीर्वाद से प्यादे से वजीर को पिटवाया गया। सिद्धू जब अमृतसर से भाजपा के सांसद थे, तो उनकी हैसियत क्या थी ? क्या वे पंजाब भाजपा या केन्द्र के कोई बड़े नेता थे ? वे सिर्फ एक चुनाव प्रचारक नेता थे जो अलंकारिक भाषा बोलने में माहिर हैं। उन्होंने भाजपा में रहते हुए पत्नी सहित पूरा जोर लगा दिया कि किसी न किसी तरह पार्टी अपने सहयोगी अकाली दल से तलाक ले। परन्तु समस्त दांवपेच चलने के बावजूद वे इसमें सफल नहीं हुए और पार्टी से किनारा कर गए। इसके बाद उन्होंने आम आदमी पार्टी (आ.आ.पा.) में जाने की कोशिश की। यहां उनका सामना हुआ महागुरु अरविन्द केजरीवाल से जो अपने राजनीतिक गुरु अन्ना हजारे को गुरु-घण्टाल बना कर छोड़ चुके हैं, उन्होंने कपिल शर्मा कॉमेडी शो के ‘गुरु’ का शिष्यत्व अस्वीकार कर दिया। इसके बाद सिद्धू कांग्रेस में चले गए। जब कांग्रेस के खास परिवार की आँखों में पंजाब के क्षत्रप बन उभर रहे कैप्टन अमरिन्दर सिंह की सम्प्रभुता चुभने लगी तो उसने सिद्धू को घी-खाण्ड खिलाना शुरू कर दिया। ये देख कर कैप्टन विरोधी खेमा भी सिद्धू के साथ जुड़ गया और परिणामस्वरूप सारी पार्टी उस परिवार के सम्मुख गाती हुई नजर आई कि- त्वमेव माता च् पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
दिखने को पंजाब कांग्रेस की यह अंतर्कलह पिछले कुछ महीनों का खेल लगे परन्तु पार्टी के खास खानदान की आँखों में कैप्टन उसी दिन खटकने लगे थे जब वे ‘चाहुन्दा है पंजाब- कैप्टन दी सरकार’ के नारे के साथ चुनाव मैदान में उतरे। पार्टी को आशा से अधिक सफलता हाथ लगी और दो तिहाई बहुमत के साथ कैप्टन ने अकाली दल बादल और भारतीय जनता पार्टी की दस सालों से चली आरही सत्ता को उखाड़ फेंका। कैप्टन के लिए जो शाबाशी की बात थी खानदान को वही नागवार गुजरी, क्योंकि यह सर्वविदित है कि कांग्रेसी फर्स्ट फैमिली की लता अपने बराबर किसी बरगद को पनपते हुए नहीं देख सकती। परिवार की इसी आदत के चलते शरद पवार, ममता बनर्जी, हेमन्त विस्वा, ज्योतिरादित्य सिन्धिया जैसे अनेकों उन धुरन्धरों को बाहर का दरवाजा देखना पड़ा जो आज अपने-अपने प्रदेशों में कांग्रेस के पतन के कारण सिद्ध हो रहे हैं। पंजाब में कैप्टन भी कहीं खानदान से ऊँचे न हो जाएं इसीलिए उनके कन्धों से सितारे उतारे गए हैं।
लोकसभा में चर्चा के दौरान प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने परिवारवाद की व्याख्या करते हुए कहा था कि- कुटुम्बवाद वह नहीं कि किसी नेता का बेटा राजनीति में सक्रिय हो या चुनाव लड़े, बल्कि खानदानवाद वह है कि जब दल और सरकार की सारी व्यवस्थाएं एक ही कुनबे के हाथों में केन्द्रित हो जाएं। कुनबापरस्ती की इससे लज्जाहीन उदाहरण और क्या हो सकता है ? पंजाब में घटे पूरे घटनाक्रम पर गौर किया जाए तो भारतीय राजनीति में एक पार्टी द्वारा अलोकतान्त्रिक रूप से आत्मसर्पण का सबसे तीव्रतम उदाहरण है। लगभग एक माह पहले जहां पूरी प्रदेश कांग्रेस व सरकार कैप्टन के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर चलती दिखाई दे रही थी वह एका-एक कुछ दिनों में ही परिवार के सामने ताश के महल की तरह बिछ गई। इतिहास में पहली बार देखा गया कि पार्टी के खास खानदान ने अपने निर्वाचित मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह से मिलने से तो इन्कार कर दिया और उनका विरोध करने वाले नवजोत सिंह सिद्धू के साथ परिवार के लोग फोटो-सैशन करते दिखे। असल में यह सन्देश था कि परिवार का हाथ अब सिद्धू के साथ है। थोड़ी ही देर में यह आशीर्वाद फलीभूत भी हुआ और कैप्टन के समर्थक कहे जाने वाले धुरन्धर से धुरन्धर नेता भी या तो सिद्धू के गुण गाते या फिर कैप्टन को ही नसीहतें देते दिखाई देने लगे। सिद्धू व उनके समर्थकों के हौसले इतने बढ़ गए कि उन्होंने कैप्टन को भेजे ताजपोशी समारोह के न्यौते पर ही 57 विधायकों के हस्ताक्षर ले लिए। यह न्यौता था या कैप्टन को दूसरा रास्ता दिखाने की चुनौती, इसका अनुमान तो कोई भी लगा सकता है अन्यथा हारे हुए दूत के लिए ऐसा चुनौतीपूर्ण बुलावा तो कौरवों ने भी पाण्डवों को नहीं दिया होगा।
फिलहाल बदली हुई परिस्थितियां देख कर कैप्टन ने भी हथियार डालने उचित समझे और पहुंच गए सिद्धू के सिंहासन-रोहण समारोह में। बताया जाता है कि वहां भी उनको यथोचित सम्मान नहीं मिला, परन्तु किसी समय चुनावों में ‘टी विद कैप्टन’ कार्यक्रम चलाने वाले अमरिन्दर सिंह चाय के साथ-साथ सब्र का घूंट पी गए। राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि हाथ मिले हैं, दिल मिला या नहीं कहना मुश्किल है। परन्तु कांग्रेस में एक सर्वमान्य सत्य सिद्धान्त तो पुन: प्रमाणित हो गया है कि पार्टी में ‘खानदानी छत्र ही यत्र तत्र सर्वत्र’ है।
- राकेश सैन