चुनाव जनतंत्र की जीवनी शक्ति है। यह राष्ट्रीय चरित्र का प्रतिबिम्ब होता है। जनतंत्र के स्वस्थ मूल्यों को बनाए रखने के लिए चुनाव की स्वस्थता, पारदर्शिता और उसकी शुद्धि अनिवार्य है। चुनाव की प्रक्रिया गलत होने पर लोकतंत्र की जड़ें खोखली होती चली जाती हैं। चुनाव प्रक्रिया महंगी एवं धन के वर्चस्व वाली होने से विसंगतिपूर्ण एवं लोकतंत्र की आत्मा का हनन करने वाली हो जाती है। करोड़ों रुपए का खर्चीला चुनाव, अच्छे लोगों के लिये जनप्रतिनिधि बनने का रास्ता बन्द करता है और धनबल एवं धंधेबाजों के लिये रास्ता खोलता है। लगभग यही स्थिति अमेरिका में राष्ट्रपति पद के लिए होने वाले चुनाव एवं बिहार के विधानसभा चुनावों में देखने को मिल रही है। कोरोना महामारी के दौर में हो रहे इन चुनावों में अर्थ का अनुचित एवं अतिशयोक्तिपूर्ण खर्च का प्रवाह जहां चिन्ता का कारण बन रहा है, वहीं समूची लोकतांत्रिक प्रणाली को दूषित करने का सबब भी बन रहा है। इस तरह की बुराई एवं विकृति को देखकर आंख मूंदना या कानों में अंगुलियां डालना ही पर्याप्त नहीं है, इसके विरोध में व्यापक जनचेतना को जगाना जरूरी है। यह समस्या या विकृति किसी एक देश की नहीं, बल्कि दुनिया के समूचे लोकतांत्रिक राष्ट्रों की समस्या है।
बात अमेरिका की हो या बिहार की- चुनाव के समय हर राजनैतिक दल अपने स्वार्थ की बात सोचता है तथा येन-केन-प्रकारेण ज्यादा से ज्यादा वोट प्राप्त करने की अनैतिक तरकीबें निकालता है। एक-एक प्रत्याशी चुनाव का प्रचार-प्रसार करने में करोड़ों रुपयों का व्यय करता है। यह धन उसे पूंजीपतियों एवं उद्योगपतियों से मिलता है। चुनाव जीतने के बाद वे उद्योगपति उनसे अनेक सुविधाएं प्राप्त करते हैं। इसी कारण सरकार उनके शोषण के विरुद्ध कोई आवाज नहीं उठा पाती और अनैतिकता एवं आर्थिक अपराध की परम्परा को सिंचन मिलता रहता है। यथार्थ में देखा जाए तो जनतंत्र अर्थतंत्र बनकर रह जाता है, जिसके पास जितना अधिक पैसा होगा, वह उतने ही अधिक वोट खरीद सकेगा। लेकिन इस तरह लोकतंत्र की आत्मा का ही हनन होता है, इस सबसे उन्नत एवं आदर्श शासन प्रणाली पर अनेक प्रश्नचिन्ह खड़े होते हैं।
अमेरिका में राष्ट्रपति पद के लिए होने वाले चुनाव में हो रहे बेशुमार खर्च की तपिश समूची दुनिया तक पहुंच रही है। अमेरिका में चुनाव के अब चंद रोज बचे हैं। लेकिन इस बीच समूची दुनिया के तमाम देशों में अमेरिकी चुनाव को न केवल दम साध कर देखा जा रहा है बल्कि इन चुनाव के खर्चों एवं लगातार महंगे होते चुनाव की चर्चा भी पूरी दुनिया में व्याप्त है। यों आमतौर पर हर बार का राष्ट्रपति चुनाव बराबर महत्व का होता है और प्रत्याशियों का अभियान भी उसी मुताबिक चलता है, लेकिन इस साल कई वजहों से रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी बने डोनाल्ड ट्रंप और डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार जो बाइडेन के बीच की प्रतिद्वंद्विता सुर्खियों में है, दोनों ही प्रत्याशियों ने मतदाताओं को प्रभावित करने के लिये तिजोरियां खोल दी हैं, अमेरिका में तो इन चुनावों में खर्च के लिये दान की प्रक्रिया भी है, लोगों में जिस प्रत्याशी के लिये जितना दान दिया जाता है, उससे भी उसकी जीत या लोकप्रियता का आकलन होता है, इस नजरिये में भी अर्थ एवं अर्थ का वर्चस्व ही समाया हुआ है। बात अमेरिका जैसे साधन-सम्पन्न एवं अमीर राष्ट्र के लिये सहज हो सकती है, लेकिन दुनिया के सभी जनतांत्रिक राष्ट्रों के लिये लगातार महंगे होते चुनाव एक बड़ी समस्या बन रहे हैं।
अमेरिका में इस बार कोरोना महामारी के दौर में हो रहा यह चुनाव वहां के राष्ट्रीय मसलों के मुकाबले अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में अमेरिकी हित सुरक्षित रखने के वादे पर ज्यादा केंद्रित लग रहा है और टकराव के मुद्दे थोड़े ज्यादा तीखे हैं। लेकिन अगर मुद्दों से इतर अभियानों की बात करें तो यह खबर ज्यादा ध्यान खींच रही है कि अमेरिका में इस बार चुनाव अब तक के इतिहास में सबसे खर्चीला साबित होने जा रहा है। जब समूची दुनिया की अर्थ-व्यवस्थाएं चरमरा गयी हैं, इन चुनावों के अत्यधिक खर्चीले होने का असर व्यापक होगा। चुनाव के तवे को गर्म करके अपनी रोटियां सेंकने की तैयारी में प्रत्याशी वह सब कुछ कर रहे हैं, जो लोकतंत्र की बुनियाद को खोखला करता है। हालांकि अमेरिका में राष्ट्रपति पद के लिए होने वाले चुनाव परम्परागत रूप से बेहद खर्चीले होने से चिन्ता का सबब बन रहे हैं। अनुमान यह लगाया जा रहा था कि इस बार अमेरिका चुनावों में ग्यारह बिलियन डॉलर खर्च होगा। लेकिन एक शोध संस्थान द सेंटर फॉर रेस्पॉन्सिव पॉलिटिक्स के आकलन के मुताबिक पिछले सभी रिकार्डों को ध्वस्त करते हुए 2020 में राष्ट्रपति चुनाव की लागत 14 बिलियन डॉलर के आसपास हो सकती है। गौरतलब है कि डेमोक्रेट उम्मीदवार जो बाइडेन ने अमेरिका में लोगों से दान प्राप्त करने के मामले में रिपब्लिकन उम्मीदवार ट्रंप को काफी पीछे छोड़ दिया है। बाइडेन को इस बार जहां करीब एक अरब डॉलर रकम दान के रूप में प्राप्त हुए, वहीं ट्रंप को लगभग साठ करोड़ डॉलर मिल सके हैं। दरअसल, उम्मीदवारों को आम लोगों से मिले दान के आधार पर उनके समर्थन का अनुमान भी लगाया जा सकता है। इस लिहाज से समर्थन जुटाने के मामले में बाइडेन को आगे बताया जा रहा है। अनौपचारिक रूप से अमेरिका में चुनाव प्रक्रिया निर्धारित तारीख से डेढ़ साल पहले से ही शुरू हो जाती है। काफी लंबे और जटिल प्रक्रिया के तहत चलने वाले चुनाव में जनता के बीच समर्थन जुटाने के लिए उम्मीदरवार जितने बड़े पैमाने पर अभियान चलाते हैं, उसमें उन्हें स्थानीय कार्यकर्ताओं से लेकर सामग्रियों और जनसंपर्कों तक के मामले में कई स्तरों पर खर्च चुकाने पड़ते हैं। यों किसी भी देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत होने वाले चुनावों में ऐसा ही होता है, लेकिन अमेरिका में इसी कसौटी पर खर्च में कई गुना ज्यादा होता है।
चुनावों में धनबल का बढ़ता प्रयोग चिन्ता का सबब होना चाहिए। दुनिया की आर्थिक बदहाली एवं कोरोना से चौपट काम-धंधों एवं जीवन संकट कहां अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनाव कोई आदर्श प्रस्तुत कर पाये हैं? इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है, जो लोग चुनाव जीतने के लिए इतना अधिक खर्च कर सकते हैं तो वे जीतने के बाद क्या करेंगे, पहले अपनी जेब को भरेंगे, दुनिया पर आर्थिक दबाव बनायेंगे। और मुख्य बात तो यह है कि यह सब पैसा आता कहां से है? कौन देता है इतने रुपये? धनाढ्य अपनी तिजोरियां तो खोलते ही हैं, कई कम्पनियां हैं जो इन सभी चुनावी दलों एवं उम्मीदवारों को पैसे देती है, चंदे के रूप में। चन्दे के नाम पर यदि किसी बड़ी कम्पनी ने धन दिया है तो वह सरकार की नीतियों में हेरफेर करवा कर लगाये गये धन से कई गुणा वसूल लेती है। इसीलिये वर्तमान की दुनिया की राजनीति में धनबल का प्रयोग चुनाव में बड़ी चुनौती है। सभी दल पैसे के दम पर चुनाव जीतना चाहते हैं, जनता से जुड़े मुद्दों एवं समस्याओं के समाधान के नाम पर नहीं। कोई भी ईमानदारी और सेवाभाव के साथ चुनाव नहीं लड़ना चाहते हैं। राजनीति के खिलाड़ी सत्ता की दौड़ में इतने व्यस्त हैं कि उनके लिए विकास, जनसेवा, सुरक्षा, महामारियां, आतंकवाद की बात करना व्यर्थ हो गया है। सभी पार्टियां जनता को गुमराह करती नजर आती हैं। सभी पार्टियां नोट के बदले वोट चाहती हैं। राजनीति अब एक व्यवसाय बन गई है। सभी जीवन मूल्य बिखर गए हैं, धन तथा व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए सत्ता का अर्जन सर्वोच्च लक्ष्य बन गया है, बात चाहे भारत की हो या अमेरिका की।
अमेरिका हो या बिहार के चुनाव- इनकी सबसे बड़ी विडम्बना एवं विसंगति है कि ये चुनाव आर्थिक विषमता की खाई को पाटने की बजाय बढ़ाने वाले साबित होने जा रहे हैं क्योंकि अमेरिका का यह चुनाव अब तक का सर्वाधिक खर्चीला होने जा रहा है तो बिहार के विधानसभा चुनाव में ज्यादातर प्रत्याशी करोड़पति हैं, बिहार के दोनों प्रमुख गठबंधनों ने अधिसंख्य उम्मीदवार धनाढ्यों को बनाकर बिहार की गरीब जनता के जले घावों पर नमक छिड़का गया है, उनका घोर मजाक बनाया गया है। आखिर कब तक लोकतंत्र इस तरह की विसंगतियों पर सवार होता रहेगा?
-ललित गर्ग
(लेखक, पत्रकार, स्तंभकार)