महासागर पृथ्वी की सतह के तीन-चौथाई हिस्से को कवर करते हैं और विभिन्न जीव-रूपों को आश्रय प्रदान करते हैं। सैकड़ों वर्ष पूर्व समुद्री जल का तापमान कैसा रहा होगा, इसका पता लगाने के लिए वैज्ञानिक पुरातन समय में समुद्री जल के तापमान की रूपरेखा उकेरने का प्रयास करते रहे हैं। हालाँकि, अध्ययन के लिए जीवाश्म के रूप में समुद्री जल की उपलब्धता नहीं होने से बीते हुए कालखंड में समुद्री जल के तापमान का अनुमान लगाना आसान नहीं है।
भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी), बेंगलूरू के शोधकर्ताओं ने मछली के अंदरूनी कान में पायी जाने वाली छोटी हड्डियों (Otoliths) की गहन पड़ताल के आधार पर प्राचीन समुद्री जल के तापमान का अनुमान लगाने का एक तरीका खोज निकाला है।
आईआईएससी के सेंटर फॉर अर्थ साइंसेज (CEaS) के वैज्ञानिक प्रोफेसर रामानंद चक्रवर्ती और उनके पीएचडी शोधार्थी सुरजीत मंडल एवं सीईएएस के प्रोफेसर प्रोसेनजीत घोष के सहयोग से किया गया यह अध्ययन केमिकल जियोलॉजी में प्रकाशित किया गया है।
प्रोफेसर चक्रवर्ती बताते हैं कि "जब आप समय के साथ वापस जाते हैं, तो आपके पास जीवाश्म के रूप में समुद्री जल नहीं होता है, जो पुराने समय में जल के तापमान का अनुमान लगाने में मदद कर सके।" शोधकर्ताओं का कहना है कि इस चुनौती को दूर करने में मछली के अंदरूनी कान में पायी जाने वाली छोटी हड्डियाँ, जिन्हें ओटोलिथ (Otoliths) कहा जाता है, मददगार हो सकती हैं।
कोरल की तरह, ओटोलिथ कैल्शियम कार्बोनेट से बनी होती हैं, और समुद्री जल से खनिज जमा करके मछली के पूरे जीवनकाल में विकसित होती हैं। पेड़ के छल्ले के समान, ओटोलिथ मछली की उम्र, प्रवासन पैटर्न और मछली के पानी के प्रकार के बारे में भी सुराग दे सकती है। कई सालों से, प्रोफेसर चक्रवर्ती और उनकी टीम कोरल या फोरामिनिफेरा (Foraminifera) और छोटे जीवों में पाये जाने वाले कैल्शियम कार्बोनेट के जमाव को ट्रैक कर रहे हैं। इस अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने ओटोलिथ को चुना है, क्योंकि वैज्ञानिकों ने जुरासिक काल (172 मिलियन वर्ष पूर्व) के ओटोलिथ जीवाश्म नमूनों की खोज की है।
इस अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने उत्तरी अमेरिका के पूर्वी तट से सटे विभिन्न भौगोलिक स्थानों से एकत्र किये गए छह वर्तमान ओटोलिथ नमूनों का उपयोग किया है। इन ओटोलिथ नमूनों में विभिन्न कैल्शियम समस्थानिकों (Isotopes) के अनुपात का थर्मल आयनीकरण मास स्पेक्ट्रोमीटर (TIMS) पद्धति से विश्लेषण किया गया है। नमूनों में कैल्शियम आइसोटोप के अनुपात को मापकर शोधकर्ताओं को इसे उस समुद्री जल के तापमान से सह-संबंधित करने में सफलता मिली है, जहाँ से मछली नमूने एकत्र किये गए थे।
प्रोफेसर चक्रवर्ती कहते हैं, "हमने दिखाया है कि कैल्शियम समस्थानिक पानी के तापमान का मजबूत संकेतक हैं, और सुरजीत के प्रयास हमारी प्रयोगशाला को देश की एकमात्र प्रयोगशाला बनाते हैं, जो वास्तव में इन समस्थानिक विविधताओं को मापने में सक्षम है।" कैल्शियम आइसोटोप के अलावा, हमारी टीम ने स्ट्रोंटियम, मैग्नीशियम, और बेरियम जैसे अन्य तत्वों की सघनता और एक ही नमूने में उनके अनुपात का भी विश्लेषण किया है, और वास्तविक मूल्य की तुलना में शून्य से एक डिग्री सेल्सियस (कम अथवा अधिक) की सीमा में समुद्री जल के तापमान का सटीक मूल्य प्राप्त करने के लिए डेटा को एक साथ मिला दिया है।
शोधकर्ता बताते हैं कि समुद्र में रहने वाले जीव तापमान के प्रति बेहद संवेदनशील होते हैं, और तापमान में दो डिग्री की वृद्धि से कई प्रजातियां विलुप्त हो सकती हैं। इसके अलावा, प्रोफेसर चक्रवर्ती कहते हैं - वातावरण में मौजूद बहुत-सी कार्बन डाइऑक्साइड अंततः समुद्र में घुल जाती है। कार्बन डाइऑक्साइड को सोखने की यह क्षमता समुद्री जल के तापमान से जुड़ी होती है – समुद्री जल का तापमान जितना कम होता है, वह उतनी ही अधिक कार्बन डाइऑक्साइड को सोख सकता है। जैसे एक कार्बोनेटेड पेय गर्म होने पर अपनी फ़िज़ खो देता है, वैसे ही समुद्र गर्म होने पर कार्बन डाइऑक्साइड को धारण करने की क्षमता खो देता है।
कैल्शियम आइसोटोप अनुपात और तापमान के बीच घनिष्ठ संबंध के कारण, शोधकर्ताओं को विश्वास है कि उनका दृष्टिकोण अब जीवाश्म नमूनों पर उपयोग किया जा सकता है। वे कहते हैं कि पृथ्वी के इतिहास को बेहतर ढंग से समझने के लिए समुद्री जल के शुरुआती तापमान का मानचित्रण करना महत्वपूर्ण है। प्रोफेसर चक्रवर्ती कहते हैं, "बीते हुए समय में क्या हुआ था" की जानकारी, “भविष्य में क्या होगा” के बारे में हमारी समझ का दायरा बढ़ाने में उपयोगी हो सकती है।