राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा अदालतों में ‘तारीख पे तारीख’ वाली संस्कृति पर चिंता व्यक्त करना चर्चाओं का विषय बन गया। न्यायतंत्र की 75वीं वर्षगांठ पर उन्होंने प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायधीश व विधि मंत्री के समक्ष कई ऐसी बातें कहीं जिसपर समाज में बहस छिड़ी हुई है। निचली अदालतों से लेकर शीर्ष अदालतें करोड़ों मुकदमों के बोझ से लदी हुई हैं। उन्हें कम कैसे किया जाए, इस मुद्दे पर दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व जस्टिस एसएन ढींगरा बड़े बेबाक तरीके से कहते हैं कि ये चिंता का विषय है इस पर मात्र शब्दों की सुरसरी छोड़ने से काम नहीं चलेगा? कोई मॉर्डन कारगर विधि अपनानी होगी। जस्टिस ढींगरा से डॉ. रमेश ठाकुर की विशेष वार्ता।
प्रश्नः बढ़ते मुकदमों के अंबार पर राष्ट्रपति महोदया की चिंता को आप कैसे देखते हैं?
चिंता वाजिब है, इसमें कोई शक नहीं? पर, 4 करोड़ 55 लाख केस जो देश के विभिन्न अदालतों में दशकों से पेंडिंग हैं, वह चिंता जाहिर करने मात्र से नहीं सुलझ सकते। राष्ट्रपति महोदया के अलावा पूर्व में भी कई जिम्मेदार ओहदेदारों ने अपनी घोर चिंताओं का प्रदर्शन किया। लेकिन हुआ क्या? एकाध सप्ताह तक मीडिया में चर्चाएं हुईं, लोगों में गपशप हुई, उसके बाद फिर वैसा ही व्यवहार हुआ उन केसों के साथ अदालतों में जैसा पहले होता आया। सुधार तो कुछ हुआ नहीं न? उन्हीं चिंताओं की पुनरावृति एक बार फिर से हुई है। मैं तो यही कहूंगा कि शब्दों की सुरसुरी के जगह कोई मॉर्डन विधि अपनाकर मुकदमे के बोझों को कम किया जाए तो बेहतर होगा। सरकार को सख्त होना होगा, तभी बात बनेगी, वरना जैसे चल रहा है, चलता रहेगा।
प्रश्नः जज के रूप में आपका लंबा अदालती अनुभव रहा है, आखिर लंबित मुकदमों की असल वजह है क्या?
देखिए, अदालतों के भीतर का सच बड़ा कड़वा है। अगर, उजागर हो जाए, तो न्याय के चाहने वालों को बड़ा आघात पहुंचेगा। देखिए, भारत की तकरीबन अदालतें अधिवक्ताओं के कब्जे में हैं। जजों पर उनका जबरदस्त पहरा होता है। वकीलों का बड़ा संगठित नैक्सस है जो ‘तारीख पे तारीख’ संस्कृति को बढ़ावा देता है। वकील जब चाहें कोर्ट में हड़तालें करवा देते हैं। बिलावजह जजों पर दबाव बनाते हैं। सोचने वाली बात है कि ऐसे में जज अपनी अदालत कैसे लगाएं? अदालतों में केसों का अंबार लगने के पीछे एक ये सबसे बड़ी वजह है। दूसरा, वाजिब कारण न्यायाधीशों की भारी कमी? पूरे देश की अदालतों में 19000 हजार पद स्वीकृत हैं जिनमें 18000 के करीब तो निचली अदालतों में ही हैं। ये नियुक्ति तत्काल प्रभाव से होनी चाहिए। पौने दो लाख लोगों पर मात्र एक जज कैसे मुकदमों का निपटारा कर सकता है।
प्रश्नः वकील जब अदालतों में हड़ताल करते हैं तब जज खुद काम क्यों नहीं करते?
उनकी शिकायतें होने लगती हैं। अदालतों में वकील जजों की घेराबंदी करने लगते हैं। पुलिस-प्रशासन भी उन्हीं की सुनते हैं। इन्हीं दुश्वारियों के चलते ही अदालतें मुकदमों से पटती जा रही हैं। तारीख पे तारीख की संस्कृति अगर ऐसे ही चलती रही तो अगले 15-20 वर्षों में पेंडिंग केसों की संख्या 15 करोड़ को भी पार कर जाएगी। क्योंकि अब निचली अदालतों में घरेलू हिंसा, तलाक व आपसी झगड़ों के केसों की भरमार है। देश की न्याय व्यवस्था 75 वर्ष पूर्व की हो गई है जिनमें करीब 2000 पुराने कानूनों को खत्म किया जा चुका है। नए कानून और न्याय संहिता का भी आगाज हो चुका है, बावजूद इसके तारीख पे तारीख वाली संस्कृति जस की तस बनी हुई है। अदालतों के जरिए न्याय मांगने वाले फरियादी अब हताश होने लगे हैं।
प्रश्नः मुकदमों में तारीखों के मिलने की कोई समय-सीमा होता है क्या?
बिल्कुल होती है। एक केस में मात्र तीन तारीखों को देने का प्रावधान है, लेकिन अब 30 से भी ज्यादा तारीखें दे दी जाती हैं और न्याय तब भी नहीं हो पाता। तारीखों के पीछे ही तो कईयों की दुकानें चलती हैं। अधिवक्ता कभी नहीं चाहते कि उनके पास आने वाले केस का जल्दी से निपटारा हो? केस जितना लंबा चलेगा और जितनी तारीख मिलेंगी, उतना ही वकील का फायदा होगा? देखिए, अदालतों की व्यवस्थाओं पर जिम्मेदार लोगों ने चिंताएं तो जरूर जताई हैं, लेकिन न्यायिक सुधारों की दिशा में कोई गंभीर पहल न होना चिंता का विषय ज्यादा है। अफसोस इस बात का है कि कार्यपालिका की उदासीनता, अदालती प्रक्रिया के दुरुपयोग की प्रवृत्ति, करप्शन तथा अन्य दूसरे कारणों से मुकदमों की संख्याओं में होने वाले इजाफे ने आबादी और अदालतों के अनुपात को बेहद असंतुलित कर दिया है।
प्रश्नः कोर्ट में मुकदमे कम हो, इसके लिए क्या जरूरी कदम उठाए जाने चाहिए?
पंचायती स्तरों पर न्यायालयों की व्यवस्था की जाए जहां छोटे-छोटे मुकदमों की सुनवाई हो और निवारण किया जाए। इसके अलावा तत्कालीन सीजेआई वाई.के सभरवाल का सुझाव भी कारगर साबित हो सकता है जिसमें उन्होंने कहा था कि अदालतों को दो शिफ्टों में बांटा जाए। साथ ही अवकाश प्राप्त जजों और कर्मचारियों की मदद लेकर चरमराते न्यायतंत्र को मूर्त रूप दिया जा सकता है। सुलह-समझौतों जैसे अनौपचारिक पद्वतियों के बल पर भी बढ़ते मुकदमों में कमी लाई जा सकती है।
बातचीत में जैसा डॉ. रमेश ठाकुर से पूर्व जस्टिस एसएन ढींगरा ने कहा।
डॉ. रमेश ठाकुर
सदस्य, राष्ट्रीय जन सहयोग एवं बाल विकास संस्थान (NIPCCD), भारत सरकार!