संसद के नए भवन के उद्घाटन की लड़ाई आखिरकार एनडीए बनाम यूपीए गठबंधन तक पहुंच ही गई है। इसी के साथ यह भी साफ हो गया है कि विपक्षी दलों ने एक सोची-समझी रणनीति के तहत राष्ट्रपति द्वारा संसद के नए भवन का उद्घाटन नहीं करने का मुद्दा उठाकर इसके बहिष्कार का फैसला किया है। दरअसल, 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव को देखते हुए मोदी के विरोध में सभी विपक्षी दलों का एक साझा मोर्चा बनाने के लिए देश भर में राजनीतिक यात्रा करने वाले नेताओं और इन यात्राओं के पीछे मौजूद राजनीतिक दिमाग यह भांप गए कि इस मुद्दे के सहारे विपक्षी दलों को एक मंच पर लाया जा सकता है।
वर्तमान में पूर्ण और शानदार बहुमत के साथ केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए गठबंधन की सरकार है। वहीं कर्नाटक में जीत हासिल करने के बाद उत्साह और उमंग से भरी हुई कांग्रेस के नेतृत्व में भी यूपीए गठबंधन चल ही रहा है। लेकिन वास्तविकता यही है कि आज के दौर में यूपीए ही नहीं एनडीए भी कमजोर ही नजर आ रहा है। अकाली दल और उद्धव ठाकरे के अलग हो जाने के बाद अब एनडीए सिर्फ और सिर्फ बीजेपी की ताकत पर ही टिका हुआ है तो वहीं सत्ता से बाहर होने की वजह से कांग्रेस के इकबाल में भी कमी आई है।
लेकिन संसद के नए भवन के उद्घाटन कार्यक्रम के बहिष्कार के बहाने ही सही कांग्रेस न केवल यूपीए गठबंधन को मजबूत करने में कामयाब होती नजर आ रही है बल्कि अपने साथ कुछ ऐसे दलों को भी जोड़ती नजर आ रही है जो पिछले कुछ सालों से लगातार कांग्रेस का विरोध ही करते नजर आ रहे हैं। देश के जिन 19 विपक्षी राजनीतिक दलों ने साझा बयान जारी कर संसद भवन के उद्घाटन कार्यक्रम के बहिष्कार का ऐलान किया है, उसमें यूपीए गठबंधन में पहले से ही शामिल डीएमके, जेएमएम, एनसीपी और आरजेडी तो शामिल हैं ही। इसके अलावा मनमोहन सिंह सरकार से समर्थन वापस लेने वाले लेफ्ट फ्रंट के साथ ही कांग्रेस के कट्टर विरोधी आप और टीएमसी जैसे दल भी शामिल हैं। इसमें सपा जैसे राजनीतिक दल भी शामिल हैं जो अपने सबसे मजबूत गढ़ यूपी में कांग्रेस के लिए कोई स्पेस छोड़ने को तैयार नहीं हैं। कांग्रेस के लिए सबसे खास बात यह भी है कि इन 19 राजनीतिक दलों के साझा बयान में कांग्रेस पार्टी का नाम सबसे ऊपर है। कांग्रेस को अब यह लगने लगा है कि मोदी विरोधी सारे दल उसके झंडे तले उसके साथ आ सकते हैं और अगर ऐसा हुआ तो बनने वाले नए मोर्चे का नाम भले ही कुछ भी हो लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व वाला यूपीए गठबंधन मजबूत होगा ही।
यह माना जा रहा है कि कांग्रेस की इस यूपीए वाली राजनीति की काट के लिए ही भाजपा ने एनडीए वाला दांव चल दिया है। बुधवार को भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन में शामिल भाजपा समेत 14 दलों ने विपक्ष के 19 दलों के बहिष्कार के फैसले की घोर निंदा की और कहा कि यह महज अपमानजनक फैसला नहीं है बल्कि इस महान देश के लोकतांत्रिक मूल्यों और संवैधानिक मान्यताओं पर हमला है। भाजपा, शिंदे वाली शिवसेना, एनपीपी, एनडीपीपी, एसकेएम, एमएनएफ, जेजेपी, रालोजपा, अपना दल (सोनेलाल), आरपीआई (ए), तमिल मनीला कांग्रेस, एआईएडीएमके, आईएमकेएमके और एजेएसयू ने एनडीए की तरफ से साझा बयान जारी कर विपक्षी एकता पर तंज कसते हुए कहा कि इनकी एकता, राष्ट्रीय विकास के लिए एक साझा दृष्टि नहीं, बल्कि वोट बैंक की राजनीति के लिए साझा अभ्यास है और भ्रष्टाचार के प्रति स्पष्ट रुझान व झुकाव है। ऐसी पार्टियां कभी भी भारतीय लोगों की आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर सकती हैं। ये विपक्षी पार्टियां जो कर रही हैं, वह महात्मा गांधी, बाबा साहब आंबेडकर, सरदार पटेल और देश की ईमानदारी से सेवा करने वाले ऐसे अनगिनत अन्य लोगों के आदर्शों का अपमान है, जिन्होंने समर्पण- प्रतिबदधता से देश निर्माण में जीवन लगा दिया। विपक्षी दलों के ये काम उन महान नेताओं के मूल्यों-योगदान को कलंकित करते हैं, जिन्होंने हमारे लोकतंत्र को स्थापित करने के लिए अथक परिश्रम किया। भारत के 140 करोड़ लोग, भारतीय लोकतंत्र और उनके चुने हुए प्रतिनिधियों के प्रति विपक्ष के इस घोर अपमान को नहीं भूलेंगे।
घोषित रूप से भले ही इस मुद्दे के सहारे एनडीए गठबंधन का विस्तार होता दिखाई नहीं दे रहा है लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि इस मुद्दे पर एनडीए में शामिल 14 राजनीतिक दलों के अलावा भी अन्य कई राजनीतिक दल उद्घाटन कार्यक्रम में शामिल होने की बात कह कर भाजपा के प्रति अपने सॉफ्ट रुख का भी परिचय दे रहे हैं। शिरोमणि अकाली दल, बीजू जनता दल, वाईएसआरसी और टीडीपी सहित कई अन्य राजनीतिक दलों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 28 मई को किए जाने वाले उद्घाटन कार्यक्रम में शामिल होने की बात कही है।
साफ तौर पर नजर आ रहा है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ही 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव को देखते हुए अपने-अपने कुनबे को मजबूत करने के मिशन में जुट गए हैं, हालांकि किसका कुनबा ज्यादा मजबूत होगा यह तो जनता ही तय करेगी लेकिन यह भी देखने वाली बात होगी कि किसके खेमे में कितने सेनापति (राजनीतिक दल) फाइनली खड़े नजर आते हैं।
-संतोष पाठक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।)