फिल्म केदारनाथ में हुआ हिंदुओं की आस्था से घोर खिलवाड़

By अजेंद्र अजय | Nov 01, 2018

वर्ष 2013 में विश्व प्रसिद्ध केदारनाथ धाम में आई त्रासदी की पृष्ठभूमि में निर्मित फिल्म 'केदारनाथ' के प्रदर्शन को लेकर जो उत्साह था, वह अब आशंकाओं में तब्दील होता दिखाई दे रहा है। डायरेक्टर-प्रोड्यूसर के बीच विवाद और न्यायालयी दांवपेंच के बाद पूरी हुई फिल्म केदारनाथ का गत दिवस सोशल मीडिया पर 1 मिनट 39 सेकंड का टीजर व पोस्टर रिलीज हुआ। फिल्म के टीजर व पोस्टर रिलीज होने के साथ ही कई सवालों ने भी जन्म ले लिया है।

 

अभिषेक कपूर निर्देशित इस फिल्म में सुशांत सिंह राजपूत व सारा अली खान मुख्य भूमिका में हैं। फिल्म के एक हिस्से की शूटिंग केदारनाथ व आसपास के क्षेत्र में हुई है। लिहाजा, उत्तराखंड में इस फिल्म को लेकर उत्साह होना स्वाभाविक था। मगर फिल्म के टीजर व पोस्टर कुछ और ही कहानी बयां करते दिख रहे हैं।

 

पहले करते हैं टीजर की बात। टीजर में एक तरफ केदारनाथ तबाह होता नजर आ रहा है, तो दूसरी ओर नायक-नायिका बोल्ड किस सीन करते दिख रहे हैं। टीजर में भगवान शंकर की मूर्ति, घंटे-घड़ियाल आदि के दृश्यों के साथ स्क्रीन पर लिखा आता है- 'इस साल करेंगे सामना प्रकृति के क्रोध का और साथ होगा सिर्फ प्यार'। इस दौरान फिल्म के नायक की नमाज अदा करते एक झलक भी दिखाई देती है। फिल्म के टीजर को देखकर यह अनुमान लगाने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि फिल्मकार ने हिंदू मान-मर्यादाओं, प्रतीकों व संस्कृति से खिलवाड़ करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है।

 

अब बारी आती है फिल्म के पोस्टर की। फिल्म के पोस्टर में नायक सुशांत कंडी में नायिका सारा को पीठ पर लादकर ले जाते हुए दिख रहे हैं। पोस्टर की पृष्ठभूमि में करोड़ों हिंदुओं की आस्था के केंद्र बाबा केदारनाथ के मंदिर का चित्र दर्शाया गया है और फिल्म रिलीज की तिथि आदि के साथ टैगलाइन है कि 'Love Is Pilgrimage'। अर्थात् 'प्यार एक तीर्थ यात्रा है। इस टैगलाइन का अर्थ आप किस रूप में लेंगे? यानी श्री केदारनाथ धाम की यात्रा पर जाने वाले प्रेम पुजारी होते हैं? तीर्थयात्रा प्यार-प्रणय के अनुरागियों के लिए होती है? अथवा कुछ और भी?

 

 

 

तमाम विवादों से नाता रखने वाले छोटे नवाब सैफ अली खान की बेटी व केदारनाथ फिल्म की अभिनेत्री सारा अली खान अपने इंस्टाग्राम पर फिल्म का पोस्टर जारी करते हुए और भी आगे बढ़ गईं। सारा ने पोस्टर के साथ यह कैप्शन लिखा है- 'No Tragedy, No Wrath of Nature, No Act of God can Defeat the Power of Love' । (कोई त्रासदी नहीं, प्रकृति का कोई क्रोध नहीं, भगवान का कोई कार्य प्रेम की शक्ति को पराजित नहीं कर सकता)। कोई आध्यात्मिक गुरु अथवा प्रवचनकर्ता उपरोक्त सूत्रवाक्य का प्रयोग करें तो प्रेम के गहरे व बहुआयामी अर्थ को समझा जा सकता था। मगर पैसों की खातिर फिल्म में कामोत्तेजक दृश्य देने वाली सारा अली खान के प्रेम का अर्थ समझने में किसी को भी कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए।

 

फिल्मों के लिए ऐसे दृश्य व पटकथा सामान्य बात हो सकती है। मगर केदारनाथ जैसे धाम को पृष्ठभूमि में रख कर ऐसी फिल्म का निर्माण घोर आपत्तिजनक ही नहीं, अपितु हिंदू आस्था पर सीधा प्रहार है। 

 

केदारनाथ फिल्म की एक और बात बहुत कचोटने वाली है। कंडी मजदूर की भूमिका निभा रहे नायक सुशांत सिंह राजपूत का नाम फिल्म में मुस्लिम नाम मंसूर रखा गया है। जबकि नायिका सारा अली खान एक हिंदू तीर्थयात्री मुक्कु की भूमिका में है। जैसे की चर्चा है फिल्म मुस्लिम युवक मंसूर और हिंदू तीर्थयात्रा करने वाली युवती मुक्कू के प्रेम प्रसंग पर केंद्रित है। सारा अली खान की यह पहली फिल्म है। इसलिए उसने बोल्ड सीन देने में भी कोई परहेज नहीं किया।

 

फिल्म की पूरी पटकथा का सामने आना अभी बाकी है। मगर टीजर व पोस्टर के माध्यम से जो तथ्य सामने आए हैं, वह बर्दाश्त के काबिल नहीं हैं। फिल्मकार को केदारनाथ त्रासदी पर फिल्म बनानी थी तो आपत्तिजनक चीजों से बचा जा सकता था। लेकिन लगता है कि फिल्मकार ने अपने कुत्सित इरादों को भुनाने के लिए बाबा केदार के नाम का दुरुपयोग करने में कोई लिहाज नहीं किया।

 

दरअसल, भारतीय सिनेमा में एक वर्ग ऐसा है जो भारतीय संस्कृति व परंपराओं को तहस-नहस कर उनके प्रति हीनता की भावना पैदा करने के ‌‌षड्यंत्रों में जुटा हुआ है। भारतीय सिनेमा में तमाम उदाहरण मिल जाएंगे। जब हिंदू देवी-देवताओं व प्रतीकों का भौंडा चित्रण और इतिहास का भद्दा रूपांतरण कर हिंदुओं की आस्था पर प्रहार किया जाता रहा है। लंबी चोटी, लंबा चंदन व धोती पहने पुजारी आपको तमाम फिल्मों में नकारात्मक भूमिका में दिख जाएंगे। मगर किसी फिल्मकार की हिम्मत हो सकती है कि वह अपनी फिल्म में किसी मुल्ला-मौलवी या पादरी को नकारात्मक भूमिका में दिखा सके? 

 

फिल्म तो छोड़िए फ्रांस के एक अखबार में पैगम्बर हजरत मोहम्मद का एक कार्टून भर छपने पर अख़बार के कार्यालय में बम विस्फोट कर दिया जाता है और पूरी दुनिया में धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का तर्क देकर तूफान आ जाता है। दूसरी तरफ भारत में फिल्म, टीवी, समाचार पत्रों से लेकर सोशल मीडिया तक में रात-दिन हिंदू देवी-देवताओं का उपहास उड़ाया जाता है। आखिर कला व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर हिंदू भावनाओं को कब तक कुचला जाता रहेगा ?

 

-अजेंद्र अजय

(लेखक उत्तराखंड सरकार में मीडिया सलाहकार समिति के उपाध्यक्ष रहे हैं)

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