असम में होगा उग्रवाद का अंत! ULFA के साथ शांति समझौता ऐतिहासिक क्यों, जानिए अब तक की पूरी कहानी

By अंकित सिंह | Dec 30, 2023

यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) के वार्ता समर्थक गुट ने शुक्रवार को भारत सरकार और असम राज्य सरकार के साथ एक ऐतिहासिक त्रिपक्षीय शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए। 1979 में स्थापित गैरकानूनी विद्रोही संगठन से समझौता पूर्वोत्तर की शांति के लिए बेहद ही अहम है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने शुक्रवार को केंद्र और असम सरकार द्वारा उल्फा के साथ किये गये शांति समझौते की सराहना करते हुए कहा कि यह समझौता राज्य में स्थायी प्रगति का मार्ग प्रशस्त करेगा। मोदी ने कहा, ‘‘आज का दिन असम की शांति और विकास की यात्रा में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। यह समझौता असम में स्थायी प्रगति का मार्ग प्रशस्त करेगा।’’ मोदी ने ‘एक्स’ पर अपने पोस्ट में कहा कि मैं इस ऐतिहासिक उपलब्धि में शामिल सभी लोगों के प्रयासों की सराहना करता हूं। साथ मिलकर, हम सब एकता, विकास और समृद्धि के भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं।

 

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असमिया चिंताओं की जड़ें

असमिया लोगों की अपनी अनूठी संस्कृति और भाषा और पहचान की एक मजबूत भावना है। हालाँकि, 19वीं सदी की शुरुआत में, जैसे ही क्षेत्र की चाय, कोयला और तेल अर्थव्यवस्था ने हर जगह से प्रवासियों को आकर्षित किया, स्वदेशी आबादी असुरक्षित महसूस करने लगी। विभाजन और उसके बाद तत्कालीन-पूर्वी पाकिस्तान से राज्य में शरणार्थियों के पलायन से यह और भी बदतर हो गया। संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा आसमान छू गई, जिसके परिणामस्वरूप छह साल लंबा जन आंदोलन शुरू हुआ। अंततः, 1985 में "असम में विदेशियों की समस्या का संतोषजनक समाधान खोजने" के उद्देश्य से असम समझौते पर हस्ताक्षर किए गए।


हालाँकि, इन सबके बीच, भीमाकांत बुरागोहेन, अरबिंद राजखोवा, अनुप चेतिया, प्रदीप गोगोई, भद्रेश्वर गोहेन और परेश बरुआ के नेतृत्व में अधिक कट्टरपंथी विचारकों के एक समूह ने 7 अप्रैल, 1979 को उल्फा का गठन किया। जून, 1979 में सदस्यों ने संगठन के नाम, प्रतीक, ध्वज और संविधान पर चर्चा करने के लिए मोरन में बैठक की। इनकी मांग असम को अलग देश बनाने की थी। उल्फा के संस्थापक भारतीय राज्य के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से एक संप्रभु असमिया राष्ट्र की स्थापना करना चाहते थे। 


1980 में कांग्रेस के राजनीतिज्ञों, राज्य के बाहर के व्यापारिक घरानों, चाय बागानों और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों, विशेषकर तेल और गैस क्षेत्र को निशाना बनाकर अपनी ताकत बढ़ानी शुरू की। 1985-1990 में प्रफुल्ल कुमार महंत के नेतृत्व वाली असम गण परिषद (अगप) सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान असम में अशांति की स्थिति पैदा हो गई और उल्फा ने रूसी इंजीनियर सर्गेई को अगवा किये जाने सहित जबरन वसूली और हत्याओं की कई घटनाओं को अंजाम दिया। साथ ही, भारतीय राज्य की प्रतिक्रिया भी संयमित नहीं रही है। 1990 में, केंद्र ने ऑपरेशन बजरंग शुरू किया, जिसके परिणामस्वरूप 1,221 उल्फा विद्रोहियों को गिरफ्तार किया गया। असम को 'अशांत क्षेत्र' घोषित किया गया, राष्ट्रपति शासन लगाया गया और सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (एएफएसपीए) लागू किया गया।


31 जनवरी, 1991 को ऑपरेशन ‘बजरंग’ बंद किया गया। जनवरी, 1991 को तत्कालीन प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर ने राज्यसभा को सूचित किया कि यदि उल्फा राजनीतिक वार्ता की इच्छा व्यक्त करता है तो केंद्र सरकार आवश्यक कदम उठाएगी। उल्फा ने जवाब दिया कि जब तक सैन्य अभियान और राष्ट्रपति शासन जारी रहेगा, कोई बातचीत संभव नहीं है और असम की ‘संप्रभुता’ की उनकी मांग पर कोई समझौता नहीं होगा। जून, 1991 में हितेश्वर सैकिया के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने सत्ता संभाली। सितंबर, 1991 में ही उल्फा के खिलाफ ऑपरेशन ‘राइनो’ शुरू किया गया। मार्च 1992 में उल्फा दो गुटों में विभाजित हो गया और एक वर्ग ने आत्मसमर्पण कर दिया और खुद को आत्मसमर्पित उल्फा (सल्फा) के रूप में संगठित किया।


1996 में अगप सत्ता में लौटी और प्रफुल्ल कुमार महंत दूसरी बार मुख्यमंत्री बने। जनवरी 1997 में उल्फा के खिलाफ समन्वित रणनीति और संचालन के लिए मुख्य सचिव की अध्यक्षता में सेना, राज्य पुलिस और अर्धसैन्य बलों से युक्त एकीकृत कमान का गठन किया गया। 1997-2000 के बीच कथित तौर पर सल्फा द्वारा उल्फा उग्रवादियों के परिवार के सदस्यों की हत्याएं की गई। दिसंबर 2003 में पड़ोसी देश में उल्फा और अन्य पूर्वोत्तर उग्रवादियों के शिविरों को बंद करने के लिए रॉयल भूटान सेना द्वारा ‘ऑपरेशन ऑल क्लियर’ शुरू किया गया। 2004: उल्फा सरकार से बातचीत के लिए राजी हुआ। 

 

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शांति की ओर

सितंबर 2005 में उल्फा ने 11-सदस्यीय ‘पीपुल्स कंसल्टेटिव ग्रुप’ (पीसीजी) का गठन किया। जून, 2008 में उल्फा की 28वीं बटालियन के नेताओं ने एकतरफा युद्धविराम की घोषणा की। दिसंबर, 2009: अरबिंद राजखोवा सहित उल्फा के शीर्ष नेताओं को बांग्लादेश में गिरफ्तार किया गया, भारत निर्वासित किया गया और गुवाहाटी की जेल में बंद कर दिया गया। दिसंबर 2010: जेल में बंद उल्फा नेता ने सरकार से बातचीत का आग्रह करने के लिए ‘सिटीजन फोरम’ बनाया, जिसमें बुद्धिजीवियों, लेखकों, पत्रकारों और पेशेवरों को शामिल किया गया। 2011: राजखोवा और जेल में बंद अन्य नेता रिहा। उल्फा दो गुटों में विभाजित हो गया: राजखोवा के नेतृत्व वाला उल्फा (समर्थक वार्ता) और परेश बरुआ के नेतृत्व वाला उल्फा (स्वतंत्र)। 2012: उल्फा ने सरकार को 12-सूत्रीय मांगपत्र सौंपा। 

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