ईवीएम की जाँच जरूरी, पर बैलेट की मांग नाजायज है

By विंध्यवासिनी सिंह | Apr 10, 2017

पांच राज्यों में संपन्न हुए चुनाव के बाद से ईवीएम मशीन की निष्पक्षता का मुद्दा और अधिक गरमाता जा रहा है। ज्ञात हो कि उत्तर प्रदेश में अपनी करारी हार का जिम्मा ईवीएम मशीन के सिरे फोड़ते हुए बसपा मुखिया मायावती ने इसकी पारदर्शिता पर उंगली उठायी थी। मायावती ने साफ तौर पर कहा कि 100 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवारों को उतारने के बाद भी उनकी पार्टी को मात्र 19 सीटें मिलना ये साबित करता है कि भाजपा ने ईवीएम मशीन में गड़बड़ी कराई है। शुरू-शुरू में मायावती की बातों को गंभीरता से न लेकर उनके बयान को हार का फ्रस्ट्रेशन बताया जा रहा था, लेकिन बाद में सपा, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के इस विवाद में शामिल हो जाने से ये विवाद मीडिया की सुर्खियां बनने लगा।

इतना ही नहीं 'कांग्रेस और आप' ने तो ईवीएम की जगह चुनाव बैलेट पेपर से करने की मांग तक कर डाली है। इस मुद्दे को और हवा मिली है मध्य प्रदेश के भिंड में ईवीएम के कथित 'डेमो' से। ख़बरों के अनुसार भिंड में 9 अप्रैल को होने वाले उपचुनाव में इस्तेमाल होने वाली मशीनों का डेमॉन्सट्रेशन रखा गया था। डेमॉन्सट्रेशन के दौरान अलग-अलग बटन दबाने पर कथित रूप से भाजपा के चुनाव निशान कमल की ही पर्ची निकलने का आरोप लगाया गया था। इस ख़बर के सामने आने के बाद सियासी आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया। इसी डेमो के दौरान बीजेपी के चुनाव चिन्ह कमल का पर्चा 'वीवीपीएटी' मशीन से निकलने का मुद्दा भी मीडिया और राजनीतिक पार्टियों के द्वारा खूब उछाला गया। साफ़ तौर पर चुनावी हार का सामना करने वाली पार्टियों को इस चर्चा से एक मसाला मिल गया और वह चुनाव आयोग पर दबाव बनाने लगे। हालाँकि, इस पूरी चर्चा का कहीं कोई ठोस सुबूत नहीं मिला। इसी सन्दर्भ में मध्य प्रदेश की मुख्य चुनाव अधिकारी सलीना सिंह ने पत्रकारों को यह कहा कि यह ईवीएम मशीनों का केवल ‘डेमो’ था, जिसकी ट्रेनिंग दी जा रही थी और इस दौरान एक बार कमल और एक बार पंजे के चिन्ह की पर्ची निकली थी। उन्होंने जोर देते हुए कहा था कि इसमें केवल एक ईवीएम मशीन का इस्तेमाल हुआ था। हालाँकि, शोर मचाने वालों को यह बात सुनायी नहीं दी और कई लोग चुनाव आयोग को ही चैलेन्ज करने लगे।

 

उपरोक्त मामले पर गौर करें तो यह बात सामने आती है कि ईवीएम से जुड़ी किसी भी घटना की बिना जाँच-पड़ताल के अफवाह फैला दी जा रही है, जो बेहद चिंता का विषय भी है। चूंकि, ईवीएम एक मशीन ही नहीं है बल्कि वो माध्यम है जिसके द्वारा हम लोकतान्त्रिक तरीके से अपने प्रतिनिधि चुनते हैं। इस लोकतंत्र के ऊपर लोगों का भरोसा है। ऐसे में सिर्फ राजनीतिक मंशा के तहत किसी भी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया पर उंगली उठाना, वह भी बिना किसी ठोस सुबूत के कतई उचित नहीं है। यहाँ यह कहने का तात्पर्य कतई नहीं है कि ईवीएम में गड़बड़ी नहीं हो ही नहीं सकती। इस बात में सामान्य लॉजिक दिखता है कि जैसे तमाम कंप्यूटर और सॉफ्टवेयर हैक किये जा सकते हैं तो ईवीएम की गड़बड़ी को भी सिरे से ख़ारिज नहीं किया जा सकता। ऐसे में इसके जाँच की मांग करने में भी कोई बुराई नहीं है, मगर इसके लिए किसी ठोस सबूत की भी जरूरत है, न कि केवल मीडिया में बयान भर दे दिया जाए। 

 

गौरतलब है कि 2014 से पहले केंद्र में दो बार कांग्रेस की सरकार बनी और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री। उस समय भी 2009 में बीजेपी के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने ईवीएम को लेकर सवाल खड़े किये थे, तब कांग्रेस सरकार ने एक बार भी जहमत नहीं उठायी जाँच की। और तो और 2015 में दिल्ली चुनाव के दौरान 70 में से 67 सीटें जीतने वाली आम आदमी पार्टी ने भी एक बार भी चूं तक नहीं कसा "ईवीएम की संदिग्धता" को लेकर। उस समय भी उनकी जीत के पीछे ईवीएम की कारस्तानी के किस्से गढ़े गए थे। अब जब बीजेपी को जीत मिल रही है तो इन पार्टियों को आखिर 'ईवीएम में गड़बड़ी' क्यों नजर आ रही है? बात सिर्फ एवीएम में गड़बड़ी की उठती तो एक बात थी, किन्तु बैलेट पेपर पर चुनाव करना आखिर इन्हें ज्यादा उचित क्योंकर लग रहा है? अरविन्द केजरीवाल और दिग्विजय सिंह खास तौर पर जोर दे रहे हैं कि ईवीएम को हटा कर पुराणी प्रणाली यानि की बैलेट पेपर से चुनाव कराया जाये, इस बात कोई तुक है भी क्या?

 

सवाल ये उठता है कि ईवीएम की गड़बड़ी का विकल्प बैलेट पेपर किस दर्जे की समझदारी है? आज जहाँ हम चाँद पर पहुँचने के सन्दर्भ में रोज नए कदम बढ़ा रहे हैं, ऐसे में चुनावी प्रक्रिया जो किसी भी लोकतंत्र की जान होती है, उसे वर्षों पीछे धकेलने की मांग करना क्या उचित है? जहाँ कांग्रेस और आम आदमी पार्टी जैसी कुछ राजनीतिक पार्टियों को भले ही ऐसा लग रहा है कि बैलेट पेपर से चुनाव करने से पारदर्शिता बनी रहेगी... लेकिन क्या वो पार्टियां भूल गयी हैं कि कैसे दबंगों के द्वारा बैलेट बॉक्स लूटना या पहले से पर्चों पर वोट डालकर बैलेट बॉक्स में भर कर रखने की घटनाएं सामने आती रही हैं। यही नहीं, बैलेट पेपर के द्वारा चुनाव करने से समय और कागज की भी 'खासी' बर्बादी होती है सो अलग! मतदाताओं को भी बैलेट पेपर पर वोट डालने में खासी दिक्कत होती है, जिसमें वोट के ख़राब होने का भी डर रहता है।

 

इस सम्बन्ध में कुछ बड़े देशों का उदाहरण भी दिया जा रहा है कि वहां अभी भी बैलेट से चुनाव होता है। ये सच है कि अमेरिका जैसे देश में अभी भी बैलेट पेपर इस्तेमाल होता है मगर हमें ये भी देखना चाहिए कि इन देशों की आबादी काफी कम है और कानून व्यवस्था काफी दुरुस्त! इन देशों के लोग भी काफी जागरूक हैं, ऐसे में यहाँ बैलेट का इस्तेमाल आसानी से हो जाता है। निःसंदेह ईवीएम ने चुनाव प्रक्रिया को आसान किया है और जहाँ तक बात पारदर्शिता की है तो ईवीएम से छेड़छाड़ करना इतना भी आसान नहीं है, क्योंकि इन मशीनों को काफी हाई लेवल की सुरक्षा में रखा जाता है और इनकी निगरानी में केंद्रीय सुरक्षा बल के जवान तैनात रहते हैं। वोट होने से पहले और गिनती होने तक सभी राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्त्ता भी इसकी निगरानी ही करते हैं। ऐसे में किसी भी व्यक्ति के लिए आसान नहीं है ईवीएम मशीन तक पहुँच पाना। वहीं, बैलेट बॉक्स पर किसी भी निचले स्तर के अधिकारी के द्वार छेड़छाड़ की जाती रही है। यहाँ तक कि बूथ पर तैनात पोलिंग टीम भी चाहे तो बैलेट के साथ छेड़छाड़ कर सकती है। तकनीक की बात करें तो ईवीएम पूरी तरह एक चिप आधारित मशीन है और इसे छेड़ना किसी आम आदमी के बस की बात नहीं ही है। हाँ, अगर प्रश्न सरकारी स्तर पर इसे छेड़े जाने के उठ रहे हैं तो उसका निदान किया जाना चाहिए।

 

अब जब इस लड़ाई को एक कदम आगे बढ़ाते हुए अरविन्द केजरीवाल ने चुनाव आयोग को खुला चैलेन्ज किया है कि ईवीएम मशीन उन्हें दी जाये और वो साबित कर देंगे कि इसमें छेड़छाड़ करना संभव है। ऐसे अजीबोगरीब चैलेन्ज की कोई ख़ास महत्ता नहीं होनी चाहिए, क्योंकि तमाम सिक्योरिटी रीजन्स के चलते शायद ऐसा संभव न हो। हालाँकि, अपुष्ट ख़बरों के अनुसार चुनाव आयोग इस तरह के चैलेंज को स्वीकार कर सकता है। और जल्द ही ईवीएम जांच के लिए तारीख तय की जाने की बात कही जा रही है। बताया जा रहा है कि तमाम राजनीतिक पार्टियों के प्रतिनिधियों को बुलाकर उनका संशय दूर किया जा सकता है। संभवतः ऐसी परिस्थिति में योग्य तकनीक विशेषज्ञों को भी बुलाया जाए।

 

अगर सच में ऐसा होता है तो यह बेहद सकारात्मक पहल कही जाएगी. बल्कि, चुनाव आयोग को हर दस साल पर स्वतः ही लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं पर उठ रहे सवालातों का प्रामाणिक उत्तर देने की नियमित पहल करते रहना चाहिए। केंद्र सरकार और चुनाव आयोग को इस दिशा में भी कार्य करना चाहिए कि कैसे ईवीएम की तकनीक को और अधिक उन्नत और सुरक्षित किया जा सके, ताकि भविष्य में कोई भी आसानी से उंगली उठा कर लोकतान्त्रिक व्यवस्था को संदिग्ध न बनाये।

 

विपक्षी पार्टियों को भी चाहिए कि इस सन्दर्भ में ठोस सुबूत जमा करें। यह सुबूत उन वोटर्स के रूप में हो सकते हैं, जो गवाही दे सकें कि उन्होंने किसी और पार्टी को वोट दिया, किन्तु पर्ची किसी और की निकली। ऐसे ही, अरविन्द केजरीवाल एक राज्य के सीएम हैं तो कांग्रेस पार्टी इस हालात में भी काफी मजबूत है, तो उन्हें अपने सोर्सेज का इस्तेमाल करके ईवीएम की प्रमाणिकता के खिलाफ ठोस सुबूत इकठ्ठा करना चाहिए। यह तमाम नेता विदेश घूमने जाते ही हैं, तो क्यों न यह खुद कोई प्रामाणिक विशेषज्ञ की रिपोर्ट पेश करें, जिसके आधार पर सरकार और चुनाव आयोग पर दबाव बनाया जा सके। अगर यह भी सम्भव नहीं है तो फिर 'सुप्रीम कोर्ट' का दरवाजा सबके लिए खुला है। जिस किसी को भी अन्याय प्रतीत होता है, वह जाए और कोर्ट का दरवाजा खटखटाये, किन्तु सवा सौ करोड़ देशवासियों की खातिर, लोकतंत्र की मजबूती के लिए अनाप-शनाप आरोप न लगाए।

 

- विंध्यवासिनी सिंह

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