एक हमारे बड़े भाई साहब हैं। बिलकुल प्रेमचंद की कहानी ‘बड़े भाई साहब’ वाले। कभी-कभी ऐसा लगता है कि प्रेमचंद ने हमारे भाई साहब को देखकर ही कहानी लिखी होगी। ख़ैर, हमारे बड़े भाई साहब के जीवन की इकलौती उपलब्धि है कि उन्होंने आपातकाल देखा है। हालांकि, आपातकाल लगने से महज 13-14 वर्ष पूर्व उनका जन्म हुआ था, लेकिन उनके पास आपातकाल से जुड़े 500-1000 किस्से थे, जिसे वक्त वक्त पर वो हमें कमतर, अनुभवहीन बताने के लिए झाड़ा करते थे। असग़र वज़ाहत के नाटक जिन लाहौर नहीं वेख्या की तर्ज पर उनका मानना था कि वो सब लोग फालतू हैं, जिन आपातकाल नहीं देख्या।
जिस तरह स्वतंत्रता आंदोलन के वक्त दूध बेचने निकला दूधिया भी गिरफ्तार होने पर स्वतंत्रता सेनानी कहलाया, वैसे ही बड़े भाई साहब स्वयं को आपातकाल का भुक्त भोगी बताते हैं। हालांकि, उन्हें कोई पेंशन नहीं मिली लेकिन उनका मानना है कि उन्होंने तानाशाह सरकार के आगे सर नहीं झुकाया। आपातकाल के दौरान हमारे बड़े चाचाची ने उन्हें घर से नहीं निकलने दिया था, जिसे वो अंडरग्राउंड होना बताते हैं। हद ये कि हम लोगों की जब भी आपस में बहस हो तो वो कहते-‘तुम क्या जानो सरकारों के रवैये को, हमें देखो, हमने आपातकाल भोगा है।‘
बड़े भाई साहब इन दिनों दुखी हैं। क्योंकि आजकल मैं उन्हें बता रहा हूं कि हमने आपातकाल का बाप कोरोनाकाल देखा है। आपातकाल में जो लोग सरकार के खिलाफ थे, उन्हें परेशानी थी। कोरोनाकाल में लोग तो लोग खुद सरकार परेशान है। हाल ये कि खुद सरकारें आईसीयू में पड़ी हैं। कोई ठेका पास नहीं हो रहा तो कई नेता आपातकाल सरीखी तपिश महसूस कर रहे हैं। भ्रष्ट से भ्रष्ट पुलिसवाला इन दिनों हाथ में नोट पकड़ने से घबरा रहा है। आपातकाल में भी किसी को मुँह छिपाने की नौबत नहीं आई, लेकिन कोरोनाकाल में तो हर बंदा मुँह छिपाए घूम रहा है। कई जगह नेताओं और बड़े अधिकारियों ने आत्मा को भी मास्क पहना दिया है ताकि प्रवासी मजदूरों का दुख दर्द देखकर वो रो रोकर शरीर से बाहर ना आ जाए।
प्रेम और प्रेमियों पर अलग आपातकाल है। कई प्रेमी परेशान हैं कि उन्होंने ग्रीटिंग कार्ड, पेट्रोल और बाकी तोहफो पर जितना निवेश किया, वो सब गड्ढे में चला गया। उन्हें डर है कि जूम पर ही कहीं लड़की की शादी ना हो जाए। शादियों पर आपातकाल है। बारात में नागिन डांस नर्तक जितने लोगों को झूमते हुए घायल कर देते थे, अब उतने लोगों को पूरी शादी में आने की अनुमति है। अस्पतालों में अलग इमरजेंसी है। पहले लोग अस्पताल सही होने जाते थे, आजकल कई लोग अस्पतालों से बीमार होकर लौट रहे हैं। श्मशानों में अंतिम संस्कार की एडवांस बुकिंग हो रही है।
कोरोनाकाल 45 साल पहले लगे आपातकाल से कहीं खतरनाक है। बड़े भाई साहब मौन थे। उनका आपातकाल हमारे कोरोनाकाल के आगे कहीं नहीं ठहर रहा था। वो फिर लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की आज़ादी, फासीवाद, निरंकुश शासन, सत्ता का दुरुपयोग जैसे शब्द बड़बड़ाने लगे। ऐसे शब्दों को कौन सुनता है भला ? मैं भी मास्क पहनकर निकल लिया।
- पीयूष पांडे