भितरघातियों को समाप्त किये बिना आतंकवाद का सफाया असम्भव

By डॉ. रविन्द्र अरजरिया | Feb 23, 2019

आतंकवाद के दावानल ने एक बार फिर अमन की छाती में खंजर भौंका। गुनाहगार ने खुद इकबालिया बयान दिया। दहशतगर्दी को पालने वाला पाकिस्तान और उसका सरपरस्त चीन पर्दे के पीछे से काली फसल उगाने में लगा है। देश के अन्दर बैठे कई सियासतदार भी सीमापार की जुबान बोल रहे हैं। ऐसे सियासतदारों और अनेक जयचन्दों की हिफाजत में हमारी सुरक्षा एजेंसियों को लगाया गया है। मानवता की दुहाई पर दानवता के पक्षधरों को पाला-पोसा जा रहा है। कई राजनैतिक दलों के शब्द उनकी नकारात्मक सोच की चुगली कर रहे हैं। मुम्बई ब्लास्ट, संसद पर हमला, पटियाला काण्ड सहित सैंकड़ों घटनायें हैं जब देश का आम आवाम हथियार थामने के लिए आक्रोशित हुआ था। वर्तमान में फिर उसकी पुनरावृत्ति हो रही है।

 

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भारत माता का हर सच्चा सपूत पाक के नापाक इरादों का प्रतिशोध लेने के लिए बेचैन हो रहा है। ट्रेन की रफ्तार से ज्यादा तेज हमारे विचारों के प्रवाह का है। तभी तो सियालदाह से जम्मू तवी जाने वाली इस एक्सप्रेस गाड़ी के वातानुकूलित डिब्बे में भी क्रोध की अग्नि ने पसीना पैदा कर दिया। किसी के कठोर हाथों के स्पर्श से हम चौंक उठे। चेतना वापिस लौट आई। सामने की बर्थ पर बैठे सहयात्री ने हमें हिलाते हुए पूछा कि आपको पसीना आ रहा है, तबियत खराब हो रही है क्या। अपने को सहज करते हुए हमने उन्हें अपने मन की बात बता दी। देश के हालातों पर चर्चा चल निकली। अतीत की गवाही पर वर्तमान समस्या को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा कि देश के लोकतांत्रिक ढांचे में इतने पेंच हैं जिनको एक साथ सुलझाना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। अस्पष्ट नीतियों, लचीले सिद्धान्तों और कानून को मनमाना आकार देने की संभावनाओं को इसमें शामिल किया गया है। मानवीयता के भावनात्मक पक्षों का सहारा लेकर जहां एक ओर हुर्रियत नेताओं के देशघाती प्राणों की हिफाजत की जा रही है वहीं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर राष्ट्र को नेस्तनाबूत करने वाले मंसूबों को हवा देने वाले जयचन्द भी अपनी कथनी और करनी पर खुलकर ठहाके लगा रहे हैं। याद रखिये, बचाव की मुद्रा से कभी भी विजय हासिल नहीं हो सकती।

 

आममत जुटाने की कोशिश में परिवारमत भी बिखरने लगता है। उनकी दार्शनिकता पर पूर्ण विराम लगाते हुए हमने सीधे विषय के निर्णायक बिन्दु पर आने की बात कही। इजराइल का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि जब छोटा सा राष्ट्र अपने दुश्मनों को चुन-चुनकर मार देता है। अपमान को जड़ से उखाड़ फैंकता है। टेढ़ी होने वाली आंखों में मिर्च-मसाला भर देता है तो फिर भारत जैसे विशाल राष्ट्र को भी इस मुद्दे पर कठोर और परिणामात्मक कदम उठाना ही चाहिये। आज देश की एक मात्र मांग है, आतंक का हमेशा के लिए सफाया। चारों ओर से बदला, प्रतिशोध और जवाबी कार्यवाही के लिए आवाजें उठ रही हैं। नागरिकों की भावनाओं का सम्मान करने लिए कठोरतम कदम उठाना अब आवश्यक ही नहीं बल्कि अतिआवश्यक हो गया है। प्रधानमंत्री के वक्तव्य का उल्लेख करते हुए हमने कहा कि सेना को छूट देने की बात कही गई। नीतियां बनाने और उन्हें अमली जामा पहने की आजादी दी गई है। ऐसे में किस तरह की सैनिक कार्यवाही हो सकती है। संविधान के विभिन्न भागों का विश्लेषण करते हुए उन्होंने कहा कि गणतांत्रिक स्वरूप में सेना की सीमायें निर्धारित हैं। सरकारों के अधिकार आरक्षित हैं। सभी कुछ कानून की किताब में पहले से ही अंग्रेजी भाषा में लिख दिया गया है ताकि आम हिन्दुस्तानी की समझ में न आ सके। यह विषय तो अन्तहीन वैचारिक श्रृंखला की वस्तु बनकर प्रस्तुत हुआ है परन्तु इतना तो कहा ही जा सकता है कि पड़ोसी को नियंत्रण में रखने के लिए उसको शह देने वालों पर भी शिकंजा कसना पड़ेगा। तभी बगल वाले घर से छुपकर होने वाले हमलों को रोका जा सकेगा।

 

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वास्तविकता तो यह है कि भितरघातियों को समाप्त किये बिना आतंकवाद का सफाया असम्भव है। सफेदपोश नेतागिरी से लेकर समाजसेवा, साहित्य, कला, संगीत, अभिनय जैसे अनेक रागात्मक पक्षों का लबादा ओढ़े जयचन्दों को न केवल उजागर करना होगा बल्कि उनके द्वारा किये गये भितरघात की क्रूरतम सजा भी सार्वजनिक स्थलों पर देनी होगी ताकि उन्हें आदर्श मानने वालों की भी रूह कांप जाये। सीआरपीएफ की शहादत का दर्द सहयात्री के चेहरे पर क्रोध की पराकाष्ठा के रूप में उभरने लगा। अब उनका चेहरा पसीना-पसीना हो रहा था। मुट्ठियां भिंच रही थी और धधकने लगे थे शब्द। चरम पर पहुंचे ही उन्होंने अपने को संभाला और शान्त हो गये। आंखें बंद कर लीं, बर्थ की बैक पर सिर टिका लिया। शायद स्वयं के आक्रोश को ठंडा करने का प्रयास कर रहे थे। कुछ समय यूं ही गुजरने के बाद सेना वर्दी में एक अधिकारी ने आकर उन्हें लखनऊ स्टेशन के नजदीक पहुंचने की जानकारी दी। वे खामोशी से उठे। तौलिये से मुंह पोंछा। सूटकेस से कपड़े निकाले और बदलने के लिए चले गये। यह तो स्पष्ट हो गया था कि हमारे सहयात्री सेना में कोई बड़े अधिकारी हैं। वापिस आने पर हमने उन्हें अपना परिचय दिया और प्रश्नवाची नजरों से देखा। वे सहज ढंग से मुस्कुराये और अपना नाम अरविन्द पाण्डेय बताया। देश की सुरक्षा को संकल्पित एक नागरिक से अधिक से अधिक अपने बारे में उन्होंने कुछ भी नहीं बताया। इस बार बस इतना ही।

 

डॉ. रविन्द्र अरजरिया

वरिष्ठ पत्रकार

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