By प्रह्लाद सबनानी | Oct 12, 2022
विकसित देशों के कुछ अर्थशास्त्रियों ने भारत के विरुद्ध जैसे एक अभियान ही चला रखा है और भारत के आर्थिक विकास को वे पचा नहीं पा रहे हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था ने अप्रैल-जून 2022 तिमाही में 13.5 प्रतिशत की वृद्धि दर हासिल की है और वित्तीय वर्ष 2022-23 में भारत 8 प्रतिशत की विकास दर हासिल करने जा रहा है। इस प्रकार भारत न केवल आज विश्व की सबसे तेज गति से आगे बढ़ रही अर्थव्यवस्था बन गया है बल्कि भारत आज विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भी बन गया है। परंतु, फिर भी इन अर्थशास्त्रियों द्वारा मानव विकास सूचकांक में भारत को श्रीलंका से भी नीचे बताया जाना, आश्चर्य का विषय है। यह विरोधाभास इन अर्थशास्त्रियों को कहीं दिखाई नहीं दे रहा है, जबकि श्रीलंका की हालत तो जगजाहिर है एवं आर्थिक दृष्टि से भारत एवं श्रीलंका की तुलना ही नहीं की जा सकती है। आर्थिक विकास के साथ मानव विकास भी जुड़ा है। भारत में आर्थिक विकास तो तेज गति से हो रहा है परंतु इन अर्थशास्त्रियों की नजर में भारत में मानव विकास में लगातार गिरावट आ रही है। यह एक सोचनीय विषय है।
अभी हाल ही में संयुक्त राष्ट्र डेवलपमेंट प्रोग्राम ने मानव विकास सूचकांक (एचडीआर) प्रतिवेदन 2021-22 जारी किया है। एचडीआर की वैश्विक रैंकिंग में भारत 2020 में 130वें पायदान पर था और 2021 में 132वें पर आ गया है, ऐसा इस प्रतिवेदन में बताया गया है। मानव विकास सूचकांक का आंकलन जीने की औसत उम्र, पढ़ाई और प्रति व्यक्ति आय के आधार पर किया जाता है। कोरोना महामारी के खंडकाल में भारत का इस सूचकांक में निचले स्तर पर आना कोई हैरान करने वाली बात नहीं होनी चाहिए। परंतु, वर्ष 2015 से वर्ष 2021 के बीच भारत को एचडीआर रैंकिंग में लगातार नीचे जाता हुआ दिखाया जा रहा है। जबकि इसी अवधि में चीन, श्रीलंका, बांग्लादेश, यूएई, भूटान और मालदीव जैसे देशों की रैंकिंग ऊपर जाती हुई दिखाई जा रही है। श्रीलंका, बांग्लादेश एवं मालदीव जैसे देशों की आर्थिक स्थिति के बारे में आज हम अनभिज्ञ नहीं हैं।
इसी प्रकार इन अर्थशास्त्रियों द्वारा भारत में गरीबी की रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों की संख्या को भी बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जा रहा है। इनके अनुसार, भारत के 23 करोड़ लोग प्रतिदिन 375 रुपए से भी कम कमाते हैं। भारत की जनसंख्या यदि 140 करोड़ मानी जाये तो देश की कुल जनसंख्या के 16.42 प्रतिशत नागरिक 375 रुपए से कम कमा रहे हैं, जबकि विश्व बैंक द्वारा हाल ही में इस सम्बंध में जारी किए गए आंकड़े कुछ और ही कहानी कह रहे हैं। विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में आज भारत के ऊपर अमेरिका, चीन, जापान और जर्मनी आते हैं। अगर इन बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में गरीबी के आकंड़े देखें तो कई चौंकाने वाले खुलासे सामने आते हैं।
सबसे पहले अगर अमेरिका की बात की जाये तो अमेरिका की कुल आबादी के 11.4 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। जबकि अमेरिका को विश्व का सबसे अमीर एवं विकसित देश माना जाता है। चीन के सम्बंध में तो कोई वास्तविक आंकड़े सामने आते ही नहीं हैं, अतः चीन की बात करना ठीक नहीं होगा। जर्मनी में भी स्थिति अमेरिका जैसी ही है। कुल आबादी में से 15.5 प्रतिशत नागरिक गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने को मजबूर हैं। जापान के सम्बंध में वर्ष 2020 में आई एक खबर के अनुसार जापान में गरीबों की संख्या बढ़ रही है एवं मध्यमवर्गीय लोगों की संख्या कम हो रही है। जापान में 15.7 प्रतिशत नागरिक गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं।
यह भी एक चौंकाने वाली बात है कि विश्व के सबसे अमीर देशों की सूची में अमेरिका में सबसे ज्यादा आत्महत्याएं होती हैं। जबकि विश्व की सबसे बड़ी उक्त चार अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भारत में सबसे कम आत्महत्याएं होती हैं। यह भी मानव विकास सूचकांक का एक अवयव है, परंतु मानव विकास सूचकांक में भारत की लगातार गिरती स्थिति ही दर्शाई जाती है।
अब भारत की बात करते हैं। भारत में वर्ष 1947 में 70 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे थे, जबकि अब वर्ष 2020 में देश की कुल आबादी का लगभग 10 प्रतिशत हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहा है। 1947 में देश की आबादी 35 करोड़ थी जो आज बढ़कर लगभग 136 करोड़ हो गई है।
अभी हाल ही में विश्व बैंक ने एक पॉलिसी रिसर्च वर्किंग पेपर (शोध पत्र) जारी किया है। इस शोध पत्र के अनुसार वर्ष 2011 से 2019 के बीच भारत में गरीबों की संख्या में भारी गिरावट दर्ज की गई है। वर्ष 2011 में भारत में गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे व्यक्तियों की संख्या 22.5 प्रतिशत थी जो वर्ष 2019 में घटकर 10.2 प्रतिशत पर नीचे आ गई है अर्थात गरीबों की संख्या में 12.3 प्रतिशत की गिरावट दृष्टिगोचर है। अत्यंत चौंकाने वाला एक तथ्य यह भी उभरकर सामने आया है कि भारत के शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबों की संख्या बहुत तेज गति से कम हुई है। जहां ग्रामीण इलाकों में गरीबों की संख्या वर्ष 2011 के 26.3 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2019 में 11.6 प्रतिशत पर आ गई है अर्थात यह 14.7 प्रतिशत से कम हुई है तो शहरी क्षेत्रों में यह संख्या 7.9 प्रतिशत से कम हुई है। उक्त शोधपत्र में एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य यह भी बताया गया है कि वर्ष 2015 से वर्ष 2019 के बीच गरीबों की संख्या अधिक तेजी से घटी है। वर्ष 2011 से वर्ष 2015 के दौरान गरीबों की संख्या 3.4 प्रतिशत से घटी है वहीं वर्ष 2015 से 2019 के दौरान यह 9.1 प्रतिशत से कम हुई है और यह वर्ष 2015 के 19.1 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2019 में 10 प्रतिशत पर नीचे आ गई है। वर्ष 2017 एवं वर्ष 2018 के दौरान तो गरीबी 3.2 प्रतिशत से कम हुई है यह कमी पिछले दो दशकों के दौरान सबसे तेज गति से गिरने की दर है। ग्रामीण इलाकों में छोटे जोत वाले किसानों की आय में वृद्धि तुलनात्मक रूप से अधिक अच्छी रही है जिसके कारण ग्रामीण इलाकों में गरीबों की संख्या वर्ष 2015 के 21.9 प्रतिशत से वर्ष 2019 में घटकर 11.6 प्रतिशत पर नीचे आ गई है, इस प्रकार इसमें 10.3 प्रतिशत की आकर्षक गिरावट दर्ज की गई है। उक्त शोधपत्र में यह भी बताया गया है कि बहुत छोटी जोत वाले किसानों की वास्तविक आय में 2013 और 2019 के बीच वार्षिक 10 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है वहीं अधिक बड़ी जोत वाले किसानों की वास्तविक आय में केवल 2 प्रतिशत की वृद्धि प्रतिवर्ष दर्ज हुई है।
अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष ने तो अपनी एक अन्य रिपोर्ट में भारत द्वारा कोरोना महामारी के दौरान लिए गए निर्णयों की सराहना करते हुए कहा है कि विशेष रूप से गरीबों को मुफ्त अनाज देने की योजना (प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना) को लागू किए जाने के चलते ही भारत में अत्यधिक गरीबी का स्तर इतना नीचे आ सका है और अब भारत में असमानता का स्तर पिछले 40 वर्षों के दौरान के सबसे निचले स्तर पर आ गया है। ज्ञातव्य हो कि भारत में मार्च 2020 में प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) प्रारम्भ की गई थी। इस योजना के अंतर्गत केंद्र सरकार द्वारा लगभग 80 करोड़ लोगों को प्रति माह प्रति व्यक्ति पांच किलो अनाज मुफ्त में उपलब्ध कराया जाता है एवं इस योजना की अवधि को अभी हाल ही में दिसम्बर 2022 तक आगे बढ़ा दिया गया है। उक्त मुफ्त अनाज, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून (एनएफएसए) के अंतर्गत काफी सस्ती दरों पर (दो/तीन रुपए प्रति किलो) उपलब्ध कराए जा रहे अनाज के अतिरिक्त है।
इस प्रकार, विकसित देशों के अर्थशास्त्री मानव विकास सूचकांक को आंकते समय न केवल भारत के आर्थिक विकास को पूर्णतः नजरअंदाज कर रहे हैं बल्कि भारत में तेजी से कम हो रही गरीबी एवं आर्थिक असमानता पर भी कोई ध्यान नहीं दे रहे हैं। किसी भी देश में यदि आर्थिक विकास होकर गरीबों की संख्या में कमी आएगी तो स्वाभाविक रूप से उस देश के नागरिकों का भी विकास होगा ही।
-प्रह्लाद सबनानी
सेवानिवृत्त उप महाप्रबंधक
भारतीय स्टेट बैंक