30 दिसंबर को देश के हिंदी साहित्य के महान गजलकार दुष्यंत कुमार की पुण्यतिथि है, वो हिंदी साहित्य में एक बहुत बड़ा नाम है जिसकी मिसाल हर कोई देता है। दुष्यंत कुमार अपनी बेहद सरल हिंदी और बेहद आसानी से समझ आने वाली उर्दू में कविताएं लिखकर लोगों के दिलों-दिमाग पर एकदम से छा गए थे। इन्होंने देश के सामने सरल हिंदी भाषा में गजलों को पेश करके, देश के हिंदी साहित्य में एक नई बयार बहाई थी। आज उनकी पुण्यतिथि पर प्रस्तुत हैं दुष्यंत कुमार कुछ बेहतरीन रचनाएं
"रहनुमाओं की अदाओं पर फ़िदा है दुनिया,
इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारों,
कैसे आकाश में सुराख़ हो नहीं सकता,
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो।"
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महान कवि दुष्यंत कुमार का जन्म 27 सितंबर 1931 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर जनपद की तहसील नजीबाबाद के ग्राम राजपुर नवादा में हुआ था। वो एक सरल हिन्दी कवि, कथाकार और ग़ज़लकार थे। हालांकि दुष्यंत कुमार की पुस्तकों में उनकी जन्मतिथि 1 सितंबर 1933 लिखी है, किन्तु साहित्य के मर्मज्ञ विजय बहादुर सिंह के अनुसार उनकी की वास्तविक जन्मतिथि 27 सितंबर 1931 है। उनके पिता का नाम भगवत सहाय त्यागी और माता का नाम रामकिशोरी देवी था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव की पाठशाला में हुई, माध्यमिक शिक्षा नहटौर से हाईस्कूल और चंदौसी में इंटरमीडिएट से हुई थी। दुष्यंत कुमार ने दसवीं कक्षा से कविता लिखना प्रारम्भ कर दिया। इंटरमीडिएट करने के दौरान ही राजेश्वरी कौशिक से उनका विवाह हो गया था। बाद उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी में बीए और एमए किया। उनको कथाकार कमलेश्वर और मार्कण्डेय तथा कविमित्रों धर्मवीर भारती, विजयदेवनारायण साही आदि के संपर्क से, उनकी साहित्यिक अभिरुचि को एक नया आयाम मिला था। मुरादाबाद से बीएड करने के बाद वर्ष 1958 में वो आकाशवाणी दिल्ली में आये। उसके बाद मध्यप्रदेश के संस्कृति विभाग के अंतर्गत भाषा विभाग में कार्यरत रहे। देश में लगे आपातकाल के समय उनका कविमन बेहद क्षुब्ध और आक्रोशित हो उठा जिसकी अभिव्यक्ति कुछ कालजयी ग़ज़लों के रूप में हुई, जो उनके ग़ज़ल संग्रह 'साये में धूप' का हिस्सा बनीं। सरकारी सेवा में रहते हुए सरकार विरोधी काव्य रचना के कारण उन्हें समय-समय पर सरकार के कोपभाजन का भी शिकार बनना पड़ा था। अपनी गजलों से देश के मठाधीशों के सिंहासन को हिलाने वाला यह महान योद्धा 30 दिसंबर 1975 की रात्रि में हृदयाघात के चलते, साहित्य की दुनिया का यह महान सितारा असमय अल्पायु में दुनिया को छोड़कर चिरनिद्रा में हमेशा के लिए सो गया।
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी, शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गांव में, हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
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जिस दौर के दौरान दुष्यंत कुमार ने साहित्य की दुनिया में अपने कदम रखे थे, उस समय भोपाल के दो प्रगतिशील शायरों ताज भोपाली तथा क़ैफ़ भोपाली का ग़ज़लों की दुनिया पर एकक्षत्र राज था। हिन्दी भाषा में भी उस समय अज्ञेय तथा गजानन माधव मुक्तिबोध की कठिन कविताओं का देश में जबरदस्त बोलबाला था। उस समय आम आदमी के लिए नागार्जुन तथा धूमिल जैसे नाममात्र के कुछ कवि ही बच गए थे। इस समय सिर्फ़ 44 वर्ष के जीवन में दुष्यंत कुमार ने अपार ख्याति अर्जित की। दुष्यंत कुमार देश के उन महान कवियों में से एक हैं, जिनकी हिंदी भाषा पर जितनी अच्छी पकड़ थी, उर्दू भाषा की भी उतनी अच्छी जानकारी भी। यही वजह है कि उनको देश का पहला हिंदी ग़ज़ल लेखक माना जाता है। दुष्यंत कुमार ने कविता, गीत, गजल, काव्य, नाटक, कथा, हिंदी की सभी विधाओं में लेखन किया था, लेकिन उनकी गजलें उनके लेखन की दूसरी विधाओं पर हमेशा भारी पड़ी और लोगों के दिलों-दिमाग पर छा गयीं। उनकी हर गज़ल आम आदमी की आवाज़ बन गयी है, जिसमें चित्रित है, आम आदमी के जीवन संघर्ष की दास्तान, आम आदमी के जीवना का दर्द व दर्पण, देश की राजनैतिक विडम्बनाएं और विसंगतियां। राजनीतिक क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार, प्रशासनिक तन्त्र की संवेदनहीनता, वही उनकी गजलों का ताकतवर स्वर है। दुष्यन्त कुमार ने गज़ल को रूमानी तबिअत से निकालकर देश के आम आदमी से जोड़ने का कार्य सफलतापूर्वक किया है। दुष्यंत कुमार ने गजल को हिंदी कविता की मुख्य धारा में शामिल करने की पुरजोर कोशिश की और वह इसमें पूरी तरह सफल भी हुए।
कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए
न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए
ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए
तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए
जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए
उनकी इन पंक्तियों के साथ आज हम इस महान लेखक आदरणीय दुष्यंत कुमार को पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
दीपक कुमार त्यागी
स्वतंत्र पत्रकार व स्तंभकार