ड्रेस कोड को नहीं माना जा सकता धार्मिक आजादी के अधिकार के खिलाफ, जानें इस मामले पर क्या कहते हैं विधि विशेषज्ञ

By टीम प्रभासाक्षी | Feb 10, 2022

कर्नाटक में कॉलेज में हिजाब पहनने को लेकर बवाल लगातार मचा हुआ है यह मामला फिलहाल हाईकोर्ट में विचाराधीन है। कोर्ट के पूर्व फैसलों और विधि विशेषज्ञों की राय में तो धार्मिक आजादी के अधिकार के तहत हिजाब पहनने की दलील ज्यादा टिक नहीं पाती। विधि विशेषज्ञों की मानें तो पहनावा धर्म का अभिन्न हिस्सा नहीं होता। धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों में उन्हीं चीजों और रीति रिवाज को मान्यता दी जा सकती है जो धर्म का अभिन्न हिस्सा हों। कॉलेज स्कूल या किसी भी संस्था में लागू हुए ड्रेस कोड को धार्मिक आजादी के खिलाफ नहीं माना जा सकता।

 

आपको बता दें यह पहला मौका नहीं है जब धार्मिक मान्यता की बात कहकर इस तरह की मांग उठाई जा रही है। पहले भी इस तरह के मामले हुए हैं जिसमें कोर्ट ने अपने फैसले दिए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने 15 दिसंबर 2016 को धार्मिक मान्यता की दुहाई देकर वायु सेना में नौकरी करने वाले मोहम्मद जुबेर की दाढ़ी रखने और दाढ़ी रखने के कारण उसे नौकरी से निकाले जाने के आदेश को रद्द करने से मना कर दिया था।


सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले में कहा था वेशभूषा से जुड़े नियम और नीतियों की मंशा धार्मिक विश्वासों के साथ भेदभाव करने की नहीं है और ना ही इनका ऐसा प्रभाव होता है। इसका लक्ष्य और उद्देश्य एकरूपता, सामंजस्य, अनुशासन और व्यवस्था सुनिश्चित करना है। सुप्रीम कोर्ट ने उसमें इस्लाम में दाढ़ी रखने की अनिवार्यता नहीं मानी थी।


स्कूल कॉलेज किसी संस्था या सशस्त्र बल में लागू ड्रेस कोड के पालन को जरूरी बताते हुए सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड न्यायाधीश शिव कीर्ति शाह भी कहते हैं कि स्कूल ऑफिस कॉलेज हसीना जहां संस्था को ड्रेस है करने का अधिकार है वहां उनकी ड्रेस को महत्व देना पड़ेगा। इसका मूल कारण यह है कि देश की आजादी किसी मजहब से जुड़ी हुई नहीं है।


अपने फैसलों में कोर्ट ने भी किसी धार्मिक मान्यताओं  के पालन की छूट सोच समझ कर दी है। उसमें रीति रिवाज या संस्कार धर्म का अभिन्न हिस्सा हैं, उनके पालन का अधिकार है। मजहबी आजादी का सुप्रीम कोर्ट ने अभी एक बड़ा रिस्ट्रिक्टिव मीनग दिया है की बुनियादी संस्कारों और मान्यताओं को बदलने के लिए दबाव नहीं डाला जाएगा। आप अपनी धार्मिक मान्यताओं का पालन अपने घर में पूजा या प्रार्थना स्थल में कर सकते हैं। लेकिन जिस संस्था में जो ड्रेस कोड लागू है अगर आप वहां जा रहे हैं तो आपको उसका पालन करना पड़ेगा।


जस्टिस शाह कहते हैं कि ड्रेस को व्यवहारिक होने के आधार पर कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती या किसी ड्रेस को तय करने का अधिकार ना हो और वह ड्रेस तय करे तो गलत होगा। लेकिन अगर किसी निश्चित उद्देश्य से किसी संस्था में ड्रेस तय की गई है तो आपको उसका सम्मान करना होगा। आप उसे धर्म के आधार पर चुनौती नहीं दे सकते।


धर्म नहीं कहता कि आप बिना हिजाब के कहीं भी नहीं जा सकते। ड्रेस को धर्म से जोड़ना गलत होगा। संविधान में मिले ज्यादातर मौलिक अधिकार भी शर्तों के अधीन है। ऐसे में ही धार्मिक स्वतंत्रता का भी अधिकार है। सरकार कानून बनाकर उसे नियंत्रित कर सकती है, लेकिन जस्टिस शाह कहते हैं कि इस मामले में ऐसी स्थिति नहीं है क्योंकि यह धर्म का अभिन्न हिस्सा नहीं है


बिजोय एम्मानुएल बनाम केरल मामला

11 अगस्त 1986 को सुप्रीम कोर्ट ने बिजोय एम्मानुएल बनाम केरल राज्य मामले में फैसला देते हुए कोर्ट ने धार्मिक आजादी और अभिव्यक्ति की आजादी पर चर्चा की है। कोर्ट ने अपने फैसले में स्कूल में राष्ट्रगान गाने वाले 3 बच्चों को स्कूल से निकाले जाने को गलत बताया था। बच्चों की ओर से धार्मिक विश्वास के खिलाफ होने के बाद करते हुए राष्ट्रगान नहीं गाने की दलील दी गई थी। इस पर कोर्ट ने कहा था कि बच्चों ने राष्ट्रगान का अपमान नहीं किया। कोर्ट ने कहा कि वे राष्ट्रगान के दौरान सम्मान में खड़े हुए सिर्फ उसे गाया नहीं।

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