सिर्फ दलित नेता नहीं, महान देशभक्त और युगपुरुष भी थे डॉ. अंबेडकर

By डॉ. अजय खेमरिया | Dec 06, 2019

क्या डॉ. बी.आर. अंबेडकर सिर्फ दलित नेता थे ? और क्या सिर्फ भारत के संविधान निर्माता थे ? सरकारी इश्तहारों और तथाकथित दलित विमर्श की प्रतिध्वनि इस शख्स को एक लौह आवरण में कैद करती जान पड़ती है। इस आवरण के अंदर बोलने और सुनने का अधिकार भी सबको नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे कांशीराम की विरासत और विचारों पर मायावती का कब्जा है वैसे ही डॉ. बी.आर. अंबेडकर और उनके चिंतन को एकमार्गी बनाने का कार्य कतिपय प्रगतिशील और दलित विमर्श के दुकानदारों ने कर रखा है। सच मायनों में अंबेडकर एक दलित नेता से भी ऊपर महान देशभक्त राजनीतिक युगपुरूष थे। उनके जीवन और मान्यताओं की प्रासंगिकता आज व्यापक फलक पर स्वयंसिद्ध है। इसलिए गांधी, लोहिया, दीनदयाल की तर्ज पर अंबेडकर के राजनीतिक, सामाजिक विचारों को उदारता के साथ सामाजिक-राजनीतिक जीवन में स्थापित करने की आवश्यकता है। दलित-चिंतन के अलावा संसदीय राजनीति में नागरिक समानता, राजनीतिक सिद्धान्त, अधिकार और कर्त्तव्य पर उनके विचार स्थायी महत्व के हैं।

 

ईसाइयत, कम्यूनिज्म और इस्लाम पर उनके आंकलन तथा निष्कर्षों पर कभी देश में समेकित विमर्श सुनायी नहीं देता है जबकि इन तीनों पर उनका विशद् विश्लेषण अंबेडकर वाङ्ग्मय में भरा पड़ा है। दुर्भाग्य की बात है कि राजनीतिक दलों, दलित विमर्श, प्रगतिशील जमात, बुद्धिष्ट किसी भी फोरम पर इन विचारों को लेकर चर्चा नहीं होती है। डॉ. अंबेडकर के अनुसार लोकतांत्रिक राजनीति मूलतः लोकतांत्रिक समाज पर निर्भर है। किसी देश की शक्ति और उन्नति उसके सामाजिक जीवन, उच्च नैतिकता, ईमानदारी, आर्थिक क्रियाकलाप, जनता का मनोबल, साहस और सामान्य आदतों पर निर्भर होती है। इसीलिए वे राजनीतिक सुधारों से ज्यादा सामाजिक सुधारों पर जोर देते थे। इसीलिए उन्होंने भारत के समाज में अंतिम पायदान पर खड़े लोगों को सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से मजबूत करने पर अपना ध्यान लगाया। किंतु ऐसा करते समय डॉ. अंबेडकर ने संपूर्ण भारत के हित को कभी अपनी प्राथमिकता से कम नहीं होने दिया। वे एक सच्चे देशभक्त थे इसीलिए अपने अन्य समकालीनों के उलट विदेशी विचारों, संगठनों और उनकी देश विरोधी प्रेरणाओं से सदैव दूर रहे। उन्होंने कहा कि “मैं भारत से प्रेम करता हूँ।”

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उस दौर में तमाम विदेशी ताकतें सक्रिय थीं जो दलित, मुस्लिम का सवाल उठाकर भारत में विभाजन की विचारधारा को मिशनरी की आड़ में खड़ा करने में लगी थी। हिन्दू समाज से कड़वे अनुभवों के बावजूद विदेशी ताकतों के इन मंसूबों और पूर्वाग्रही दुष्प्रचार से वे सतर्क थे और अक्सर कहते थे कि वे इस देश से प्रेम करते हैं और वैश्विक छवि के मामले में वे कोई भी समझौता भारत की एकता, अखंडता, स्वाभिमान की कीमत पर नहीं कर सकते हैं। इस बात की प्रमाणिक पुष्टि 28 दिसम्बर 1940 को दादर, मुंबई से प्रकाशित उनकी पुस्तक “भारत का विभाजन” के अध्याय दस से की जा सकती है। कैथरीन मेयो ने अपनी पुस्तक में हिंदू धर्म की आलोचना की तो डॉ. अंबेडकर ने तत्काल इसका जोरदार प्रतिवाद किया। मेयों के अनुसार हिंदू धर्म में सामाजिक विषमता है और इस्लाम में भाईचारा। डॉ. अंबेडकर ने अपनी पुस्तक में  मेयो को करारा जबाव दिया। ‘सामाजिक प्रवाह हीनता’ नामक शीर्षक के इस अध्याय में बाबा साहब ने कहा कि कुमारी मेयो द्वारा प्रकाशित “मदर इंडिया” पुस्तक ने विश्व में यह प्रभाव भी छोड़ा है कि हिन्दू सामाजिक बुराइयों के कीचड़ में धंसे हुए हैं तथा अनुदार हैं। वहीं भारत के मुसलमान इससे दूर हैं, हिंदुओं की तुलना में उदार और प्रगतिशील हैं। बाबा साहब ने हिंदू धर्म का जोरदार बचाव करते हुये केथरीन मेयो को तथ्यों के आधार पर जवाब दिया है कि कैसे बाल विवाह, महिलाओं की पारिवारिक, सामाजिक स्थिति, तलाक, बहुपत्नी प्रथा, जातिप्रथा, पर्दाप्रथा, अंधविश्वास, धार्मिक क्रूरता के सवालों पर भारत का मुस्लिम समाज हिंदुओं की तुलना में जड़, अनुदार और कट्टरपंथी है। बाबा साहब ने स्पष्ट लिखा है हिंदुओं में सामाजिक बुराइयां हैं लेकिन ये अच्छी बात है कि उनमें उसे समझने वाले और दूर करने वाले संगठित लोग सक्रिय रहे हैं। जबकि मेयो के निष्कर्ष के विरूद्ध मुस्लिम तो यह मानने के लिए भी राजी नहीं हैं कि उनके समाज में कोई बुराइयां हैं भी। यदि उनकी प्रचलित मान्यताओं में परिवर्तन किया जाता है तो वे इसका कड़ा विरोध करते हैं। बाबा साहब के अनुसार मुसलमान सामाजिक सुधार के इतने सख्त विरोधी क्यों हैं ? इसका प्रचलित उत्तर यही दिया जा सकता है कि संपूर्ण विश्व में मुसलमान अप्रगतिशील है। उर्दू को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने की मांग को खारिज करते हुये बाबा साहब ने “सांप्रदायिक आक्रमण” शीर्षक के ग्यारवें अध्याय में लिखा है कि उर्दू संपूर्ण भारत में न तो बोली जाती है और न वह हिंदुस्तान के मुसलमानों की भाषा है। 68 लाख मुसलमानों में से सिर्फ 28 लाख ही उर्दू बोलते हैं।

 

डॉ. आंबेडकर की स्पष्ट राय थी कि कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण नीति हिंदुओं को भविष्य में उसी प्रकार की भयानक स्थिति में फंसा देगी जैसे कि मित्र राष्ट्र हिटलर को प्रसन्न करने के कारण फंस गए थे। बाबा साहब की तमाम अन्य पुस्तकें इस तरह के साफगोई भरे विचारों से भरी पड़ी हैं लेकिन देश के बुद्धिजीवी वर्ग जिसने दलित विमर्श और चिंतन की ठेकेदारी अपने नाम पर उठा रखी है, दुबारा कभी भी इन विचारों को सामने लाने की कोशिश नहीं की है क्योंकि अंबेडकर विचार से जुड़े अधिकतर बुद्धिजीवी एक तरह के पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं। ये वर्ग जानबूझकर उन्हें एक वर्ग विशेष का नेता ही बने रहने देना चाहता है। डॉ. अंबेडकर किसी भी विचार या सिद्धान्त को यथावत स्वीकार करने के पक्ष में नहीं रहते थे, उनका पक्ष उन्हें अपने समकालीन सभी अन्य नेताओं से विशिष्ट स्थान दिलाता है क्योंकि उनके विचारों में दोहरापन कभी नहीं रहा। वे कभी दिखावे की राजनीति में नहीं पड़े न लोकलुभावना घोषणाओं में यकीन रखते थे। डॉ. अंबेडकर की विरासत में से सिर्फ राजनीतिक पक्ष पर ही लोग अपना दावा ठोकते हैं उनके समग्र राष्ट्रीय चिंतन पर यदि देश आगे बढ़ता तो आज तस्वीर अलग ही होती।

 

यह भी स्पष्ट है कि जिस तरह गांधी विचार की हत्या कांग्रेस और उससे पोषित तबकों ने आचरण व्यवहार से की है कमोबेश यही स्थिति अंबेडकर विचार दर्शन के साथ उनकी ठेकेदारी उठाने वाले दलित नेता, बुद्धिजीवियों के साथ हैं। 

 

सच्चाई यह भी है कि जिस तरह केथरीन मेयो ने ब्रिटिश हुकूमत के इशारों पर तत्समय भारतीय समाज में विभाजन को स्थापित करने का प्रयास किया था, देश के सेक्यूलर, कम्यूनिस्ट भी ईसाई मिशनरी के हाथों खेल रहे हैं वे वही बातें राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर दोहराते हैं जो मिशनरी उन्हें देते हैं।

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कांचा इलैया, जॉन दयाल, सेड्रिक प्रकाश, अपूर्वानंद, जैसे तमाम बुद्धिजीवी और इनके संगठन ईसाई मिशनरीज के हाथों के खिलौने बने हुए हैं। और दलित विमर्श के नाम पर हिंदू धर्म, इतिहास और संस्कृति को कोसने में दिन-रात लगे हुए हैं। सवाल यह है कि आज यदि बाबा साहब जीवित होते तो क्या वे इन बुद्धिजीवियों के प्रलाप को स्वीकार करते ? कदापि नहीं क्योंकि उन्होंने धन, कूटनीति और दुष्प्रचार का भारत के संदर्भ में हमेशा डटकर विरोध किया। उन्होंने साफ कहा था कि भारत को बाहरी विचारधाराओं और मजहबों की आवश्यकता नहीं है इसीलिए ईसाइत और इस्लाम को अनुपयुक्त मानकर उन्होंने बौद्ध धर्म का रास्ता चुना था क्योंकि यह विवेक पर आधारित धर्म है। 15 फरवरी 1956 को अपने नागपुर भाषण में उन्होंने कहा था “भारत को बाहरी विचारधाराओं, मजहबों की कोई आवश्यकता नहीं है।” ईसाइयत और इस्लाम का संदर्भ लेते हुए वे कहते हैं कि वह बौद्ध धर्म इसलिए अपना रहे हैं क्योंकि वह “भेड़ चाल” पर नहीं वरन् विवेक पर आधारित है। अन्य धर्म जड़ विश्वासों, जैसे ‘एक ईश्वर-पुत्र’ ‘एक दूत-पैगम्बर’ तथा धरती, स्वर्ग, हवा, चांद बनाकर देने वाले एकमात्र सच्चे ईश्वर का दावा करते हैं। जबकि अंधे अनुयायियों का काम बस उसके गीत गाते रहे।

 

-डॉ. अजय खेमरिया

 

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