भारत के राष्ट्रपति, महान दार्शनिक, शिक्षाशास्त्री डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का दार्शनिक चिन्तन, जीवन मूल्यों को लोकजीवन में संचारित करने की दृष्टि एवं गिरते सांस्कृतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा का संकल्प कालजयी है जो युगों-युगों तक राष्ट्र एवं समाज का मार्गदर्शन करता रहेगा, उनका जन्म दिवस 5 सितम्बर पूरे देश में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन हमारे एक ऐसे ही प्रकाश-स्तंभ हैं, जिन्होंने अपनी बौद्धिकता, सूझबूझ, व्यापक सोच से भारतीय संस्कृति के संक्रमण दौर में संबल प्रदान किया। वे भारतीय संस्कृति के ज्ञानी, एक महान् शिक्षाविद, महान् दार्शनिक, महा-मनीषी अध्येता, समाज-सुधारक, राजनीतिक चिन्तक एवं भारत गणराज्य के राष्ट्रपति थे। वे समूचे विश्व को एक विद्यालय मानते थे। उनका मानना था कि शिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिष्क का सदुपयोग किया जा सकता है और यही आदर्श समाज संरचना का आधार है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति घोषित की गयी है, इसको लेकर देश में शिक्षा एवं शिक्षक पर व्यापक चर्चा आरंभ रही है। ऐसे समय में डॉ. राधाकृष्णन की शिक्षा विषयक चिन्तन एवं प्रेरणाओं को अपनाने की अपेक्षा है। क्योंकि डॉ. राधाकृष्णन ने अपने जीवन के 40 वर्ष एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किए थे। वह एक आदर्श शिक्षक थे। इस दिन समस्त देश में भारत सरकार द्वारा श्रेष्ठ शिक्षकों को पुरस्कार प्रदान किया जाता है। डॉ. राधाकृष्णन बहुआयामी प्रतिभा के धनी होने के साथ ही देश की संस्कृति को प्यार करने वाले व्यक्ति थे। सन् 1967 तक राष्ट्रपति के रूप में वे देश की सेवा करते रहे। एक बार विख्यात दार्शनिक प्लेटो ने कहा था- राजाओं को दार्शनिक होना चाहिए और दार्शनिकों को राजा। प्लेटो के इस कथन को 1962 में डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने तब सच कर दिखाया, जब वह भारत के दूसरे राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। इस प्रकार एक दार्शनिक ने राजा की हैसियत प्राप्त की। बर्टेड रसेल जो विश्व के जाने-माने दार्शनिक थे, वे डॉ. राधाकृष्णन के राष्ट्रपति बनने पर अपनी प्रतिक्रिया को रोक नहीं पाए। उन्होंने कहा था 'यह विश्व के दर्शन शास्त्र का सम्मान है कि महान भारतीय गणराज्य ने डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन को राष्ट्रपति के रूप में चुना और एक दार्शनिक होने के नाते मैं विशेषतः खुश हूं। यह विश्व के दर्शन शास्त्र का सम्मान है।'
डॉ. राधाकृष्णन का जन्म तमिलनाडु के तिरूतनी ग्राम में, जो मद्रास, अब चेन्नई से लगभग 64 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, 5 सितंबर 1888 को हुआ था। वे एक ब्राह्मण परिवार से संबंधित थे। वह बचपन से ही मेधावी थे। इन्होंने वीर सावरकर और स्वामी विवेकानन्द का गहन अध्ययन किया, दुनिया के विभिन्न धर्म एवं दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन किया। उन्होंने दर्शन शास्त्र में एमए किया और सन् 1916 में मद्रास रेजीडेंसी कॉलेज में दर्शनशास्त्र के सहायक प्राध्यापक नियुक्त हुए। उनको बचपन से ही पुस्तकों से प्रेम था। इस कारण तभी स्पष्ट हो गया था कि यह बालक बड़ा होकर विद्वत्ता एवं महानता का वरण अवश्य करेगा। यही हुआ, उन्होंने सत्यं, शिवं और सौन्दर्य की युगपत् उपासना की। उन्होंने अपने बौद्धिक कौशल से सम्पूर्ण भारत को धर्म एवं संस्कृति के अटूट बंधन में बांधकर विभिन्न मत-मतांतरों के माध्यम से सामंजस्य स्थापित किया। उन्होंने विज्ञान का अनादर नहीं किया, किन्तु उसके जो दोष हैं, उनकी उन्होंने भर्त्सना की। वे दर्शन को केवल मानसिक व्यायाम का साधन नहीं मानते थे। इसलिये उन्होंने जो कुछ लिखा, वह केवल बुद्धि की तुष्टि के लिये नहीं है, बल्कि उससे तात्कालिक समस्याओं का समाधान होता है, जीवन को गति मिलती है, मन को प्रेरणा एवं धार्मिक भावों को स्फूर्ति प्राप्त होती है।
हिन्दुत्ववादी विचारों को हेय दृष्टि से देखने वालों और उनकी आलोचना करने वालों की आलोचना को डॉ. राधाकृष्णन ने चुनौती की तरह लिया और हिन्दुवादिता का गहरा अध्ययन करना आरम्भ कर दिया। वे यह जानना चाहते थे कि वस्तुतः किस संस्कृति के विचारों में चेतनता है और किस संस्कृति के विचारों में जड़ता है। तब स्वाभाविक अंतर्प्रज्ञा द्वारा इस बात पर दृढ़ता से विश्वास करना आरम्भ कर दिया कि भारत के दूरस्थ स्थानों पर रहने वाले गरीब तथा अनपढ़ व्यक्ति भी प्राचीन सत्य को जानते थे। इस कारण उन्होंने तुलनात्मक रूप से यह जान लिया कि भारतीय अध्यात्म काफी समृद्ध है और क्रिश्चियन मिशनरियों द्वारा हिन्दुत्व की आलोचनाएं निराधार हैं। इससे इन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि भारतीय संस्कृति धर्म, ज्ञान और सत्य पर आधारित है जो प्राणी को जीवन का सच्चा संदेश देती है। भारतीय संस्कृति में सभी धर्मों का आदर करना सिखाया गया है और सभी धर्मों के लिए समता का भाव भी हिन्दू संस्कृति की विशिष्ट पहचान है। इस प्रकार उन्होंने भारतीय संस्कृति की विशिष्ट पहचान को समझा और उसके काफी नजदीक हो गए।
डॉ. राधाकृष्णन की महात्मा गांधी से प्रथम भेंट 1915 में हुई थी। उनके विचारों से प्रभावित होकर राधाकृष्णन ने राष्ट्रीय आन्दोलन के समर्थन में लेख भी लिखे। जुलाई, 1918 में मैसूर प्रवास के समय उनकी भेंट रवीन्द्रनाथ टैगोर से हुई। इस मुलाकात के बाद वह टैगोर से काफी अभिभूत हुए। उनके विचारों की अभिव्यक्ति हेतु डॉ. राधाकृष्णन ने 1918 में ‘रवीन्द्रनाथ टैगोर का दर्शन’ शीर्षक से एक पुस्तक लिखी। इसके बाद उन्होंने दूसरी पुस्तक ‘द रीन आफ रिलीजन इन कंटेंपॅररी फिलॉसफी’ लिखी। इस पुस्तक ने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दी। यह डॉ. राधाकृष्णन की ही प्रतिभा थी कि स्वतंत्रता के बाद इन्हें संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया। आजादी के बाद उनसे आग्रह किया गया कि वह मातृभूमि की सेवा के लिए विशिष्ट राजदूत के रूप में सोवियत संघ के साथ राजनयिक कार्यों की पूर्ति करें। इस प्रकार विजयलक्ष्मी पंडित का इन्हें नया उत्तराधिकारी चुना गया।
डॉ. राधाकृष्णन को स्टालिन से भेंट करने का दुर्लभ अवसर दो बार प्राप्त हुआ। जब वे विदा होने वाले थे, उस समय राधाकृष्णन ने स्टालिन के सिर और पीठ पर हाथ रखा। तब स्टालिन ने कहा था ‘तुम पहले व्यक्ति हो, जिसने मेरे साथ एक इंसान के रूप में व्यवहार किया है और मुझे अमानव अथवा दैत्य नहीं समझा है। तुम्हारे जाने से मैं दुःख का अनुभव कर रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि तुम दीर्घायु हो। मैं ज्यादा नहीं जीना चाहता हूँ। इस समय स्टालिन की आँखों में नमी थी। फिर छह माह बाद ही स्टालिन की मृत्यु हो गई। 1952 में सोवियत संघ से आने के बाद डॉ. राधाकृष्णन उपराष्ट्रपति निर्वाचित किए गए। संविधान के अंतर्गत उपराष्ट्रपति का नया पद सृजित किया गया था। नेहरू जी ने इस पद हेतु राधाकृष्णन का चयन करके पुनः लोगों को चौंका दिया। उन्हें आश्चर्य था कि इस पद के लिए कांग्रेस पार्टी के किसी राजनीतिज्ञ का चुनाव क्यों नहीं किया गया। डॉ. राधाकृष्णन ने अनेक महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। वे पेरिस में यूनेस्को नामक संस्था की कार्यसमिति के अध्यक्ष भी रहे। यह संस्था ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ का एक अंग है। राष्ट्रपति बनने के बाद राधाकृष्णन ने भी पूर्व राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की भाँति स्वैच्छिक आधार पर राष्ट्रपति के वेतन से कटौती कराई थी। उन्होंने घोषणा की कि सप्ताह में दो दिन कोई भी व्यक्ति उनसे बिना पूर्व अनुमति के मिल सकता है। इस प्रकार राष्ट्रपति भवन को उन्होंने सर्वहारा वर्ग के लिए खोल दिया। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद की तुलना में राधाकृष्णन का कार्यकाल काफी कठिनाइयों से भरा था। इनके कार्यकाल में जहाँ भारत-चीन युद्ध और भारत-पाकिस्तान युद्ध हुए, वहीं पर दो प्रधानमंत्रियों की पद पर रहते हुए मृत्यु भी हुई। उनके कार्यकाल में ही पंडित नेहरू और शास्त्रीजी की प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए मृत्यु हुई थी। लेकिन दोनों बार नये प्रधानमंत्री का चयन सुगमतापूर्वक किया गया। जबकि दोनों बार उत्तराधिकारी घोषित नहीं था और न ही संवैधानिक व्यवस्था में कोई निर्देश था कि ऐसी स्थिति में क्या किया जाना चाहिए। सचमुच उनका जीवन एक प्रेरणा है, एक रोशनी है, इस रोशनी को साथ रखते हुए आदर्श समाज रचना के संकल्प को सचेतन करने के लिये हम अग्रसर बने, नई शिक्षा नीति को उनकी प्रेरणाओं के आलोक में परिपूर्ण एवं भारतीयता के अनुरूप प्रतिष्ठापित करें, यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
-ललित गर्ग
(लेखक, पत्रकार, स्तंभकार)