By अनुराग गुप्ता | Jan 30, 2021
यूं तो किसान आंदोलन को अब राजनीति का अखाड़ा बनाने में लगे राजनैतिक पार्टियों की मंशा अब सबके सामने आने लगी है। पंजाब, हरियाणा के अलावा उत्तर प्रदेश के किसानों की तादाद अब दिल्ली की सीमाओं पर बढ़ने लगी है। हाल ही में जैसे भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत के आंसू टेलीविजन, सोशल मीडिया के माध्यम से पश्चिमी उत्तर प्रदेश पहुंचे ठीक वैसे ही एक बार फिर से किसान आंदोलन खड़ा हो गया।
आंसुओं की शक्ति को समझने के लिए चुनावों को समझना बहुत जरूरी है। बता दें कि उत्तर प्रदेश और पंजाब में 2022 में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और किसानों की आड़ में राजनीतिक दल अपनी-अपनी पार्टियों की छवि चमकाने की कोशिश कर रहे हैं। वापस राकेश टिकैत के मुद्दे पर लौटते हैं। किसानों की बात करने वाले राकेश टिकैत ने अपने पिता चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत से ही आंदोलन करना और राजनैतिक दलों को अपने साथ लेकर चलने का गुर सीखा है।
जब राजीव गांधी सरकार को झुकना पड़ा
राकेश टिकैत के पिता चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत ने साल 1988 में दिल्ली में किसानों के मुद्दे को लेकर डेरा डाला हुआ था। 33 साल पहले की कहानी मानो अब दोहरा रही है। लेकिन उस वक्त तत्कालीन राजीव गांधी सरकार को किसानों के मुद्दे पर झुकना पड़ा था। हालांकि मौजूदा परिदृश्य की बात की जाए तो सरकार ने किसानों के मुद्दों को सुलझाने के लिए 11 दौर की वार्ता की है और यह वार्ता बेनतीजा ही साबित हुई है। क्योंकि 40 किसान संगठनों की मांग रही है कि सरकार कृषि कानूनों को वापस लें और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) कानून बनाए।
किसानों की इन मांगों को सरकार ने मानने से स्पष्ट इनकार कर दिया है। हालांकि किसानों के समक्ष कानूनों के क्रियान्वयन को डेढ़ साल के लिए स्थगित करने का प्रस्ताव जरूर दिया था जिसे किसानों ने ठुकरा दिया।
सरकारी दबाव बढ़ने पर टिकैत ने छोड़ी थी नौकरी
पिता से किसानों के मुद्दों को उठाने का गुर सीखने वाले राकेश टिकैत अपने दम पर कई आंदोलन चला चुके हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक अस्सी के दशक में किसानों के मसीहा माने जाने वाले चौधरी चरण सिंह का स्वास्थ्य जब खराब चल रहा था तो किसानों के मुद्दों को कौन उठाए यह बड़ा सवाल बन चुका था। ऐसे में किसानों की आवाज को उठाने के लिए चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत ने 1986 में भारतीय किसान यूनियन का गठन किया और सरकार को किसानों के मुद्दे पर घेरना शुरू किया।
साल 1988 में चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत ने दिल्ली कूच की और राजीव गांधी सरकार को घेर लिया और उन्हें पूरे विपक्ष का समर्थन मिला। ऐसे में दिल्ली पुलिस की नौकरी कर रहे राकेश टिकैत पर दबाव भी बनाया जाने लगा कि वह पिता के आंदोलन को जल्द से जल्द समाप्त करवाएं। उस वक्त राकेश टिकैत को महसूस हुआ कि नौकरी के चक्कर में किसानों के मुद्दे को नहीं दबने दिया जा सकता है। ऐसे में उन्होंने नौकरी छोड़ दी और पिता के साथ मिलकर मोर्चा संभाल लिया।
मेरठ विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई करने वाले राकेश टिकैत को पिता की किसान राजनीति का उत्तराधिकारी भी समझा जाने लगा था और अब तो वह किसानों का मुख्य चेहरा बने हुए हैं। जिन्होंने रातो-रात आंदोलन का फिर से खड़ा कर दिया। हालांकि दो बार चुनाव लड़ने वाले राकेश टिकैत को सियासी पारी शुरू करने का मौका नहीं मिला।