कहते हैं, सफाई में लक्ष्मी का वास होता है, जबकि गन्दगी में दरिद्रता का। खास बात यह कि लक्ष्मी-दरिद्री सगी बहन हैं। एक-दूसरे के यहां बिन बुलाए पहुंच जाती हैं। शायद इसीलिए श्रीविष्णु संग लक्ष्मी की पूजा जहां स्थायी समृद्धि देती हैं, वहीं श्रीगणेश संग लक्ष्मी की पूजा कारोबारी विघ्नों का शमन करती है। लेकिन अकेले लक्ष्मी की पूजा कदापि नहीं की जाती, क्योंकि बहन दरिद्री भी आ धमकती हैं।
यह भूमिका इसलिए कि सियासी संकेत आप समझ जाइए और उसकी बात-जज्बात पर चिंतन कीजिये। बन सके तो अमल भी। क्योंकि संवैधानिक शासन में सनातन प्रवृत्ति को पिरोने की जो क्षमता मोदी सरकार में है, वह बाजपेयी सरकार में भी इतना सुनियोजित और सुपाच्य नहीं रही। कभी समाज सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी कहा था- वेदों की ओर लौटो। अब, संकेत स्वतः दृष्टिगोचर हो रहे हैं।
शायद उनसे भी प्रेरित होकर मोदी सरकार व्यवहारिक तौर पर उसकी पृष्ठभूमि तैयार करती प्रतीत हो रही है, क्योंकि राष्ट्र कल्याण-जनसेवा का भाव तभी सधेगा, जब बसुधैव कुटुम्बकम का भाव प्रबल होगा। सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास का मूल सत्ता मंत्र गढ़ने के पीछे भी व्यापक रणनीति है, सर्वे भवन्तु सुखिनः जैसा।
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क्या आपने कभी सोचा है कि भारतीय समृद्धि की चाहत रखने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रधान सेवक बनकर जब स्वच्छ भारत मिशन का बिगूल फूंका और स्वच्छ्ता अभियान की कमान जन-जन को थमा दी, तो इसके मूल में भी दीपावली की वह परम्परा निहित रही होगी, जिसके तहत किसी भी प्रकार की समृद्धि की कामना करने से पहले साफ-सफाई पर जोर दिए जाने की अटल परम्परा रही है। कूड़ा-कचरा और भ्रष्टाचार की एक साथ सफाई का मौलिक भाव भी कुछ ऐसा ही है।
यही वजह है कि इस बार जब पीएम मोदी की छठी दिवाली मन रही है और पहले से ज्यादा उनकी सरकार मजबूत हुई है जिसके पीछे भी वो ही हैं, तो सहसा मेरे मन में यह सवाल आया कि क्यों न उनकी राष्ट्रीय, आर्थिक व सियासी समृद्धि की एक पड़ताल कर ली जाए।
यह इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि मोदी टू से पहले पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़, और अब हरियाणा के बहाने मोदी मैजिक पर कतिपय सवाल खड़े किए जाने लगे हैं। बेशक आप बीजेपी से सवाल दर सवाल कीजिए, करना भी चाहिए, लेकिन जवाब 'कर्नाटक' खुद ब खुद दे चुका है कि विपक्ष की फितरत क्या और कैसी है? पश्चिम बंगाल से केरल तक की बानगी अपने आप में अनुत्तरित सवाल है जनहित के नजरिए से। इसे आप कांग्रेसी-क्षद्म कांग्रेसी-समाजवादी-वाममार्गी सियासी खिचड़ी की बदकिस्मती भी आंक सकते हैं।
निर्विवाद रूप से चहकता विपक्ष भारतीय गणराज्य की शोभा समझा जाता है, लेकिन उसके योग्य न वह पहले था, न अब है और न आगे रहने की संभावनाएं प्रतीत हो रही हैं। क्योंकि लोकतांत्रिक पूत के पांव तो सियासी पलना में ही दिखाई पड़ चुके हैं। जब ये सभी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सत्तागत टुकड़े के हिस्सेदार बन चुके हैं तो ऐसे विपक्ष से किसी नैतिक क्रांति, जनांदोलन की उम्मीद आखिर कौन कर सकता है।
कहना न होगा कि आजादी की लड़ाई, सम्पूर्ण क्रांति और अन्ना क्रांति से निकले नायकों ने आदर्श कम, विरोधाभास ज्यादा परोसे। जिससे यह समाजवादी-साम्यवादी गणतंत्र पूंजीवादी 'कोढ़' में तब्दील किया जा चुका है। उस पर खाज यह कि पारा-पारी सत्ता में आने की परंपरा से भारतीय नौकरशाही को उलटबांसी करने, करते रहने की जो सहूलियत मिली है, सेवक के बदले खुद को असली शासक समझने और सही-गलत सुविधा भोगते रहने की जो ललक जगी है, उसके बोझ तले दबे सवालों को जब कभी भी शह मिलेगा, तभी आम आदमी की बात संसद से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक गूंजने लगेगी, समवेत रूप से उसको प्रभावित कर पाएगी।
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शायद इसलिए भी कि हर क्षेत्र के सर्वोच्च जमात की पारस्परिक सांठगांठ से जिस कदर जनहित को रौंदा जा रहा है, वह समकालीन प्रबुद्ध समाज की सबसे बड़ी चुनौती है। लेकिन जातिगत, सम्प्रदायगत, वर्गगत और क्षेत्रगत सुरापान में मदहोश इस आरोपी-प्रत्यारोपी कुनबे की कुंभकर्णी निंद्रा कब टूटेगी, भीष्म प्रतीक्षा श्रेयस्कर रहेगा। क्योंकि राष्ट्रीय मन, संवैधानिक तन और जन-जन उनसे अधिक सत्ताकामी वाणों से विंधित है और सामंजस्यपूर्ण सत्ता के उत्तरायण काल की प्रतीक्षा कर रहा है अपनी लोकतांत्रिक मुक्ति के लिए, जनतांत्रिक सद्गति की आकांक्षा सहित।
सच कहूं तो मोदी काल में अर्जित आर्थिक और सियासी समृद्धि का उत्तर हां में भी है और ना में भी। वह इसलिए कि जहां एक ओर आर्थिक मंदी व उससे ओतप्रोत आंकड़े हमारी राष्ट्रीय समृद्धि को रह रह कर मुंह चिढ़ाते प्रतीत हो रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस मुक्त भारत के भाजपाई दिवास्वप्न के बीच कभी कभार जिस कदर से कांग्रेस मजबूत होकर उभर जाती है, वह बीजेपी की सियासी समृद्धि को आईना दिखाने को काफी है, बशर्ते कि वह इसके मर्म को समझे और अनर्गल थोथी दलील से बचे।
कहना न होगा कि हमलोग दीपावली के बहाने स्वच्छता की पर्याय समझी जाने वाली देवी लक्ष्मी का आवाहन करते हैं और दरिद्रता का परिचायक मानी जाने वाली गंदगी को अपने घरों से बाहर निकालते हैं। शायद संवैधानिक जीवन में पीएम मोदी भी कुछ ऐसा ही करने को प्रयत्नशील दिखते हैं।
लेकिन, आप यह जानकर चौंक जाएंगे कि जैसे इसी गंदगी यानी कूड़ा-कबाड़ी के कारोबार से आजकल बहुतेरे लोग धन्नासेठ बने बैठे हैं, भले ही उनमें से कुछेक लक्ष्मी के पुजारी भी न सही। किंतु, ऐसे लोग रुपए पैसे की साधना करने में बहुतों से आगे निकल चुके हैं। वैसे ही, देश की वैचारिक कबाड़ी की पर्याय समझी जाने वाली कांग्रेस की सफलता के मूल में भी कुछ यही भाव-तथ्य निहित है, जिससे डरने की जरूरत नहीं है। क्योंकि यह समाज कबाड़ी की सम्पदा नहीं, उसकी सोच को हिकारत भाव से देखने, देखते रहने का आदी है। कांग्रेस की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। ऐसा क्यों, इस बात का उत्तर वह मुझसे ज्यादा जानती-समझती है।
आजकल, महानगरों से लेकर छोटे-बड़े शहरों में तथाकथित समृद्ध तबके से प्राप्त कबाड़ की मरम्मत करके उसे मध्यमवर्गीय परिवारों को सस्ते में बेचने का बढ़ा प्रचलन भी एक कारोबारी रूप अख्तियार कर चुका है। कमोबेश वैचारिक क्षितिज पर कुकुरमुत्ते की तरह उग रही सियासी पार्टियों की भी यही स्थिति है, जिससे आम के आम और गुठली के दाम की अवधारणा ही परिपुष्ट हो रही है। राजनैतिक दलों को इतनी सहूलियतें प्राप्त हैं कि सारे धनपशु और शातिर अपराधी इसी सियासत की गोद में बैठकर इतराते-इठलाते फिरते हैं। यहां सत्ता पक्ष और विपक्ष में अद्भुत तालमेल है। स्थायी नौकरशाही भी इनका कुछ बिगाड़ना नहीं चाहती, क्योंकि इनकी समानांतर सत्ता और जनशोषन से उसे भी हानि कम, गुप्त लाभ अधिक है।
सच कहा जाए तो पीएम मोदी के स्वच्छ भारत मिशन में इन सभी बातों-जज्बातों का एजेंडा कहीं प्रत्यक्ष तो कहीं सांकेतिक रूप से शामिल है। यह स्वाभाविक है कि सम्पन्नता रूपी देवी लक्ष्मी (भारतीय सियासत) के शुभागमन की आहट से ही इन जैसों (संवैधानिक उलटबांसी करने-करवाने में सिद्धहस्त लोगों) की कारोबारी दरिद्रता दूर हो जाने की सुगबुगाहट पैदा हो जाती है।
अपने देश में आर्थिक मंदी सिर्फ इसलिए है, क्योंकि कहीं सुविचारित रणनीति का अभाव है तो कहीं बेल आउट पैकेज हड़पने की फितरत। देश वासियों को यह बात समझने-समझाने की जरूरत है कि नई आर्थिक नीतियों के बाद जब लाभ पर उनकी कम्पनी का हक है तो फिर किसी भी बड़ी हानि का बोझ आम करदाताओं पर क्यों डाला जाए। उत्पादन और उपभोग में जो असंतुलन दिखाई दे रहा है, उसके लिए जो जिम्मेदार लोग हैं, उनकी नकेल कसने वाले का अभाव भी आर्थिक मंदी के प्रसार में सहायक होता है। नई आर्थिक नीतियों के फायदे को यदि सभी जरूरतमंदों तक पहुंचाया गया होता तो आर्थिक सुस्ती नहीं आती। लेकिन निकम्मे व अदूरदर्शी प्रशासन की वजह से जो प्रशासनिक व बाजारू त्रासदी आमलोग झेलते हैं, उसकी जितनी निंदा की जाए वो कम है। यह ठीक है कि मोदी सरकार ने इन पर काबू पाने की अथक कोशिशें की हैं, लेकिन ब्रितानी कुसंस्कारों से संक्रमित नौकरशाही का इलाज कोई सियासी शख्सियत कर पाएगा, ऐसी संभावना कम है। स्वाभाविक है कि मंदी लाइलाज होगी ही।
बहरहाल, पीएम मोदी का स्वच्छता अभियान इनकी कितनी सफाई कर चुका है, यह शोध-संज्ञान का विषय है। इसलिए आर्थिक मंदी की वैश्विक छाया के बनावटी असर और सियासी समृद्धि के कृत्रिम परिवेश से कुछ आगे की सोच-समझ विकसित करके ही इनका सम्यक मूल्यांकन किया जा सकता है। इसलिये कुछ न कुछ करते रहिए, करवाते रहिये, सही-गलत का विचार मत कीजिये, क्योंकि यह देश अपना है, यह दुनिया अपनी है।
लिहाजा, राष्ट्रीय अलख जगाते रहिये। जिस दिन कीचड़ और कमल के बीच निर्मल जल की सतह आप भारतीय मतदाताओं जैसा बन जाएंगे, चहुंओर शीतलता पहुंचेगी। इस जलतरंग की अनुभूति ही सत्तागत तरंगों को साधेगी। भले ही सियासी सूर्य उदित-अस्त होते जाएं, लेकिन नीतिगत कालखंड हर दिन एक नया विस्तार पाएगा। जिस दिन सारी दुनिया सनातन आभामंडल में खुद को सुरक्षित महसूस करेंगी, भगवा क्रांति समवेत रूप में सफल हो जाएगी।
कमलेश पांडेय,
वरिष्ठ पत्रकार