By प्रभासाक्षी न्यूज नेटवर्क | Dec 23, 2019
उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू ने फ़िल्म जगत में रचनात्मकता का प्रदर्शन करने वाले श्रेष्ठ कलाकारों सहित विभिन्न लोगों को अलग-अलग श्रेणियों में सोमवार को 66वें राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों से नवाज़ा। इस अवसर पर सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने देश में अंतरराष्ट्रीय स्तर की फ़िल्मों के निर्माण को बढ़ावा देने के लिए फ़िल्म डिवीज़न द्वारा ‘रियल सिंगल विंडो’ शुरू किए जाने की घोषणा की। 66वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में नॉन फीचर फिल्म श्रेणी के अंतर्गत सर्वश्रेष्ठ आर्ट एण्ड कल्चर फिल्म का पुरस्कार 'बुनकर- द लास्ट ऑफ द वाराणसी वेवर्स' को दिया गया।
निर्देशक सत्यप्रकाश उपाध्याय की यह पहली फिल्म भारतीय बुनकरी की विशेषताओं, इतिहास और बुनकरों की समस्याओं पर केंद्रित है। सत्यप्रकाश उपाध्याय ने राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार को पूरी टीम के लिए गौरव का क्षण बताते हुए कहा कि इससे मेरा उत्साह बढ़ा है और सामाजिक विषयों को प्रमुखता के साथ उठाने की जिम्मेदारी भी बढ़ी है। निर्देशक सत्यप्रकाश उपाध्याय ने राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार ग्रहण करने के बाद प्रभासाक्षी को एक विशेष साक्षात्कार दिया। पेश हैं इस साक्षात्कार के मुख्य अंश-
प्रश्न-1 आपको कलात्मक फिल्म बनानी थी यह तो ठीक है लेकिन बुनकरी विषय को ही क्यों चुना ?
मैं बुनकरी कला क्षेत्र से अवगत था लेकिन विषय के चयन का जहाँ तक सवाल है तो इसका पूरा श्रेय फिल्म निर्माता को जाता है। शुरू में जब निर्माता ने मुझे संपर्क किया तो एक लघु फिल्म बनाने की योजना थी। लेकिन जब हमने इस विषय पर गहन अध्ययन किया तो ऐसा प्रतीत हुआ कि मात्र 5 मिनट की फिल्म में हम विषय के साथ न्याय नहीं कर सकते। यहीं से एक लंबी अवधि की डॉक्यूमेंट्री बनाने का विचार सामने आया। मेरा अपना भी मानना है कि भले बुनकरी विषय पर अब तक कई वृत्तचित्र या फिल्में अलग-अलग दृष्टिकोणों के साथ बनी हों लेकिन हमने जो कहानी दिखाई है वह विषय के साथ पूरा न्याय करती है।
प्रश्न-2 बुनकरी विधा या इस क्षेत्र की समस्याओं, विशेषताओं के बारे में आपको जो जानकारी थी, उससे फिल्म निर्माण के समय आपको क्या बड़ी मदद मिली या इस दौरान आपको इस क्षेत्र के क्या नये अनुभव हुए?
शुरुआत में मेरे पास जानकारी के लिए समाचार पत्र-पत्रिकाओं के लेख ही थे जिनसे मुझे मात्र यह पता चला कि किस तरह बुनकरी के क्षेत्र में काम नहीं होने और बुनकरों को उनकी कला का सही मूल्य नहीं मिलने की एकतरफा समस्या कायम है। इस समस्या के कारण ही बुनकर गरीबी के जाल से बाहर नहीं निकल पा रहे थे। आलेखों से मुझे यह भी ज्ञात हुआ कि बुनकरों की समस्याओं को सुलझाने की बजाय राजनीतिक पार्टियां आरोप-प्रत्यारोप में ज्यादा व्यस्त हैं और यह सारी समस्या इस क्षेत्र की अनदेखी से हुई है। मुझे लगा कि सारा दोष सरकारों पर मढ़ देना ठीक नहीं है। मेरा शोध जैसे-जैसे गहराता गया, नयी-नयी परतें खुलना शुरू हुईं। जब विषय का अध्ययन करते-करते मैं और गहराई में गया तथा बुनकरों से तथा इस उद्योग से जुड़े लोगों से मेरी सीधी बातचीत हुई तो मैं इस क्षेत्र को व्यापक और समग्र रूप से समझ पाया। ऐसे कई एनजीओ हैं, जो इस क्षेत्र में काफी लंबे समय से काम कर रहे हैं और इन एनजीओ से जुड़े कई लोग, जिन्होंने अपना पूरा जीवन बुनकरी क्षेत्र की समस्याओं को सुलझाने में लगा दिया, उनसे जब मैं मिला तो विषय के प्रति मेरी जानकारी और समृद्ध हुई। हालाँकि जहाँ तक फिल्म का सवाल है तो यह कोई मसाला मूवी या ब्लेम गेम ना होकर इस कला से जुड़े विभिन्न पहलुओं का वास्तविक एकत्रीकरण है। साथ ही फिल्म बुनकरी के इतिहास और बुनकरों के जीवन पर प्रकाश भी डालती है।
प्रश्न-3. भारत में कलात्मक फिल्में बनाना व्यवसायिक रूप से जोखिमपूर्ण क्यों माना जाता है?
मेरा मानना है कि कोई भी फिल्म बनाना जोखिमपूर्ण है। ईमानदारी, दृष्टिकोण और विषय का अध्ययन- यह तीन तत्त्व किसी भी अच्छी फिल्म के आधार स्तंभ हैं। अगर यह तीन स्तंभ मजबूत हैं तो फिर फर्क नहीं पड़ता कि आप किस श्रेणी की फिल्म बना रहे हैं।
प्रश्न-4. कलात्मक फिल्मों को अकसर विवादों का सामना क्यों करना पड़ता है? क्या विवादित सामग्री जानबूझकर रखी जाती है ताकि फिल्म को चर्चा में लाया जा सके?
यह मेरी पहली डॉक्यूमेंट्री फिल्म है और मैं इस विवाद में नहीं पड़ना चाहता कि किसने किस उद्देश्य से क्या किया। मैं अपनी बात कह सकता हूँ। जहाँ तक हमारा सवाल है तो मैं यह कह सकता हूँ कि हमने फिल्म निर्माण की जो प्रक्रिया अपनाई और जो हमारा अनुभव रहा, उसका एकमात्र उद्देश्य एक मानवता भरी कहानी और बुनकरों की समस्याओं को सामने लाने का था। हमारा उद्देश्य कहीं से भी इसे विवादित बनाने का नहीं था बल्कि हमने सच को सामने लाने का काम किया है। फिल्म के ट्रेलर ने जागरूकता लाने का काम किया लेकिन पूरी डॉक्यूमेंट्री फिल्म बुनकरी क्षेत्र की एक ईमानदार तसवीर थी। हम भी संवेदनशील लोग हैं और इन सच्चे लोगों, सच्ची कहानियों का उपयोग हम अपने फायदे के लिए नहीं कर सकते। हमारा एकमात्र उद्देश्य इन लोगों की कहानी को दुनिया के सामने लाना था ताकि इनकी आवाज को सुना जा सके। हम सिर्फ एक माध्यम बने ताकि जागरूकता लाकर बुनकरी क्षेत्र में बदलाव के लिए योगदान कर सकें।
प्रश्न-5. केंद्र सरकार या राज्य सरकारों को कला फिल्मों को और बढ़ावा देने के लिए क्या करना चाहिए?
मुझे लगता है कि सरकारों को फिल्मों के प्रदर्शन के लिए और जागरूकता लाने के लिए सशक्त मंच उपलब्ध कराने चाहिए। इसके जरिये दर्शक फिल्म और विषय के और नजदीक आ सकेंगे। प्रसार भारती को भी इस तरह की फिल्मों को बढ़ावा देना चाहिए। प्रसार भारती यदि अपने सैटेलाइट नेटवर्क के जरिये ऐसी फिल्मों का प्रसारण करे तो भारतीय बाजारों में कलात्मक फिल्मों की पैठ और बढ़ेगी। इससे निश्चित रूप से निर्माता-निर्देशकों को प्रोत्साहन मिलेगा जिससे दर्शकों तक ज्यादा संख्या में हमारी समृद्ध कला, संस्कृति और विरासत से संबंधित विषयों पर आधारित फिल्में पहुँच सकेंगी।
प्रश्न-6. व्यवसायिक सिनेमा की बात करें तो यह देखने में आ रहा है कि चाहे बात कथानक की हो या गीतों की, यह चलन चल पड़ा है कि किसी के पास नया कुछ नहीं है। पुरानी फिल्मों के रीमेक बन रहे हैं और पुराने गानों के रिमीक्स आ रहे हैं। क्या पटकथा लेखकों या गीतकारों की कमी है या सृजनात्मकता खत्म हो रही है?
फिल्में बनाना वाकई जोखिमपूर्ण काम है शायद इसीलिए कोई नये प्रयोग नहीं करना चाहता। हर कोई सुरक्षित तरीके से आगे बढ़ना चाहता है और उन्हीं फॉर्मूला को अपनाना चाहता है जोकि पूर्व में सफल हो चुके हैं। इस प्रक्रिया में लोगों को सफलता तो मिल रही है लेकिन एक बड़ी चीज जो प्रभावित हो रही है वह है मौलिकता। मैं मानता हूँ कि प्रतिभा की कमी नहीं है पर कभी-कभी लोगों को साहस दिखाने से नहीं चूकना चाहिए क्योंकि मेरा मानना है कि सफलता जरूर मिलेगी।
प्रश्न-7. आपकी पहली ही फिल्म इतनी सराही गयी, इसे विभिन्न मंचों पर पुरस्कार मिले यहाँ तक कि प्रतिष्ठित नेशनल फिल्म अवॉर्ड भी मिला, एक निर्देशक के रूप में आपका उत्साह इससे कितना बढ़ा और आगे को लेकर क्या योजनाएँ हैं?
मैं भाग्यशाली हूं कि मैंने जो कार्य किया उसे लोगों ने इतना सराहा। हमने जो वृत्तचित्र बनाया है वह अपने दृष्टिकोण और प्रस्तुतिकरण के लिहाज से सबसे अलग हट कर है। इस फिल्म को बनाने और इसे मिली सफलता के बाद मेरा जो अनुभव रहा उसके आधार पर मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि दर्शक अभिनव और प्रयोगधर्मी सिनेमा को समर्थन देने और उसका स्वागत करने के लिए तैयार हैं, बस विषय सामग्री के साथ पूरा न्याय होना चाहिए। हममें से बहुत से लोग प्रतिभावान हैं और कुछ अलग करने का हौसला रखते हैं। रहा सवाल मेरी योजनाओं का तो मैं पिछले कुछ वर्षों से एक फीचर फिल्म 'कूपमंडूक' पर काम कर रहा हूँ और यह निर्माण के लिए तैयार है। हम कुछ प्रोडक्शन हाउसों से भी इस फिल्म के निर्माण के संबंध में बात कर रहे हैं। इसके अलावा हम नैरेटिव पिक्चर्स नामक प्रोडक्शन हाउस के बैनर तले काम कर रहे हैं तथा कुछ और वृत्तचित्र बनाने के लिए विभिन्न विषयों पर हमारा शोध जारी है।
प्रश्न-8. क्या व्यवसायिक सिनेमा में भी हाथ आजमाना चाहेंगे?
मेरा नाता व्यावसायिक सिनेमा से ही रहा है और मैंने अपने कॅरियर की शुरुआत भी इसी क्षेत्र से की थी। यहाँ तक कि व्यवसायिक सिनेमा जगत की श्रेणी में ही मेरी 'कूपमंडूक' भी आती है, जिसे अब मूर्त रूप देने की मेरी इच्छा है। लेकिन वाणिज्यिक और गैर वाणिज्यिक क्षेत्र में काम को लेकर मेरे अपने कुछ सिद्धांत हैं। मैं वही फिल्में बनाना चाहता हूँ जो विषय के लिहाज से मेरे लिये महत्वपूर्ण हों और मुझे वह विषय आकर्षित करते हों। यह विषय सामाजिक रूप से भी ज्यादा महत्व के होने चाहिए। मैं ईमानदार और प्रभावकारी सिनेमा में विश्वास रखता हूँ और इसी पर आगे बढ़ना चाहता हूँ। ऐसा सिनेमा व्यवसायिक भी हो सकता है और कलात्मक भी।
प्रश्न-9. मन में ऐसे और कौन-से विषय हैं जिन पर आप सामाजिक फिल्में करना चाहते हैं?
शिक्षा और आज के युवाओं की शक्ति का कैसे राजनीति और राष्ट्र को मजबूत करने में सदुपयोग किया जा सकता है, इस विषय पर मैं काम करना चाहूँगा। मैं मानता हूँ ऐसा सिनेमा मेरे उद्देश्यों को आगे बढ़ाने में और लक्ष्यों को हासिल करने में सहायक सिद्ध होगा।
प्रश्न-10. युवाओं को क्या संदेश या टिप्स देना चाहेंगे जो फिल्मों में बतौर निर्देशक, कलाकार आदि अपना कॅरियर बनाना चाहते हैं?
फिल्म के तकनीकी पक्ष पर ही पूरा ध्यान मत केंद्रित कीजिये। आपको एक सशक्त कहानी की जरूरत है जो आप लोगों को बताना चाहते हैं। एक कला को सिर्फ एक संदेश की जरूरत होती है, अपनी कला को माध्यम बनाइये और समाज से अपनी बात कह दीजिये। इस क्षेत्र में आपका अनुभवी होना या नहीं होना मायने नहीं रखता है। आपका दृष्टिकोण और संदेश मायने रखता है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप किस कला को दर्शाना चाह रहे हैं, बस आप जो संदेश देना चाह रहे हैं उसे दर्शाने का तरीका प्रभावी होना चाहिए।