By आरएन तिवारी | Jul 15, 2022
सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥
प्रभासाक्षी के श्रद्धेय पाठकों ! आइए, भागवत-कथा ज्ञान-गंगा में गोता लगाकर सांसारिक आवा-गमन के चक्कर से मुक्ति पाएँ और इस मानव जीवन को सफल बनाएँ।
पिछले अंक में हमने पढ़ा कि जब ऋषि दुर्वासा स्नान ध्यान करके लौटे और जब उनको यह मालूम पड़ा कि राजा अंबरीश ने मुझे खिलाए बिना ही पारन (भोजन) कर लिया है, तब वे अत्यंत क्रोधित हुए, अपनी एक जटा उखाड़ी और भगवत भक्त अंबरीश जी को मारने के लिए प्रलय काल की अग्नि के समान दहकती हुई कृत्या उत्पन्न कर दी।
आइए ! आगे की कथा प्रसंग में चलते हैं---
यो मामतिथिमायातमातिथ्येन निमंत्र्य च
अदत्वा भुक्तवान् तस्य सद्यस्ते दर्शये फलम॥
मेरे जैसे अतिथि ब्राह्मण को निमंत्रित करके तूने पहले ही पारण यानी भोजन करके बैठ गया, ठहरो मैं तुम्हें अभी ही मजा चखाता हूँ। दुर्वासा ने क्रोध के वशीभूत होकर अपनी एक जटा उखाड़ी जिससे भयंकर कृत्या पैदा हो गई। अब वह राजा को खाने के लिए दौड़ी। राजा बिचारे हाथ जोड़कर खड़े हो गए। तब तक भगवता प्रदत्त सुदर्शन चक्र ने ललकारा, खबरदार यदि आगे बढ़ी तो और देखते ही देखते तत्काल कृत्या को जलाकर भस्म कर दिया। अब वह सुदर्शन चक्र दुर्वासा ऋषि के पीछे पड़ गया। सुदर्शन चक्र के प्रकोप से बचने के लिए वे भागने लगे। अब आगे-आगे दुर्वासा पीछे-पीछे सुदर्शनचक्र दुर्वासा जी भागते-भागते ब्रह्मा जी के पास पहुंचे। प्रभों ! मेरी रक्षा करो, किससे? सुदर्शनचक्र से, ब्रह्मा जी बोले-- भाग जल्दी भाग यहाँ से। अब क्या करें, दौड़ते भागते शिवजी के दरबार में पहुंचे। वहाँ गुहार लगाई, भोले बाबा ! रक्षा करो, किससे? सुदर्शनचक्र से, शंकर जी ने कहा- तमेव शरणम याहि अरे, जिसका सुदर्शन है उसी की शरण में जा। दुर्वासा जी आत्म रक्षा हेतु तीनों लोक में घूमते रहे किन्तु किसी ने भी शरण नहीं दी, आखिर, भगवान के भक्त का अहित चाहने वाले को कौन शरण देगा? अंत में दुर्वासा जी भगवान नारायण के चरणों में आकर गिरे और निवेदन किया- हे प्रभो ! यह सुदर्शन आपका ही अमोघ अस्त्र है और आप अनन्य ब्राह्मण भक्त हैं मुझ ब्राह्मण की आप ही रक्षा करें। भगवान ने कहा- मुझे भी स्वतंत्र मत समझो मैं भी पराधीन हूँ। होश उड़ गए दुर्वासाजी के आज नारायण कह रहे हैं- मैं भी पराधीन हूँ। आपके ऊपर किसका शासन चलता है प्रभो ? लेकिन भगवान अपना पारतंत्र्य स्वीकार करके कहते हैं। रामायण में तो नारद जी ने मुझ पर खूब आरोप लगाया।
परम स्वतंत्र न सिर पर कोई, भावहि मनहि करहूँ तुम्ह सोई ॥
परंतु भागवत में भगवान कहते हैं, ''नहीं-नहीं मैं स्वतंत्र नहीं हूँ।''
अहम भक्त पराधीनो हयस्वतंत्र इव द्विज:
साधुभिर्ग्रस्त हृदयो भक्तेर्भक्तजनप्रिय; ॥
दुर्वासाजी ! मैं अपने अंबरीश जैसे भक्तों के सर्वथा अधीन रहता हूँ। किस प्रकार- वशी कुर्वन्ति मां भक्त्या सत्स्त्रिय; सत्पतिम् यथा।
जैसे कि पति परायण स्त्री अपनी सेवा के बल पर अपने सदाचारी पति को वश में कर लेती है, वैसे ही इन भक्तों ने मेरे परायण होकर मुझको अपने वश में कर लिया है। जो अपना सर्वस्व त्यागकर मेरी शरण में आ गए उनको मैं कैसे छोड़ सकता हूँ?
ये दारा गार पुत्राप्तान प्राणान वित्तमिमपरम
हित्वा मां शरणं याता कथं तान् त्यक्तुमुत्सहे ॥
ये भक्त सब कुछ छोड़कर अपने हृदय में मुझको बांधकर रखते हैं, मैं इन्हें कैसे छोड़ दूँ? मैं भी इनको अपने हृदय में रखता हूँ। ये मेरे अतिरिक्त और किसी को नहीं जानते, तो मैं भी कहता हूँ दुर्वासा जी ! इनके अतिरिक्त मैं भी किसी को नहीं जानता हूँ।
साधवों हृदयो महयम् साधुनाम हृदयम् त्वहम्
मदन्यत् ते न जानन्ति नाहम् तेभ्यो मनागपि ॥
दुर्वासाजी कहते हैं, तो क्या आज भगवत शरणागति व्यर्थ जाएगी? नारायण की शरणागति से बढ़कर कोई शरणागति हो नहीं सकती और प्रभु आपने भी हाथ उठा दिया। यदि आप ऐसा करेगे तो आपकी शरणागति कलंकित हो जाएगी। प्रभु ने कहा— नहीं, नहीं मेरी शरणागति व्यर्थ कभी नहीं हो सकती।
उपायम कथइष्यामि। मेरी शरण में आए हो बचने का उपाय बता रहा हूँ। क्या है उपाय? जिसका अपराध करके आए हो उसी के पास चले जाओ। तब दुर्वासा जी को वापस मुड़ना पड़ा, तब तक एक वर्ष बीत चुका था। एक वर्ष के बाद दुर्वासा जी भागकर गए और अंबरीश के चरणों में गिर पड़े। अंबरीश ने उठाकर हृदय से लगा लिया। महाराज ! उल्टी गंगा न बहाइए। ये दास आपका अपराधी है मुझे क्षमा करें। दुर्वासा ने कहा- पहले इस सुदर्शनचक्र को शांत कर एक वर्ष से मुझे भगा रहा है। बाकी बात बाद में। अंबरीश ने सुदर्शनचक्र की स्तुति की, हे सुदर्शनचक्र ! हमारे कुल खनदान ने सदा ब्राह्मणों को इष्ट मानकर पूजा हो, तो तुम शांत हो जाओ। यदि हमारे हृदय में ब्राह्मणों के प्रति सच्ची निष्ठा हो तो तुम अपने ताप से इस ब्राह्मण को मुक्त कर दो। किन्तु सुदर्शन चक्र शांत नहीं हुआ। तब अंबरीश ने कहा-
हे सुदर्शन चक्र ! यदि मैंने सम्पूर्ण प्राणियों में नारायण के दर्शन किए हो तो आप कृपया शांत हो जाइए।
यदि नो भगवान प्रीत; एक; सर्व गुणाश्रय;
सर्वभूतात्मभावेन द्विजो भवतु विज्वर;॥
अंबरीश की शपथ भरी बात सुनकर सुदर्शन चक्र शांत हुए। तब जाकर दुर्वासा की सांस मे सांस आई। उन्होंने कान पकड़कर कहा- प्रभो ! आपके चरणाश्रित भक्त का प्रभाव मैंने देख लिया। और मन ही मन कहने लगे -----
भगत के वश में हैं भगवान --------
भक्त बिना वे कुछ भी नहीं हैं, भक्त हैं उनकी जान
भगत के वश में हैं भगवान --------
बोलिए भक्त वत्सल भगवान की जय -----
जय श्री कृष्ण -----
क्रमश: अगले अंक में --------------
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
- आरएन तिवारी