दिल वालों की दिल्ली को मानो किसी की नजर लग गई हो। नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ और समर्थन करने वालों के बीच झड़प के बाद दिल्ली का उत्तरी पूर्वी हिस्सा दंगों में तब्दील हो गया। इस दंगे में लगभग 42 लोगों की जानें ले लीं। इस दंगे ने ना तो किसी का धर्म देखा, ना उम्र देखी और ना ही मानवता की लाज ही रखी। दोनों ओर से बंदूके चली, पत्थरबाजी हुई और जमकर आगजनी भी की गई। इस दंगे ने एक पुलिस कांस्टेबल की मौत हो जाती है तो एक खुफिया विभाग के अधिकारी के लिए बर्बर हत्या की जाती है। वहीं शाहरुख नाम का एक शख्स सरेआम पुलिसवाले पर बंदूक तानता दिखाई देता है तो घर की छतों से पेट्रोल बम फेंके जाते हैं। निगम पार्षद का घर दंगे के लिए उपयोग में लाया जाता है तो भड़काऊ बयानों का भी समंदर देखने को मिलता है। इसके बाद राजनीति भी खूब हुई, पुलिस के लचीलेपन पर भी खूब सवाल उठे, गृह मंत्री अमित शाह के इस्तीफे की भी मांग की गई। उधर, केजरीवाल ने भी मुआवजे का ऐलान कर दिया। लेकिन जिंदगिया जो कल तक खिलखिला रही थीं, वह आज दफ्न हो चुकी हैं।
लेकिन इस दंगे की बिसात सिर्फ 1 दिन में नहीं लिखी गई बल्कि इसकी तैयारी कई दिनों से चल रही थी। सच्चाई यह है कि दिल्ली नागरिकता संशोधन अधिनियम के पारित होने के बाद से सांप्रदायिक हिंसा की चपेट में है। नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ एक वर्ग लगातार केंद्र की सरकार पर हमलावर था। उसके नासमझ और गुस्से को विपक्षी पार्टियों ने खूब भुनाया और उन्हें प्रदर्शन का अधिकार बताकर भड़काने का काम किया। दिसंबर महीने में ही दिल्ली में खूब प्रदर्शन हुए। सड़के जाम की गईं, कई जगह आगजनी की गई, दिल्ली के जामिया इलाके में तोड़फोड़ की गई, बसों में आग लगाई गई। विरोध प्रदर्शन का सबसे बड़ा कारण राजनीतिक रूप से यह था कि दिल्ली में चुनाव होने थे। नेता दिल्ली में चुनावी फायदे के लिए एक वर्ग को लगातार भड़काते रहे। आप के अमानतुल्लाह खान ने सीधे सीधे कहा कि हिंदुओं से आजादी चाहिए। सोनिया गांधी, औवैसी, दिग्विजय सिंह, मनीष सिसोदिया जैसे नेता इन प्रदर्शनों को जायज बताने में जुटे रहे। उस समय में भी सीलमपुर और गोकुलपुरी इलाके में जबर्दस्त प्रदर्शन की कोशिश भी हुई पत्थरबाजी भी हुई लेकिन उस वक्त इतनी भयंकर तबाही का मौका उन लोगों को नहीं मिल सका जो दिल्ली को जलाना चाहते थे। शाहीन बाग में प्रदर्शन लगातार जारी रहा। सड़कों को ब्लॉक कर दिया गया और दिल्ली नोएडा और फरीदाबाद की कनेक्टिविटी पूरी तरीके से ठप हो गई। अपने बेवकूफाना मांग पर कुछ लोग जिद्दी बने रहे और आम लोगों को दिक्कतें दी। क्योंकि सवाल एक कौम का था, सवाल वोट बैंक का था।
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जनवरी में भी दिल्ली के ऊपर प्रदर्शन के बादल छाए रहे। नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शन देशभर में हो रहे थे लेकिन इस का केंद्र दिल्ली का शाहीन बाग बन गया। साथ ही साथ शाहीन बाग चुनाव प्रचार का केंद्र भी बन गया। नेता अपने चुनाव प्रचार में शाहीन बाग का जिक्र जरूर करते थे। कुछ लोग शाहीन बाग में करंट दौड़ जाने की बाद करते थे तो कुछ लोग शाहीन बाग को हक की लड़ाई बताते थे। लेकिन शाहीन बाग में प्रदर्शन बढ़ता ही चला गया। सड़के जाम होती गई। सड़क बंद होने से आम लोगों को होनी वाली दिक्कतों की किसी को परवाह नहीं रही। मामला हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट पहुंचा लेकिन कुछ बदलता हुआ नहीं दिखा। शाहीन बाग वालों की हक की लड़ाई में दूसरे का हक लगातार छिनता चला गया। दिल्ली पुलिस और उपराज्यपाल ने भी लोगों से सड़क खाली करने की अपील की और उन्हें किसी दूसरी जगह अपनी मांग को लेकर प्रदर्शन करने की बात कही लेकिन वह अपनी जिद्द पर अड़े रहे। भाजपा नेताओं के कुछ बयान शाहीन बाग वालों के प्रति सहानुभूति रखने वालों के लिए संजीवनी साबित हुई। शाहीन बाग के साथ कुछ फिल्मी लोग और कुछ पत्रकार जो बुद्धिजीवी होने का दावा करते हैं लगातार खड़े रहे।
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फरवरी में भी शाहीन बाग एक बड़ा मुद्दा रहा। 2 फरवरी को शाहीन बाग में एक शख्स बंदूक लहराता दिखाई देता है। नाम कपिल गुर्जर और संबंध आम आदमी पार्टी से। दिल्ली में चुनाव प्रचार का आखरी चरण चल रहा था। एक बार फिर से शाहीन बाग बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन गया। शाहीन बाग को लेकर आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हुआ। कुछ लोग शाहीन बाग के साथ थे तो कुछ लोग खिलाफ। इसी दौरान एक बच्ची की मौत के होती है। बच्ची प्रदर्शन करने वाली महिला की बेटी थी। लेकिन कुछ लोग यह कह रहे थे कि जैसे चुनाव खत्म होगा शाहीन बाग खत्म हो जाएगा तो कुछ लोग यह कह रहे थे कि जब तक CAA वापस नहीं होता तब तक यह प्रदर्शन जारी रहेगा। कुछ लोग इसे राजनीतिक एजेंडा बता रहे थे तो वहीं तमाम राजनीतिक दलों ने इसका खूब इस्तेमाल किया। लेकिन इसी शाहीन बाग में लिखी जा रही थी दिल्ली को बर्बाद करने की साजिश। यहीं से हुई थी खिलाफत की शुरुआत। इसी दौरान शाहीन बाग का समर्थन करने वाले शरजील इमाम का भी बयान आया जिसने चिकन नेक काटने की बात की थी, जिसने भारत को तोड़ने की बात की थी।
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फरवरी का आखिरी सप्ताह खिलाफत लिखने वाले षड्यंत्रकारियों के षड्यंत्र की सफलता का सप्ताह माना जा सकता है। जब देश में विश्व के सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का स्वागत का समारोह चल रहा था तभी दिल्ली को जलाने की साजिश हो रही थी। अहमदाबाद हवाई अड्डे पर ट्रंप के प्लेन को लैंड करने से पहले ही रविवार की रात कुछ महिलाओं ने जाफराबाद मेट्रो स्टेशन के नीचे आकर सड़क जाम कर दी। वहीं दूसरी ओर सीएए का समर्थन करने वालों ने भी सड़क पर उतरने का फैसला किया। यहीं से शुरू होती है दिल्ली की उस आग की कहानी जिसकी लपेटों में 42 जिंदगानी खत्म हो चुकी हैं। जब अहमदाबाद में डोनाल्ड ट्रंप की शानदार आगवानी की जा रही थी। ठीक उसी समय दिल्ली को दहलाया जा रहा था। रविवार की रात में शुरू हुआ यह घटनाक्रम बुधवार सुबह तक जारी रहता है। मंगलवार शाम की ट्रंप रवानगी के साथ ही खिलाफत की आग से शांति का धुआ उठने लगता है।
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अब सवाल यह उठता है कि आखिर ऐसे समय में देश की राजधानी दिल्ली को जलाने की साजिश क्यों की गई जब पूरे विश्व की नजर हिंदुस्तान पर थी। इसका जवाब है देश की छवि खराब करने के लिए, देश की उभरते ताकत को कम करने के लिए, सरकार की छवि खराब करने के लिए और सबसे बड़ी बात विश्व को यह दिखाने के लिए कि भाजपा की सरकार भारत में मुस्लिमों पर अत्याचार कर रही है। लेकिन एक सवाल यह भी उठता है कि जिस गंगा-जमुनी तहजीब और तमीज की बार-बार कहानी बताई जाती है उसे किसने खत्म किया। दंगों को किसने भड़काया, किसने दिल्ली के दिल में आग लगाए। सवाल तो जरूर उठेगा कि इन दंगाइयों को किस का संरक्षण हासिल था, जब दंगाई अपने साजिशों को अंजाम दे रहे थे तो प्रशासन और पुलिस कहां थी और अब तक जितनी FIR दर्ज हुई हैं या जिन दंगाइयों के खिलाफ सबूत मिलने शुरू हो गए हैं उन्हें सलाखों के पीछे कब भेजा जाएगा। लेकिन इतना तो साफ है कि यह सिर्फ देश के उन स्वार्थी राजनेताओं की ही साजिश नहीं है बल्कि यह साजिश देश के बाहर के लोगों की भी है जो हमारे हिंद की एकता और अखंडता को तोड़ना चाहते हैं।