कभी कभी मैं सोचता हूँ कि लक्ष्मी-गणेश की पूजा हम भारतीय लोग करते हैं, लेकिन हमसे ज्यादा समृद्धि ईसाई और इस्लामिक मुल्कों में दिखाई पड़ती है। आखिर इसके पीछे क्या प्राकृतिक रहस्य/राज छिपा हुआ है, तभी मुझे स्मरण हो आता है कि हमारे पास अष्ट समृद्धि (अष्ट लक्ष्मी के पूजन से प्राप्त) है जबकि उनके पास सिर्फ आर्थिक वो भी महज मौद्रिक! दरअसल, सनातनी वैदिक मूल्यों, जिसके उदारमना उद्देश्य से जनसाधारण में कर्मकांड यानी पूजापाठ को बढ़ावा दिया जाता है, का लक्ष्य ही है नागरिक जीवन में सुचिता पैदा करना, वसुधैव कुटुंबकम का भाव भरना और सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे भवन्तु निरामया की मंगलकामना करना। इस हेतु शानदार दिनचर्या सुनिश्चित करना ताकि इंसान निरोग रह सके। जब ऐसा होगा तभी वह शेष दुनियादारी के काम आएगा।
वेद मर्मज्ञ विद्वानों द्वारा कहा जाता है कि यदि भगवान गणेश की पूजा न कर सको तो विवेकसम्म्मत कार्य किया करो। भगवान विष्णु की पूजा न कर पाओ तो अपने हृदय को विशाल बनाओ। भगवान सूर्य की पूजा न कर पाओ तो दिनदहाड़े यानी सबके संज्ञान में रहने वाला/आने वाला कार्य बेझिझक किया करो। भगवती दुर्गा की पूजा न कर पाओ तो सबमें श्रद्धा रखो। भगवान शिव की पूजा न कर सको तो कल्याणकारी कार्य करो। भगवान ब्रह्मा की पूजा हमेशा नहीं की जाती है, लेकिन सृष्टिबर्द्धक कार्यों में अपना योगदान देते रहो। भगवान कुबेर की पूजा न कर पाओ तो धन संचय की भावना रखो और सद्कार्यों में अपना योगदान देते रहो।
इसी प्रकार, यदि माता सरस्वती की पूजा न कर पाओ तो लोगों के लिए हुनरमंद कार्य करते-करवाते रहो। माता लक्ष्मी की पूजा न कर सको तो सेवा और संचय की भावना जगत कल्याण हेतु रखो। महाकाली की पूजा न कर पाओ तो वीरोचित कार्य किया करो। कहने का तातपर्य यह कि पूजा-पाठ और उपवास से आपके जीवन में वही भावना प्रबल होती है, जिनकी चर्चा ऊपर में मैंने की है। यह दिव्य भाव ही हरि अनंत, हरि कथा अनंता की उक्ति को चरितार्थ करता है। सभी 33 कोटि देवता में ऐसे ही मूलभूत गुण अंतर्निहित हैं, जो उनकी पूजा, मंत्रजप आदि से जागृत होते हैं। इसकी विशद चर्चा फिर कभी करूँगा।
बस इतना समझ लीजिए कि समस्त प्रारब्ध के मूल में यही पवित्र भावना है, जिसका सम्यक फल भगवान शनिदेव देते हैं, राहू और केतु के सहयोग से। सूर्य से निकली ऊष्मा और उस पर आधारित रंग रहस्य से महिमा मंडित ग्रहों के फलाफल का मूल भी यही है। ज्योतिष को वेदों की आंख कहा जाता है, जो व्यापक समय विज्ञान है। इसमें आगे-पीछे के संकेत सूत्र बद्ध हैं, लेकिन उसे समझने-समझाने वाली अंतर्दृष्टि अब भोगी साधकों के पास न्यून हो चली है! इस स्थिति को बदलने के लिए सबको संकल्प बद्ध होना पड़ेगा।
एक बार सृष्टि के रचयिता भगवान ब्रह्मा, पालक भगवान विष्णु और संहारकर्ता भगवान शिव अपनी-अपनी अधिष्ठात्री देवियों क्रमशः सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती के साथ जगत कल्याण के निमित्त इस दुनिया की प्रवृत्ति पर विचार कर रहे थे और इसको और अधिक स्वर्गिक बनाने के लिए विचार-विमर्श कर रहे थे, तभी यह बात क्षणकर सामने आई कि जन्म और मृत्यु को शाश्वत सत्य रहने दिया जाए और हिंसा भाव को प्राकृतिक, ताकि दुनिया की आबादी नियंत्रित रहे। इसी उद्देश्य से हिंसक और अहिंसक प्राणियों की रचना हुई। लेकिन इस गुण से मनुष्यों को बचने की सीख दी गई, जिसका अनुपालन संभव नहीं हो सका। फलतः सुर-असुर संग्राम की जो परम्परा बन चली, वह अब विश्व युद्ध जैसे विराट रूप में पूरी मानवता के सम्मुख समुपस्थित है।
लोकतंत्र और प्रशासनिक संगठन भी देश-दुनिया को वह शांति भाव नहीं दे सका, जिसकी परिकल्पना हमारे सनातन ग्रंथों में की गई है। इसकी सततता के लिए ही पर्व-त्यौहार बनाये गए और सामाजिक कर्तव्यों का निर्धारण हुआ, जिसका विस्तार हमलोग राष्ट्र-राज्य के रूप में देख रहे हैं। कई अर्थों में संसार के सम्यक संचालन के लिए दीपावली सबसे बड़ा त्यौहार है। हमारे ऋषि आशीर्वाद स्वरूप भी कहते हैं कि तुम्हारे घर में हर रोज दिवाली हो।
ऐसा इसलिए कि संसाधनों की सार्वत्रिक सुलभता का नाम व्यापार है और यह पर्व उसी का सबसे बड़ा उत्सव है। इसमें लक्ष्मी, गणेश और कुबेर की उपासना का मतलब है कि कारोबार विवेक सम्मत हो, उसमें सबके हानि लाभ का विचार रखा जाए। इसके प्रतिबिंब ही भगवान गणेश हैं। वहीं पूरी मानवता की सेवा करने और इस हेतु धन-संपदा का सदुपयोग करने की शिक्षा देने और सब कार्यों में सौंदर्य बोध करते रहने की प्रेरणा माता लक्ष्मी देती हैं। उनकी पूजा के साथ भगवान विष्णु की आराधना अनिवार्य है, जो हृदय को विशाल बनाये रखने की सद्प्रेरणा देते हैं।
वहीं भगवान कुबेर को देवताओं का कोषाध्यक्ष कहा गया है, जिनकी पूजा से धनसंग्रह की प्रेरणा हमें मिलती है। यह दुनिया अर्थ प्रधान है। उसके बिना को सत्कार्य संपादित नहीं हो सकता। इसलिए सच्चे मार्ग से धनसंग्रह होता रहे और जनकल्याण में उसका सदुपयोग होता रहे, इसलिए भगवान कुबेर की भी पूजा की जाती है। प्रकाश पर्व दीपावली स्चच्छता का भी संदेश देती है। मोदी सरकार ने योजनात्मक रूप से इस क्षेत्र को व्यापक विस्तार दिया है। यह पर्व समान रूप से संसाधनों के बंटवारे की भी प्रेरणा देता है। इसी उद्देश्य से तरह तरह के उपहार वितरण की परंपरा निभाई जाती है। प्रकाश और ऊर्जा के सदुपयोग का पर्व भी है दीपावली। यह अंतस ऊर्जा और बाह्य ऊर्जा के बीच समन्वय को प्रेरित करती है। इससे भी पारस्परिक मिलनसारिता को बढ़ावा मिलता है।
भारत में रक्षाबंधन को ब्राह्मणों (नाना विध विद्या के जानकारों) का, दुर्गा पूजा को क्षत्रियों (जनसुरक्षा कार्य के प्रति समर्पित समूहों), दीपावली को वैश्यों (दुनियावी संसाधनों को समान रूप सर्वत्र उपलब्ध करवाने वाला समूह) और होली को शूद्रों (हर प्रकार से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वृति में लगे लोगों के साथ देते रहने वाला समूह) का त्यौहार कहा जाता है। इस नजरिए से भी दीपावली सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि बिना संसाधन के ब्राह्मणों, क्षत्रियों और शूद्रों कार्य भी असंभव हैं। इसलिए हमें दीपावली पर संकल्प लेना चाहिए कि मिलावटी और घटिया सामग्री का विरोध किया जाएगा, क्योंकि इससे हमारा तनमन रुग्ण होता है। समकालीन लोकतांत्रिक प्रशासन अपनी भ्रष्ट प्रवृति के चलते मिलावटी व घटिया सामानों की आपूर्ति पर रोक नहीं लगा पा रहा है। दीपावली में शुभ लाभ और रिद्धि-सिद्धि की पूजा होती है, जिसका आशय यह है कि जो दुनिया के लिए शुभ होगा, उसी से लाभ संभव है, अन्यथा हानि तय। वहीं रिद्धि-सिद्धि का मतलब हर तरह की बढोत्तरी से है, जिसके लिए कार्य सिद्ध, लक्ष्य सिद्ध होना अपरिहार्य है।
आपने महसूस किया होगा कि गांवों में, शहरों में जो समान बनते हैं, उसे एक दूसरे तक पहुंचाने में व्यापारी वर्ग का बहुत बड़ा योगदान होता है। वह हर प्रकार के रिस्क लेते हुए, क्षति सहते हुए भी इस कार्य में लगा रहता है। पहले राजा और अब नेता-नौकरशाही के शोषण-दोहन का शिकार भी यही वर्ग होता है। फिर भी अपने मूलभूत नैसर्गिक गुणों के चलते समाज का धनाड्य वर्ग भी यही है। सनातन मूल्यों का रक्षक और सेवक वर्ग भी यही है। स्कूल-अस्पताल और धर्मशाला का संरक्षक वर्ग भी यही है, जिसे अब कारोबारी स्वरूप मिल चुका है। इसलिए दीपावली हमें विवेकसम्म्मत तरीके से समाजसेवा हेतु अभिप्रेरित करती है, ताकि मिलनसारिता भाव में बढ़ोतरी हो। समस्त शांति के मूल में यही भाव सर्वश्रेष्ठ है। इसलिए शुभ दीपावली कहने की परंपरा है, जहां शुभ ही शुभ की कामना सर्वोपरि है।
कालांतर में दीपावली को विभिन्न सनातनी घटनाओं से जोड़ा गया, ताकि दीप से बनीं दीपमालिकाओं का समग्र विस्तार हो। जब तक राम और रावण (सुर-असुर की प्रवृत्ति के प्रतीकमात्र) हैं, तबतक दीपावली की महिमा और उपयोगिता दोनों बनी रहेगी। इसलिए उत्सवधर्मी बने रहे, जीवन उल्लसित, आनंदित, सुखमय बना रहेगा। बस, अपने सगे-सम्बन्धियों, हित-मित्रों का ख्याल रखिए। इन्हीं का विराट विस्तार यह दुनिया है। जिसका हित भारत चाहता है, भारतवासी चाहते हैं, इसलिए संकल्प लीजिये कि हमें वह हालात पैदा करने हैं जब पूरी दुनिया में दिवाली मनेगी और संत्रस्त मानवता जगमग करेगी।
- कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक