संसद की कार्य उत्पादकता का लगातार कम होना संसदीय प्रणाली को विफल कराने की साजिश है

By नीरज कुमार दुबे | Dec 21, 2024

संसद का शीतकालीन सत्र सत्ता पक्ष और विपक्ष द्वारा एक दूसरे को अपनी अपनी ताकत दिखाने के बाद अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया। अडाणी मुद्दे को लेकर हंगामे के साथ शुरू हुआ संसद का सत्र अम्बेडकर मुद्दे पर हंगामे के साथ खत्म हुआ। सत्र के दौरान संविधान पर चर्चा जरूर हुई लेकिन संसदीय व्यवधान का नया रिकॉर्ड भी बना दिया गया। 20 दिनों के इस सत्र के रिपोर्ट कार्ड की बात करें तो आपको बता दें कि लोकसभा में कामकाज की उत्पादकता 57.87 प्रतिशत रही। लोकसभा इन 20 दिनों में चार विधेयक ही पारित कर पाई। राज्यसभा में तो 40.03 प्रतिशत ही कामकाज हो सका और पूरे सत्र में कुल दो विधेयक पारित हुए।


बात सिर्फ विपक्ष के हंगामे की वजह से होने वाले व्यवधान की नहीं है, सरकार भी तब शर्मसार हो गयी जब एक देश एक चुनाव जैसा महत्वपूर्ण विधेयक पेश किये जाते समय मत विभाजन के दौरान सत्ता पक्ष के ही दो दर्जन सांसद अनुपस्थित थे। क्या ऐसे ही चलेगा हमारा संसदीय लोकतंत्र? क्या इसीलिए छह महीने पहले देश की 140 करोड़ जनता ने 543 प्रतिनिधियों को निर्वाचित करके भेजा था? हम 2047 तक भारत को विकसित बनाने की बात कर रहे हैं लेकिन संसद का महत्वपूर्ण समय और देश का कीमती धन बर्बाद कर रहे हैं? संसद के सत्र के दौरान भले सत्ता पक्ष और विपक्ष के अपने अपने राजनीतिक हित सध गये हों लेकिन देश की जनता का और संसद की छवि को तो नुकसान हो गया है। आखिर कैसे होगी इसकी भरपाई?

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देखा जाये तो वर्तमान संसद का पहला सत्र भी हंगामेदार रहा था। इससे पिछली लोकसभा के भी लगभग सभी सत्र हंगामेदार रहे थे। पिछले कुछ सत्रों की कार्य उत्पादकता पर गौर करें तो जो आंकड़े सामने आते हैं वह चिंताजनक स्थिति को दर्शाते हैं। सत्र की कार्य उत्पादकता का 45%, 35 प्रतिशत और 24 प्रतिशत के आसपास रहने से हमारी संसदीय प्रणाली पर गंभीर सवाल खड़े होते हो रहे हैं। सदन में जो कामकाज होता है वो भी हंगामे के बीच होता है यानि शोरशराबे के बीच क्या नए कानून बन गए यह देश को पता ही नहीं चल पाता। 


साथ ही संसद के कामकाज का प्रतिशत लगातार कम होते जाने से एक सवाल और खड़ा होता है कि कौन हैं वो लोग जो हमारी संसद को विफल दर्शाना चाहते हैं? कहीं हमारी संसदीय प्रणाली को विफल कराने के लिए कोई साजिश तो नहीं की जा रही है? विपक्ष लोकतंत्र बचाओ और संविधान बचाओ का आह्वान तो कर रहा है लेकिन लोकतांत्रिक प्रणाली वाले देश भारत में जनता के जनादेश पर निर्णय लेने वाला जो सर्वोच्च सदन है उसको चलने नहीं देता। देखा जाये तो अब बात सिर्फ संसद के कीमती समय, देश की उम्मीदों और सरकारी खजाने से धन की बर्बादी की ही नहीं है, बात अब यह भी है कि यदि संसद में भी जनता की आवाज नहीं सुनी जायेगी तो कहां सुनी जायेगी? वक्त आ गया है कि संसद में सदन के संचालन संबंधी नियमों को कठोर बनाया जाये? वक्त आ गया है कि सदन की कार्यवाही में बाधा डालने वाले सदस्यों के खिलाफ सख्त कदम उठाये जायें? 


बहरहाल, पिछले वर्ष संसदीय व्यवधान पर ‘पीड़ा’ व्यक्त करते हुए उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने ‘लोकतंत्र के मंदिर’ में ऐसे आचरण के विरुद्ध माहौल और जनमत तैयार करने के लिए जनांदोलन चलाने का जो आह्वान किया था वह आज के समय की सबसे बड़ी जरूरत है। संसद के कामकाज में लगातार व्यवधानों के चलते कीमती समय तो बर्बाद होता ही है साथ ही महत्वपूर्ण मुद्दों पर जवाब देने से सरकार को भी बचने का अवसर मिल जाता है। इसलिए उपराष्ट्रपति की ओर से किये गये आह्वान से देश की जनता को जुड़ना चाहिए और जनप्रतिनिधियों को यह अहसास कराना चाहिए कि सदन चर्चा के लिए बने हैं ना कि हंगामे और अपने राजनीतिक हित साधने के लिए।

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