सही और गलत के मध्य बारीक धागे सा अंतर होता है लेकिन एक सही निर्णय राष्ट्र का निर्माण तो उसी गलत फैसला उस देश के लोगों को सदियों तक सजा देता है।
ग़ज़नवी हज़ार मील से भारत आया, सोमनाथ तोड़कर हज़ारों को गुलाम बनाकर हमारी धरती से ले गया- सही निर्णय होता कि सब भेद स्वार्थ भूलकर उसको रोकते, ख़त्म कर देते। ऐसा नहीं हुआ, शताब्दियों तक भारत को दुःख और दासता झेलनी पडी।
पानीपत में एक निर्णय गलत हुआ- आपसी समझ और भोजन की जिम्मेदारी के अहंकार ने जीती बाजी हरवा दी।
1947 में सत्ताकामी नेताओं की महत्वाकांक्षाओं ने विभाजन का गलत निर्णय लिया, दस लाख हिन्दू सिखों का नरसंहार हुआ, उसके बाद आज तक हम युद्ध की निरंतर विभीषिका झेल रहें हैं।
पटेल की जगह नेहरू को प्रथम प्रधानमंत्री बनाने का गलत निर्णय हुआ, देश ने तुरंत एक लाख पचीस हज़ार वर्ग किलोमीटर भूमि के हाथों खोयी, अंतरराष्ट्रीय सीमाओं पर सेना के स्थान पर केंद्रीय आरक्षी पुलिस की गश्ते लगवाईं। अक्साई चीन खोया। आज उसका दंश और निरंतर युद्ध हम झेल रहे हैं।
चुनाव भी केवल कुछ जाने अनजाने, अच्छे या कम अच्छे लोगों को लोकसभा भेजने का उपक्रम नहीं- यह राष्ट्र रक्षा के निमित्त युद्ध ही होता है जिसमें शताब्दियों भविष्य दांव पर लगा होता है। सही शासक राष्ट्र का नवीन निर्माण करते हैं- यदि विदेशी धन और मन वाले क्षुद्र विवेकी गए तो अच्छा खासा साम्राज्य ढहते देर नहीं लगती।
देश रक्षा के निर्णायक क्षणों में भी बहुत से लोग कहते देखे गए- मोदी तो ठीक है लेकिन जिनको टिकट दिया गया उनमें बहुत से निकम्मे और संवेदनहीन हैं, या सारे कांग्रेसी भर दिए- अब हम किसको पहचाने? वे भूल जाते हैं की युद्ध के समय सेनापति के निर्णय पर बहस नहीं हो सकती- सिर्फ सेनापति को देखो, हर सैनिक में सेनापति की छवि देखो, देश विजयी बनाने के लिए कटिबद्ध होकर जूझो और विजयी होकर निकलो- बस यही एक लक्ष्य होता है।
ग़ज़नवी और गोरी हमारे अपने उन पूर्वजों की कमजोरियों और इन्ही स्वार्थों के कारण आए और हमें लूट गए जो कहते थे, हमारा क्या, हम अपनी जमींदारी, अपने हित संभाल रहे हैं। मुट्ठी भर अंग्रेज तीस करोड़ भारतीयों पर ढाई सौ वर्ष राज कर गए- इन्ही स्वार्थी कूप मंडूक भारतीयों की सहायता से। इन्हीं भारतीयों ने अपने ही भारतीयों पर विदेशी शासकों के आदेश से जलियांवाला में गोलियां चलाईं और सावरकर जैसे हज़ारों क्रांतिकारियों पर अत्याचार किये। भगत सिंह, राजगुरु सुखदेव को फांसी देने के फैसले पर पाखंडी मुहर लगाने के लिए लाहौर के अंग्रेज जज को स्थानीय गवाहियां चाहिए थीं- तीन सौ सिख मुस्लिम और सनातनी हिन्दुओं ने गवाहियां दीं- वे सब भारतीय थे। उनके नाम राष्ट्रीय अभिलेखागार में फाइलों में हैं। सिर्फ राय साहबियत, राय बहादुरी खिताब लेने, साउथ नार्थ ब्लॉक बनाने की ठेकेदारी लेने हमने अपने देश के खिलाफ खड़े होने में लज्जा महसूस नहीं की। मुझे क्या मिलेगा? इसी प्रश्न पर हम देश की सदियों को ग़ुलामी और विनाश के अँधेरे में झोंक देने में संकोच नहीं करते।
देश सिर्फ पानी बिजली और सडकों से नहीं बनता। राष्ट्र की आत्मा और चैतन्य होता है। उस चैतन्य को जागृत होते हम देख रहें हैं तो विदेशी शक्तियां बौखला गयीं हैं। हर कीमत पर वे इस चैतन्य यात्रा को रोकना चाहते हैं- स्वार्थी विकृत सोच के भारतीयों की ही मदद से।
पराक्रमी और विजय की ओर उन्मुख नेतृत्व राष्ट्र निर्माण करता है, मुफ्त पानी, बिजली और लैपटॉप नहीं देता। बलिदानी सैनिकों की स्मृति यदि नागरिकों को सशक्त नेतृत्व निर्माण हेतु प्रेरित नहीं उनको राष्ट्र की किसी भी कल्याण योजना का लाभ उठाने का भी अधिकार नहीं हो सकता।
क्या आज का भारत, अपने राष्ट्र के मूल स्वभाव और सभ्यता की रक्षा करने वालों के साथ पराक्रम दिखते हुए खड़ा होगा या ग़ज़नवी को रास्ता देने वालों की तरह केवल अपने लिए मुफ्त बिजली पानी मिलने तक सीमित रहेगा?
पिछले वर्षों में खालिस्तान का आतंकवाद, कश्मीर से कोयंबटूर तक के जिहादी विस्फोट, हिन्दुओं का हर कदम पर अपमान, हर वर्ष होने वाले दंगे, पाकिस्तानी आतंकवाद, गरीबी का फैलाव, सडकों की जगह गड्ढे। राशन की तरह खुशामद कर करके गैस के सिलिंडर लेने की कवायद, कठिन और बेतरतीब रेल यात्रायें, विदेशों में हमारे प्रति एक तिरस्कार और गरीब-पिछड़े-सबसे भ्रष्ट देश होने की दृष्टि से भारतीयों की ओर देखने वाले विदेशी- क्या यह सब हम भूल गए और इसमें हुआ विराट परिवर्तन हममें कोई उत्साह और जोश पैदा नहीं करता?
पांच सौ वर्ष तक चले संघर्ष के बाद भी अयोध्या में राम मंदिर का विरोध करने वाले हिन्दुओं ने अपनी पत्रिकाओं में वहां शौचालय बनाने के सुझाव दिए- इस मानसिकता को पराभूत किसने किया? किसने हिन्दू गौरव की पुनःस्थापना की? किसने कहा कश्मीर में एक भी सांप और जिहादी चोर को जिन्दा नहीं छोड़ेंगे? संघ के स्वयंसेवक और तपस्वी प्रचारक दीखते नहीं लेकिन देश बदल देते हैं। वे हज़ारों गैर काषाय वस्त्र धारी प्रचारक जिन्होंने मां से घर छोड़ते समय आशीर्वाद लेते हुए सिर्फ यही कहा था- भारत माता विजयी हो केवल यही अब जीवन का व्रत है- उनके तप के रंग के खिलने का समय यही है जब भारी मतदान द्वारा राष्ट्र घातक तत्वों को पराभूत करने का दम ख़म दिखाया जाये।
उन्ही प्रचारकों में से एक नरेंद्र मोदी ने देश बदला, साहसिक निर्णय लिए और अब आधारभूत ऐसे परिवर्तन करने का समय है जिनसे आगामी सदियों का भारत सदैव के लिए शक्ति पथ पर चलेगा। यह नवीन भारत के लिए एक ऐतिहासिक निर्णायक क्षण है। कभी किसी को ऐसा लिखना न पड़े कि- लम्हों ने खता की थी- सदियों ने सजा पायी।
बल्कि हम कहें-लम्हों ने संभाला था- सदियों ने संवारा है।
- तरुण विजय
(लेखक पूर्व सांसद और वरिष्ठ पत्रकार हैं)