भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) हैदराबाद के शोधकर्ताओं ने एक ताजा अध्ययन में मक्के की भूसी से ‘सक्रिय कार्बन इलेक्ट्रॉड’ मैटेरियल प्राप्त करने की तकनीक विकसित की है, जिसका उपयोग हाई-वोल्टेज सुपरकैपेसिटर बनाने में हो सकता है।
आईआईटी हैदराबाद और हैदराबाद के ही इंटरनेशनल एडवांस्ड रिसर्च सेंटर फॉर पाउडर मेटलर्जी ऐंड न्यू मैटेरियल्स (एआरसीआई) के संयुक्त अध्ययन में मक्के की भूसी और पोटैशियम हाइड्रॉक्साइड जैसे तत्वों के उपयोग से सक्रिय कार्बन इलेक्ट्रॉड बनाया गया है। सक्रिय कार्बन नमूनों की स्टोरेज क्षमता का मूल्यांकन करने पर इस इलेक्ट्रॉड में परंपरागत सुपरकैपेसिटर्स के मुकाबले बेहतर विद्युत रासायनिक क्षमता और उच्च ऊर्जा घनत्व पाया गया है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि कार्बन आधारित इलेक्ट्रॉड एनर्जी स्टोरेज से जुड़े उपकरण बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कार्बन आधारित इलेक्ट्रॉड आमतौर पर महंगे, उच्च शुद्धता वाले पूर्ववर्ती उत्पादों जैसे- पॉलिमर, कार्बनिक उत्पाद, उच्च शुद्धता युक्त गैसों से विभिन्न तरीकों से प्राप्त किए जाते हैं। जबकि, बायोमास से कार्बन इलेक्ट्रॉड उत्पादन एक सरल प्रक्रिया है।सुपरकैपेसिटर बाजार में तेजी से उभरते हरित ऊर्जा आधारित सिस्टम और नई तकनीकों को अपनाने का चलन बढ़ रहा है। वर्ष 2025 तक इसका बाजार 720 मिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँच सकता है।
आईआईटी हैदराबाद के प्रमुख शोधकर्ता डॉ अतुल सुरेश देशपांडे ने बताया कि “छिद्र युक्त चादर के आकार में यह सक्रिय कार्बन इलेक्ट्रॉड मैटेरियल बनाया गया है। इसे बनाने के लिए मक्के की भूसी का उपयोग कार्बनीकरण और पोटैशियम हाइड्रॉक्साइड एक्टिवेशन के जरिये किया गया है। कम लागत और सरल प्रसंस्करण विधि से सक्रिय कार्बन निर्माणकी इस प्रक्रिया को बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए अनुकूलित किया जा सकता है।”शोधकर्ताओं ने पोटैशियम हाइड्रॉक्साइड को सक्रिय एजेंट के रूप में जोड़ा है, जो चादर जैसी संरचना के निर्माण में मदद करता है।
एआरसीआई के एसोसिएट डायरेक्टर डॉ टी.एन. राव ने बताया कि “प्राकृतिक स्रोतों से प्राप्तसक्रिय कार्बन सुपरकैपेसिटर्स के निर्माण में उपयोग होने वाले प्रभावी इलेक्ट्रॉड मैटेरियल हो सकते हैं। जानी-मानी कंपनी मैक्सवेल नारियल से प्राप्त सक्रिय कार्बन अपने सुपरकैपेसिटर्स में उपयोग करती है। इस अध्ययन में मुख्य चुनौती उच्च सतह क्षेत्र युक्त सक्रिय कार्बन के छिद्रों के आकार की इंजीनियरिंग है जो इलेक्ट्रोलाइट आयनों को छिद्रों में अधिकतम स्तर तक अवशोषित होने में मदद करती है, जिससे अंततः उच्च क्षमता प्राप्त की जा सकती है।”
जागरूकता की कमी और तकनीक एवं विशेषज्ञता के अभाव के चलते बड़े पैमाने पर मक्के की भूसी को अपशिष्ट मानकर फेंक दिया जाता है या फिर जला दिया जाता है। यह खोज उत्तर प्रदेश, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों के लिए विशेष महत्वपूर्ण हो सकती है, जहाँ मक्के का उत्पादन बहुतायत में होता है। इस अध्ययन के नतीजे ऊर्जा के समाधान खोजने के प्रयासों को मजबूती प्रदान करने के साथ-साथ किसानों के लिए अतिरिक्त आमदनी का मार्ग प्रशस्त करने में भी मददगार हो सकते हैं।
डॉ अतुल सुरेश देशपांडे और डॉ टी.एन. राव के अलावा इस अध्ययन में एम. ऊषा रानी और के. नानाजी शामिल हैं। यह अध्ययन शोध पत्रिका जर्नल ऑफ पावर सोर्सेज में प्रकाशित किया गया है।
इंडिया साइंस वायर