चुनावी नारों का ''जूते मारो'' से लेकर ''गोली मारो'' तक का सफर

By डॉ. संजीव राय | Jan 29, 2020

दिल्ली का 2020 का चुनाव नए नारों के साथ लड़ा जा रहा है। बहुजन समाज पार्टी बनाने से पहले कांशीराम ने 1981 में दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डीएस-4) बनाई थी। उनका संगठन बनाने का हुनर ऐसा था कि गैर राजनीतिक दलित शोषित समाज संघर्ष समिति के ज़रिए रैली करके अपनी ताकत का अंदाज लगाया और 1984 में बसपा का गठन किया। दलित शोषित समाज संघर्ष समिति के बनने तक जो नारा लगा- ब्राह्मण ठाकुर बनिया चोर, बाकी सब हैं डीएस फोर !

 

1980 के दशक में बसपा कार्यकर्ता जो नारे लगते थे वह उच्च जातियों के राजनितिक और सामाजिक वर्चस्व को चुनौती देने वाले थे और दलित आक्रोश का प्रकटीकरण थे। उस दौर में नारे लगे थे- तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार। बसपा को अपनी राजनीतिक ज़मीन तैयार करने में इन नारों से बहुत मदद मिली क्योंकि यह सामाजिक बहिष्करण, शोषण और राजनीतिक भागीदारी के लिए संघर्ष के आह्वान के साथ, जाति प्रथा के ख़िलाफ़ एक तरह का प्रतिरोध था। बसपा ने जब दलित के साथ मज़बूत पिछड़ी जातियों (अहीर-कुर्मी) को अपने साथ किया तो उसके कुछ प्रत्याशियों ने एक दूसरा नारा दिया- चढ़ के मारो छाती पर मुहर लगेगी हाथी पर।

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यह अलग बात है कि 1996 के बाद के वर्षों में बसपा बहुजन से सर्वजन की ओर चली और उच्च जाति के लोग बसपा के केंद्र में आ गए। उच्च जाति के लोगों को जब बसपा ने चुनाव में टिकट दिया तो नारे बदल गए। बसपा का चुनाव चिन्ह हाथी चर्चा में आया और नारे लगे- हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है। 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बसपा ने नारा दिया था- बेटियों को मुस्कराने दो, बहन जी को आने दो। इस नारे में उग्रता कि कोई जगह नहीं थी। 

 

2017 में ही अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता नारा लगा रहे थे- जिसका जलवा कायम है, उसका बाप मुलायम है। इसके अलावा यह भी नारा लगा- जीत की चाभी, डिंपल भाभी। हालाँकि यह दोनों ही नारे ज़मीन पर कोई करिश्मा नहीं दिखा पाए।

 

मंडल कमीशन की सिफ़ारिश लागू होने के बाद देश भर में जो आरक्षण विरोधी आंदोलन चला उसके बाद राजनीति में सामाजिक न्याय का विमर्ष चर्चित हुआ। लालू प्रसाद यादव सामाजिक न्याय और मंडल समर्थन की राजनीति के एक प्रमुख लाभार्थी रहे हैं। 1980 के दशक तक बिहार की राजनीति में उच्च जातियों का दबदबा रहा था। 1990 के दशक में लालू-नीतीश के उभार ने जाति को सामाजिक से राजनीतिक पहचान में बदला। उन दिनों लालू-नीतीश की राजनीति उच्च जातियों के विरोध पर टिकी थी और उनका निशाना वामपंथी पार्टियों के परंपरागत वोटरों को अपनी तरफ़ मोड़ने पर था। यादव-कुर्मी-कोईरी जाति के लोगों को राजनीतिक लाभ मिला और उनकी संख्या संसद और विधानसभा में बढ़ गई। 1990 में जिस चुनाव के बाद जनता दल की सरकार में लालू पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने, उन दिनों यह कहा जाता था कि लालू ने चुनाव में अपने समर्थकों से कहा था कि भूरा (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला) बाल साफ़ करो। बाद में लालू यादव ने पीएमआरवाई (प्रधान मंत्री रोजगार योजना की जगह, पासवान-मुस्लिम-राजपूत-यादव) के तहत अपनी चुनावी रणनीति बनाई।

 

अबकी बार मोदी सरकार के नारे वाली बीजेपी की सरकार में वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर ने अपनी एक चुनावी सभा में नारे लगवाए हैं- देश के गद्दारों को गोली मारो... को। आखिर अनुराग ठाकुर किसको देश का गद्दार बता रहे हैं ? वह केंद्र में मंत्री हैं तो क्या उनका विश्वास सरकारी मशीनरी पर नहीं रहा कि अधिकारी, सेना और पुलिस देश के गद्दारों को पकड़ पाएंगे ? क्या उनका इशारा भ्रष्टाचारियों की तरफ है जो देश छोड़ कर निकल गए हैं ?

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हम अपनी मुख्य धारा की राजनीति में जूते के नारे से अब गोली तक पहुंच गए हैं ? यही नहीं युद्ध की शब्दावली तो अब हमारे रोजमर्रा के जीवन में शामिल हो गई है। संगीत के टीवी कार्यक्रम में भी अब युद्ध और महायुद्ध होते हैं। क्रिकेट में जंग होती है। टीमें एक दूसरे को रौंदती हैं। बच्चों के ऑनलाइन गेम भी हिंसा का सामन्यीकरण कर रहे हैं। हम अपने घरों में बैठ कर युद्ध को लाइव देख रहे हैं तो उसका असर हमारी भाषा पर तो आएगा ही। अनुराग ठाकुर का आक्रोश बनावटी लगता है न तो वह दलित-शोषित-पिछड़े हैं और न ही सताए हुए हैं। बेहतर होता कि वह वित्त राज्य मंत्री होने के नाते अँधेरे में तीर चलाने की बजाय सरकार की उपलब्धियों की चर्चा करते। अनुराग ठाकुर एक युवा और महत्वाकांक्षी नेता हैं इस तरह के नारे उनको राजनीति में कोई बढ़त देंगे, इसमें संदेह है।

 

-डॉ. संजीव राय

 

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