सत्ता के लिए लालायित थे कांग्रेस नेता इसलिए भारत को खंडित होने से नहीं बचा पाये थे

By डॉ. राघवेंद्र शर्मा | Aug 14, 2021

कहते हैं आगे बढ़ने के प्रयासों के दौरान पड़ने वाले आराम दायक पड़ावों को मंजिल मान लिया जाए, तो फिर प्रगति के रास्ते अवरुद्ध हो जाते हैं। यही बात भारत की खंड खंड आजादी को संपूर्ण आजादी मान लिए जाने पर लागू होती है। दुर्भाग्य की बात तो यह है कि हम मानसिक रूप से वर्तमान भारत को ही अखंड भारत समझने की भूल करने लगे हैं। जबकि यह सच नहीं है। अखंड भारत का विहंगम स्वरूप इतना व्यापक था, कि उस का नक्शा एक बार देख भर लेने से शत्रुओं के दिल दहल जाया करते थे। पहले राजे रजवाड़ों की फूट, फिर मुगलों के अत्याचार और अंत में अंग्रेजों के शासन तथा कांग्रेस की अक्षम्य भूलों ने भारतीय समाज को इस अवस्था में पहुंचा दिया कि वह वर्तमान भारत को ही अखंड भारत मानने हेतु विवश है। बेशक यह जानकार अधिकांश लोगों को आश्चर्य होगा कि मैंने अखंड से खंड खंड हुए भारत के विषय मैं कांग्रेस का नाम क्यों लिया। तो इसका जवाब केवल इतना-सा है कि वर्ष 1947 आते-आते कांग्रेस और उसके वयोवृद्ध होते जा रहे नेताओं में वह दमखम शेष रह ही नहीं गया था कि वह अंग्रेज़ों से भारत की अखंड आजादी के लिए और अधिक संघर्ष कर पाते। यही वजह रही कि उसके नेताओं ने शारीरिक और मानसिक थकावट का शिकार होकर जैसे मिले, जिस हाल में मिले, बस मिल जाए, इस विचार के साथ विखंडित आजादी को सहज भाव से स्वीकार कर लिया।

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इस बेचारगी के पीछे दूसरा कारण यह पाया जाता है कि तब जितने भी वयोवृद्ध कांग्रेसी नेता शेष बचे थे, उनमें से अधिकांश तो स्वतंत्रता संग्राम के एवज में अब केवल सत्ता का ऐश्वर्य वैभव पाना चाह रहे थे। जबकि 1947 के आते-आते हालात इतने कठिन नहीं थे कि हमें अंग्रेजों के सामने आजादी के लिए गिड़गिड़ाना आवश्यक था। वर्ष 1944 तक नेताजी सुभाष चंद्र बोस ब्रिटिश शासन की चूलें हिला चुके थे। उन्होंने भारतीय आजाद सरकार की स्थापना कर कम से कम 9 देशों से स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में भारत के पक्ष में मान्यता भी प्राप्त कर ली थी। यही नहीं, उन्होंने अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए अनेक देशों को आजाद हिंद सेना के साथ खड़ा कर लिया था। इसी के साथ नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज ने खूनी संघर्ष के माध्यम से अनेक प्रांत ब्रिटिश सरकार से छीन लिए थे। इस बीच जब नेताजी की मृत्यु का समाचार फैला, तो अंग्रेजों को अनुमान था कि उनके सैनिक और खून के बदले खून की तर्ज पर लोहा ले रहे क्रांतिकारी हताश होकर घर बैठ जाएंगे। लेकिन नेताजी की मौत ने युवाओं को इतना विचलित किया कि भारतीय सैनिकों ने फिरंगी शासकों के खिलाफ विद्रोह शुरू कर दिया।


वर्ष 1946 के आते-आते यह विद्रोह इतना बढ़ा कि मुंबई के समुद्री तट पर स्थापित नौसेना ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ हथियार उठा लिए। लगभग 2.5 मिलियन वे भारतीय सैनिक भी खिलाफत पर उतारू हो गए, जो विश्व युद्ध के दौरान अपनी बहादुरी का परिचय अंग्रेजों को पहले ही दे चुके थे। स्वयं ब्रिटिश अधिकारी स्वीकार कर चुके हैं कि नेताजी की मृत्यु के बाद ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जो माहौल बना वह भयावह था। सूचनाएं मिल रही थीं कि विद्रोह के बाद व्यापक पैमाने पर खूनी संघर्ष तय था। यह भी पता चल चुका था कि यदि मिल रहीं सूचनाएं सच साबित हुईं तो एक भी अंग्रेज भारत से जिंदा नहीं लौटने वाला था। लेकिन पराजित होकर लंदन लौटना ब्रिटिश शासकों के लिए भारी बेइज्जती का मामला था। अतः वे विजेता के रूप में ही यहां से सही सलामत लौटने का रास्ता तलाशने लगे। ऐसे में कांग्रेस उनके लिए सहायक साबित हुई।


उल्लेखनीय है कि 1946 के बाद कांग्रेस ने अंग्रेजों के खिलाफ किसी भी प्रकार का व्यापक अथवा आक्रामक आंदोलन नहीं छेड़ा था। फिर भी अंग्रेजों ने सुनियोजित रणनीति के तहत कांग्रेस के अहिंसक कहे जाने वाले आंदोलन को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित करना शुरू किया। उधर ब्रिटेन में बैठे शासक वैश्विक राष्ट्र प्रमुखों और तत्कालीन मीडिया को यह समझाने में सफल रहे कि हम भारत पर रहम खाते हुए उन्हें आजादी प्रदान कर रहे हैं। कुल मिलाकर उन्होंने स्वयं को कांग्रेस के अहिंसक आंदोलन से द्रवित होना प्रतिपादित किया और खुद को दया की मूर्ति स्थापित करने में सफल साबित हुए। यहां सवाल उठता है कि जब अंग्रेजों को भारत आजाद करना ही था तो फिर उसे खंडित करने की क्या आवश्यकता थी। वे जिन्हें नेता मानते थे, उन महात्मा गांधी को देश की बागडोर सौंप कर ब्रिटेन लौट सकते थे। यही बात कांग्रेस पर भी लागू होती है। वह जानती थी कि अंग्रेज अपने हृदय विदारक अंत की आशंका से भयाक्रांत हैं और उन्हें जल्द से जल्द सही सलामत अपने वतन लौटने की चिंता थी। ऐसे में उसे आजादी अंग्रेजों की शर्तों पर स्वीकार करने की आवश्यकता ही क्या थी? उसने क्यों व्यक्ति विशेष को प्रधानमंत्री बनाने की जिद अपना कर वह सब कर दिया जो षड्यंत्र कारी अंग्रेजी शासक चाहते थे। हद तो तब हुई जब महात्मा गांधी ने भी स्पष्ट कर दिया था कि भारत के टुकड़े मेरी लाश पर होंगे। लेकिन तब भी बात तत्कालीन कांग्रेस प्रमुखों की समझ में नहीं आई। सरदार वल्लभ भाई पटेल की लोकतांत्रिक जीत के बाद भी कोई पूरे भारत पर अपना आधिपत्य स्थापित करने की कवायद में जुट गया, तो किसी ने आजादी की लड़ाई का मेहनताना पाकिस्तान के रूप में मांग लिया।

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कांग्रेस के तत्कालीन नेताओं की यह छीछालेदर जब अंग्रेज शासकों ने देखी तो उन्हें मानो मुंह मांगी मुराद मिल गई। इनकी आपसी फूट का फायदा उठाकर ब्रिटिश शासकों ने भारत-पाक बंटवारे के बीज बो दिए। इतिहासकारों को आश्चर्य उस वक्त हुआ जब महात्मा गांधी यह कहते ही रह गए कि भारत-पाक बंटवारा मेरी लाश पर होगा‌। वहीं नेहरू खंडित भारत का प्रधानमंत्री पद पाकर प्रसन्न हो गए। उधर मोहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान के कायदे आजम का पद पाकर सकून हासिल कर लिया। नतीजा यह हुआ कि भारत-पाक बंटवारे के नाम पर भारी खून खराबा हुआ और अखंड भारत के बीच हमेशा-हमेशा के लिए वैमनस्यता की एक स्थाई लकीर स्थापित हो गई। इस लकीर ने अखंड भारत के एक हिस्से को भारत तो दूसरे को पाकिस्तान के रूप में बांट दिया। इसी पाकिस्तान से पूर्वी बंगाल टूटा तो एक और देश बांग्लादेश की उत्पत्ति हो गई। इस खंड खंड आजादी के बाद आजादी का श्रेय लेने वाले और देश पर सर्वाधिक समय तक शासन करने वाले कांग्रेस जनों ने फिर कभी यह जिक्र भूलकर भी नहीं छेड़ा कि हम कभी अखंड भारत भी हुआ करते थे। हमारी सीमाएं उत्तर में केवल कश्मीर और पूर्व में सिर्फ पश्चिम बंगाल तक ही सीमित नहीं हुआ करती थीं। लेकिन एक जागरूक नागरिक होने के नाते हमें यह जानने की आवश्यकता है कि अखंड भारत की अखंड आजादी के लिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, शहीद भगत सिंह जैसे हजारों क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया था। हमें यह बेशकीमती खंडित आजादी भी बिना "खड्ग बिना ढाल" बैठे-बिठाए नहीं मिल गई थी। उसके लिए हमारे वीर सपूतों ने पूरे 100 सालों तक अंग्रेजों से लोहा लिया था और हंसते-हंसते अपने प्राण देश पर न्योछावर कर दिए थे। हमें उन लाखों क्रांतिकारियों की शहादत को भुलाना नहीं चाहिए। एक स्वर्णिम भविष्य की प्रत्याशा में यह स्मरण रखना चाहिए कि हम अखंड भारत के नागरिक हैं और इस देश को एक बार फिर अखंड रूप से स्थापित करने का सपना अभी हमने देखना नहीं छोड़ा है।


-डॉ. राघवेंद्र शर्मा

(लेखक मप्र बाल संरक्षण आयोग के अध्यक्ष रहे हैं)

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