मूर्तियों की राजनीति कांग्रेस ने ही शुरू की और अब उसे यह अच्छा नहीं लग रहा

By योगेन्द्र योगी | Nov 01, 2018

शहरों, पुरास्मारकों के नाम बदलने और अपने चहेतों की सार्वजनिक स्थलों पर मूर्तियां लगवाने से ही यदि भारत महान बन सकता होता तो यह महादेश अब तक विश्व के विकसित देशों की कतार में खड़ा होता। फिर अमरीका इतनी हिमाकत नहीं कर पाता कि रूस से रक्षा प्रणाली खरीदने या ईरान से तेल खरीदने पर प्रतिबंध लगाने की धमकी दे सकता। इसी तरह पाकिस्तान और चीन जैसे दुरभि संधि वाले देश भारत की और निगाह उठाने से पहले कई बार सोचते। इसके विपरीत सच्चाई यही है कि आजादी से अभी तक नाम बदलने या मूर्तियां स्थापित करने के बाद भी भारत के हालात नहीं बदले। विश्वस्तरीय विभिन्न मानदंडों में भारत बेहद पिछड़ा हुआ है। देश की आधी से ज्यादा आबादी आज भी आधारभूत सुविधाओं के लिए तरस रही है।

 

स्थानों के नाम परिवर्तन और मूर्तियों से देश प्रेरणा ग्रहण नहीं कर सका। यही मकसद दिखावे के तौर पर राजनीतिक दलों का होता है। आम लोगों ने बेशक इससे कुछ ग्रहण किया भी हो पर राजनीतिक दलों ने जरा भी नहीं। इसके विपरीत सरकारी धन पर किए गए ऐसे कार्य राजनीतिक प्रचार−प्रसार का बहाना और वोट बटोरने के सौदे जरूर साबित हुए। महान लोगों की मूर्तियां लगवाने वाले सत्तारूढ़ दलों ने खुद ही कभी प्रेरणा ग्रहण नहीं की। उनके बताए ईमानदारी, देशभक्ति, अनुशासन और मेहनत से सीख लेने के बजाए उल्टी गंगा ही बहाई। इस मामले में क्षेत्रीय हो राष्ट्रीय, सभी राजनीतिक दल लकीर के फकीर साबित हुए हैं। किसी ने भी महान लोगों की सिखाई−समझाई बातों और नीतियों पर अमल नहीं किया।

 

भाजपा और उसी की गुजरात सरकार ने बड़े जोर−शोर से वल्लभ भाई पटेल की विशाल प्रतिमा स्थापित कराई है। इसकी आड़ में कांग्रेस को जमकर कोसा भी। यह भी कहा गया कि एक परिवार ने आगे बढ़ने के लिए वल्लभ भाई जैसे बड़े नेता को हाशिये पर डाल दिया। इसी तरह इलाहाबाद का नाम बदल कर प्रयागराज रख दिया गया। इससे पहले गुडगांव का नाम भी गुरूग्राम किया गया। कांग्रेस भी इस प्रतिस्पर्धा में कभी पीछे नहीं रही। देश का शाद ही ऐसा कोई शहर होगा जहां कांग्रेस के नेताओं की मूर्तिया या उनके नाम के स्मारक नहीं हों। चूंकि भाजपा सत्ता में अभी आई है, इसलिए पार्टी के पास अपने ऐसे नेता नहीं हैं, जिनकी मूर्तियां लगवाई जा सके, या उनके नाम पर सार्वजनिक स्थानों का नामकरण किया जा सके।

 

भाजपा इसकी कसर इतिहास से पूरा करने में जुटी हुई है। जब ऐसे मामले वोट बैंक बनते हों तो क्षेत्रीय दल क्यों पीछे रहने लगे। उत्तर प्रदेश में बसपा सत्ता में रहते हुए सारी हदें ही पार कर गई। बसपा ने अपना चुनाव चिह्न हाथी ही कई शहरों में लगवा दिया। इनमें बेहद गरीबी से जूझ रहे उत्तर प्रदेश के खजाने से करोड़ों रूपए खर्च किए गए। इसी तरह मराठी वोट बैंक की आड़ में मुंबई में हजारों करोड़ की लागत से शिवाजी की मूर्ति लगवाने पर खूब राजनीति हो रही है। देश में दलितों की दशा-दिशा भले ही नहीं सुधरी हो पर भीमराव अंबेडकर मौजूदा सभी राजनीतिक दलों के लिए दलितों के वोट बैंक खींचने वाले मसीहा बने हुए हैं। उत्तर भारत में ऐसा कोई इलाका नहीं हैं, जहां अंबेडकर के नाम पर कोई स्थान न हो। शहरों के नाम बदलने और मूर्तियां लगवाने में भी राजनीतिक दलों की मंशा में खोट है। दोनों ही मामलों में वोटों की राजनीति स्पष्ट झलकती है। खासतौर पर मूर्तियों के मामले में देश की कोई नीति ही नहीं है। जो भी राजनीतिक दल सत्ता में आता है, अपने चहेतों की मूर्तियां लगवाने में जुट जाता है। किस नेता, महापुरूष या संत−महात्मा की मूर्ति लगेगी, इसका निर्णय सत्ताधारी राजनीतिक दल वोटों के समीकरण के आधार पर करते हैं। ज्यादातर मामलों में देखा यही जाता है कि जिनके नाम को भुनाया जा सकता है, उन्हीं को तरजीह दी जाती है।

 

देश में आजादी दिलाने वाले क्रान्तिकारियों की कमी नहीं है। लेकिन कांग्रेस ने हमेशा नेहरू−गांधी परिवार को प्राथमिकता दी। इसके विपरीत भाजपा ने अपनी विचाराधारा से कुछ मेल खाने वाले गरम मिजाज के क्रान्तिकारियों को तरजीह दी है। यही वजह है कि सरदार भगत सिंह, चन्द्रशेखर, सुभाषचंद्र बोस और पार्टी के संस्थापक, धार्मिक देवी−देवताओं को भाजपा ने प्राथमिकता दी है, जो कि पार्टी की रीति−नीति से मेल खाते हों। इसमें भी कम्युनिस्ट विचारधारा के कारण भाजपा भगत सिंह के मामले से बचती रही। 

 

इसी तरह क्षेत्रीय दलों ने ज्यादातर अपने संस्थापकों और क्षेत्र विशेष के ऐसे बड़े नामों को पैमाना माना, जिनसे उनकी मौजूदा राजनीति को फायदा होता हो। जिनके पीछे किसी जाति विशेष या विचारधारा का बड़ा वोट बैंक हो। प्रतिमा स्थापित करने के मामले में आजादी पूर्व और बाद में विश्वस्तर पर सर्वग्राही एकमात्र राजनेता महात्मा गांधी ही रहे हैं। विश्व में दस स्थानों पर महात्मा गांधी की प्रतिमाएं लगी हुई हैं। आजादी के बाद हालांकि जवाहर लाल नेहरू विश्वस्तरीय नेता जरूर माने गए, किन्तु विदेशों में महात्मा गांधी की मूर्तियों के मामले में नेहरू आस−पास भी नहीं रहे।

 

दक्षिण भारत में नेताओं की मूर्तियों को लेकर गजब की प्रतिस्पर्धा रही। इस मामले में दक्षिण में नैतिकता के सारे प्रतिमान ढह गए। कांग्रेस के प्रमुख और तमिलनाडू के लोकप्रिय नेता रहे कामराज के मामले में हद कर दी गई। कामराज ने अपने जीवित रहते हुए ही अपनी प्रतिमा मद्रास के सिटी कॉर्पोरेशन में स्थापित करवाई। करेला और नीम चढ़ा यह कि जवाहर लाल नेहरू ने इसका अनावरण किया। इस पर नेहरू की तरफ से दलील यह दी गई कि वे अपने प्यारे दोस्त और साथी के सम्मान में यहां आए हैं। इसके विपरीत डीएमके के नेता अन्नादुरई की इसी तरह की प्रतिमा स्थापित करने का विरोध किया गया।

 

दक्षिण में मूर्ति राजनीति इस कदर हावी हो गई कि जब डीएमके सत्ता में आई तो अपने नेताओं की मूर्तियों की लाइन लगा दी। इससे भी आगे डीएमके ने मैरीन बीच को भी नहीं बख्शा। कांग्रेस ने जब सत्ता में वापसी की तो इसी प्रतिस्पर्धा में इस खूबसूरत पर्यटन स्थल पर कामराज की मूर्ति स्थापित कराई। आश्चर्यजनक बात यह है कि नेहरू ने संसद में महात्मा गांधी की प्रतिमा लगाने का विरोध किया था। कांग्रेस की देन रही मूर्तियों की इस राजनीति में कांग्रेस की किरकिरी तब हुई जब नेहरू की मृत्यु के बाद देश भर में उनके स्मारक बनाए जाने के लिए नेहरू मैमोरियल ट्रस्ट का गठन किया गया। डॉ. करण सिंह को इसका सचिव बनाया गया। इस ट्रस्ट का उद्देश्य देश भर से धन एकत्रित करना था। दो साल के पूरे प्रयासों के बावजूद केवल एक करोड़ रूपए ही जमा हो सके, जबकि लक्ष्य 20 करोड़ रूपए का था। दक्षिण की तरह महाराष्ट्र में शिवसेना ने शिवाजी पार्क में पार्टी के संस्थापक बाला साहब ठाकरे की प्रतिमा स्थापित कराने का प्रयास किया, जिसे सरकार ने खारिज कर दिया। इस पर खूब बवाल और राजनीति हुई। प्रसिद्ध लेखिका और नात्रेडेम विश्वविद्यालय में डिपार्टमेंट ऑफ अमेरिकन स्टेडीज की चेयरमैन रही इरिका डोस ने अपनी पुस्तक मैमोरियल मैनिया में लिखा है कि किसी की प्रतिमा लगाने के पीछे भौतिक लक्ष्य बेशक कितना भी हों, किन्तु असल में इसके पीछे होता राजनीतिक मकसद को भुनाना है, भारत में प्रतिमा लगाने के मामले में दास का यह निष्कर्ष काफी हद तक सही साबित होता है।

 

-योगेन्द्र योगी

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