चित्तौड़गढ़ की धरती पर गूंजती हैं राजपूत परम्परा की वीरता भरी गाथाएं

By डॉ. प्रभात कुमार सिंघल | Sep 06, 2021

अरावली पर्वत मालाओं से आच्छादित राजस्थान में चित्तौड़गढ़ जिले की धरती पर राजपूत परम्परा के अद्वितीय वीरता की गूंजती गाथाएं, शूरवीरों, रणबांकुरों एवं वीरांगनाओं के शौर्य की धमक, त्याग और बलिदान की अमिट कहानियां, अभेध दुर्ग, महलों, मंदिरों, स्तंभों, छतरियों में होते भारतीय शिल्प के दर्शन, शक्ति के साथ भक्ति के अनूठे संगम के दर्शन होते हैं। मौर्य राजा चित्रांगद द्वारा स्थापित चित्तौड़गढ़ दुर्ग को अरावली पर्वत श्रृंखला के नगीने की तरह है। उन्होंने अपने नाम के अनुरूप इसका नाम ’चित्र-कोट’ रखा था जो अपभ्रंश होते-होते चित्तौड़गढ़ हो गया। कर्नल जेम्स टाड के मुताबिक 728 ई. में बापा रावल ने इस दुर्ग को मौर्य वंश के अन्तिम राजा मान मौर्य रावल से छीन कर गुहिल वंश की स्थापना की थी।

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सन् 1303 ई. में चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण करने वाला अलाउद्दीन खिलजी रानी पद्मनी की सुंदरता के कारण उसे पाने के लिए लालायित हो गया। अतं में पद्मिनी ने अपनी लाज बचाने के लिए हजारों वीरांगनों के साथ ’जौहर’ कर लिया। चित्तौड़गढ़ में तीन बार ऐसी स्थिति बनी जब जौहर किये गये। सन् 1533 में गुजरात के शासक बहादुर शाह द्वारा दूसरा आक्रमण किया गया एवं बूंदी की राजकुमारी रानी कर्णावती के नेतृत्व में जौहर किया गया। उसके नन्हें पुत्र उदयसिंह को बचा कर बूंदी भेज दिया गया। जब 1567 में मुगल सम्राट ने चित्तौड़गढ़ पर चढ़ाई की तो उदयसिंह ने उदयपुर को अपनी राजधानी बनााया और चित्तौड़ को वर्ष के लिए दो वीरों जयमल एवं पत्ता के हाथों सौंप दिया। दोनों ने बहादुरी के साथ युद्ध किया एवं जौहर हो जाने के बाद इनकी मृत्यु हो गई। अकबर ने किले को मिट्टी में मिला दिया। इस के बाद चित्तौड़  का कोई शासक नहीं बना एवं राजपूत सैनिक ही इसकी रक्षा करते रहें। चित्तौड़गढ़ दुर्ग सहित जिले में अनेक पर्यटक स्थल हैं जिन्हें देखने के लिए हजारों सैलानी प्रतिवर्ष यहां आते हैं। 


चित्तौड़गढ़ दुर्ग

पहाड़ की चोटी पर यह दुर्ग चारों ओर सुदृढ़ दीवारों से घिरा हुआ है और सुरक्षा के लिए मुख्य मार्ग पर सात द्वारा बने हुए हैं। प्रथम द्वार पाडलपोल के बाहर प्रतापगढ़ के रावत बाघसिंह का स्मारक बना हुआ है।  थोड़ी दूर चलने पर उतार में भैरवपोल है जहाँ जयमल के कुटुम्बी कल्ला और राठौड़ वीर जयमल की छत्रियाँ हैं। ये दोनों वीर 1567 ई. के मुगल आक्रमण के समय वीरगति को प्राप्त हुए थे। आगे बढ़ने पर गणेशपोल, लक्ष्मणपोल और जोडनपोल आते हैं। इन सभी पोलों को सुदृढ़ दीवारों से इस प्रकार जोड़ दिया है कि बिना फाटकों को तोडे़ शत्रु किले पर अधिकार नहीं कर सकता। जोडनपोल के संकड़े मोर्चे पर शत्रु सेना आसानी से रोकी जा सकती है। आगे एक विशाल द्वार रामपोल के भीतर घुसते ही एक तरफ सिसोदिया पत्ता का स्मारक आता है जहाँ अकबर की सेना से लड़ता हुआ पत्ता वीरगति को प्राप्त हुआ था। इसके स्मारक के दाहिनी ओर जाने वाली सड़क पर तुलजा माता का मंदिर आता है। 


आगे चलकर बनवीर द्वारा बनवायी गयी ऊँची दीवार आती है जिसके पास एक सुरक्षित स्थान को नवलख भण्डार कहते हैं। बनवीर ने शत्रु से बचने के लिए दुर्ग के अन्दर दूसरे दुर्ग की व्यवस्था की थी। इसी अहाते के आसपास तोपखाने का दालान, महासानी और पुरोहितो की हवेलियाँ, भामाशाह की हवेली तथा अन्य महल हैं। नवलखा भण्डार के निकट श्रृंगार चंवरी का मंदिर आता है जिसका जीर्णोद्धार महारणा कुम्भा के भण्डारी वेलाक ने 1448 ई. में कराया था। इस मंदिर के बाहरी भाग में उत्कीर्ण कला देखने योग्य है। इसको भ्रम से श्रृंगार चौरी कहते हैं, वास्तव में यह शान्तिनाथ का जैन मंदिर है जिसकी  प्रतिष्ठा खरतर गच्छ के आचार्य जिनसेन सूरि की थी।

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यहाँ से आगे बढ़ने पर राजमहल का चौंक, निजी सेवा का बाण माता का मंदिर, कुम्भा का जनाना और मर्दाना महल, राजकुमारों के प्रासाद, कोठार, शिलेखाना आदि स्थित हैं। इस सम्पूर्ण भाग को कुम्भा के महल कहते हैं। रानी पझिनी के जौहर का स्थान समिद्धिश्वर के आसपास की खुली भूमि है। 


राजभवन के आगे कुम्भश्याम मंदिर आता है जिसका जीर्णोद्धार महाराणा कुम्भा ने करवाया और जहाँ मीरां हरिकीर्तन के लिए आया करती थी। इसके आगे गौमुख कुण्ड  और समीप  भोज द्वारा बनाया गया त्रिभुवननारायण का मंदिर है। समिद्वेश्वर प्रासाद का निर्माण 1011 ई. से 1055 ई.के बीच मालवा के परमार राजा भोज ने करवाया था। मंदिर का सभा मण्डप कलात्मक स्तंभों पर टिका है। मंदिर की बाह्म दीवारों का मूर्तिशिल्प और कलाकृतियां भी अत्यन्त आकर्षक हैं। ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश के विविध स्वरूपों को दशनि वाली मूर्तियों के साथ नर-नारियों की स्नेहाकर्षण से युक्त मूर्तियां विद्यमान हैं। 


दुर्ग पर जयमल की हवेली के बाद पझिानी के महल आते हैं, जिसने अपनी सूझबूझ से 700 डोलों में सैनिकों को भेजकर अपने पति रत्नसिंह को अलाउद्दीन से छुड़ावाया था और फिर हजारों रमणियों के साथ जौहर कर कर लिया था। ये महल अब नये बना दिये गये हैं परन्तु कहीं-कहीं खण्डहरों के अवशेष उस समय के स्थापत्य के साक्षी हैं। इसके आगे कालिका का मंदिर है जो पहले सूर्य मंदिर था। आगे चलकर एक जैन विजय स्तम्भ मिलता है जो 11 वीं सदी में जीजा ने बनवाया था। इसी भाग में अद्भुतजी का मंदिर, लक्ष्मीजी का मंदिर, नीलकण्ठ और अपमूर्णा के मंदिर, रत्नसिंह के महल तथा कुकड़ेश्वर का कुण्ड दर्शनीय हैं।


कुम्भा महल के प्रमुख प्रवेश द्वार ’बड़ी पोल’ से बाहर निकलते ही फतह प्रकाश महल स्थित है। इसमें राज्य सरकार द्वारा एक संग्रहालय की स्थापना की गई है, जिसमें इस क्षेत्र से प्राप्त पाषाण कालीन सामग्री, अस़्त्र-शस्त्र एवं वस्त्र, मूर्तिकला के नमूने, प्राचीन चित्रों का संग्रह तथा विभिन्न ऐतिहसिक एवं लोक संस्कृति की सामग्री का प्रदर्शन किया गया है। महल के दक्षिण-पश्चिम में सड़क पर ही ग्यारहवीं शताब्दी में बना एक भव्य जैन मंदिर है, जिसमें 27 देवरियां होने के कारण यह ’सतबीस देवरी’ कहलाता है। मंदिर के अन्दर की गुम्बजनुमा छत व खम्भों पर की गई खुदाई देलवाड़ा जैन मंदिर माउण्ट आबू से मिलती-जुलती है। अरावली पर्वत के इस किले को यूनेस्को द्वारा भारत का विश्व विरासत में शामिल किया गया है।


मातृकुण्डियां

चित्तौड़ से लगभग 60 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में मातृकुण्डियां राजस्थान के हरिद्वार के रूप में प्रसिद्ध है। बनास नदी के तट पर स्थित यह प्राचीन तीर्थ सदियों से जन आस्था का केन्द्र रहा है। मातृकुण्डियां से कुछ ही दूरी पर राशमी ग्राम में महर्षि जमदग्नि अपनी भार्या रेणुका व पुत्र परशुराम सहित निवास करते थे। इस क्षेत्र में वे गोचारण के लिए आते थे। इस कुण्ड का जल श्रद्धालुओं के पाप धोने वाला है। लोग इसके जल में स्नान करके इस पावन जल को गंगाजली में भर कर अपने घर ले जाते हैं। मृत व्यक्तियों की अस्थियां तथा भस्म भी इस तीर्थ में विसर्जित की जाती हैं। पिण्डदान तथा तर्पण भी किया जाता हैं। कार्तिक-पूर्णिमा-की सन्ध्या को पत्तों की नौकाओं में आटे की दीप प्रज्वलित करके जल धाराओं में छोड़े जाते हैं। प्रति वर्ष यहां बैसाखी पूर्णिमा के अवसर पर यहाँ दस दिवसीय विशाल धार्मिक मेला लगता है। मेले में राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजराज से हजारों श्रद्धालु आते हैं। मातृकुण्डियां गांव में अनेक मंदिर दर्शनीय हैं।

 

नगरी

चित्तौड़ के किले से 11 किलोमीटर उत्तर में नगरी नाम का अति प्राचीच स्थान है। इसके खंडहर दूर तक दिखाई पड़ते हैं। यहाँ से प्राचीन शिलालेख तथा सिक्के मिले हैं। नगरी का प्राचीन नाम मध्यमिका था। पतंजलि के ’महाभाष्य’ में मध्यमिका पर यवनों (यूनानियों, मिनैंडर) के आक्रमण का उल्लेख किया है। कहा जाता है कि वि. सं. पूर्व की तीसरी शताब्दी के आसपास विष्णु की पूजा होती थी और उनके मंदिर भी बनते थे। यहां से प्राप्त अनेक शिलालेख संग्रहालयों में सुरक्षित हैं।


सेठ सांवलिया जी मंदिर

भगवान कृष्ण को समर्पित सेठ सांवलिया जी का मंदिर चित्तौडगढ़ से उदयपुर जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग 27-48 (स्वर्ण चतुर्भुज सड़क योजना) पर मंडफिया में स्थित है। प्रचलित मान्यता के अनुसार खुदाई में प्राप्त प्रतिमाओं का सम्बंध मीरा बाई से बताया जाता है। प्रचलित कथानक के अनुसार सांवलिया सेठ मीरा बाई के वहीं गिरधर गोपाल हैं जिनकी वे पूजा करती थी। मंडफिया में स्थित सांवलिया सेठ मंदिर की स्थापत्य एवं मूर्तिकला देखते ही बनती है। अनेक कोनों से मंदिर की कला पुरी के जगन्नाथ, देलवाड़ा एवं रणकपुर मंदिरों के सदृश्य प्रतीत होती है। आज सांवलिया सेठ का मंदिर जनआस्था का प्रबल केन्द्र बन गया हैं।


उड़न गिलहरियों का आश्रय

सीता माता वन्य जीव अभयारण्य उड़न गिलहरी के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है। राजस्थान में ये केवल इसी अभयारण्य में पाई जाती हैं। दुर्लभ प्राणी चैसिंगा भी यहां देखा जाता है। अभयारण्य में स्तनधारी जीवों की 24, सरीसर्पों की 19 एवं पक्षियों की 100 से भी अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं। यहां अन्य जीवों में बघेरा, जंगली मुर्गे, जंगली बिल्ली, सांभर, जरख, नीलगाय, लंगूर, मगरमच्छ, रैटल व पैगोलिन आदि भी पाए जाते हैं। इस अभयारण्य का कुल क्षेत्रफल 422.94 वर्ग किलोमीटर है। जिसमें से 334.37 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र चित्तौड़गढ़ जिले में एवं 88.57 वर्ग किलोमीटर प्रतापगढ़ जिले में है। इसकी  स्थापना 6 जनवरी 1979 को की गई थी।  अभयारण्य के सघन वनों एवं पहाड़ियों के बीच एक अत्यन्त पुराना धर्मस्थान-सीतामाता है। यह अत्यन्त आश्चर्य की बात है कि अनन्त काल से एक जल स्त्रोत में गर्म एवं दूसरे में ठंडी जल धारा बहती है। यहाँ प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ माह की अमावस को एक बहुत बड़े मेले का आयोजन किया जाता है। यहाँ सैकड़ों प्रजातियों के वृक्ष पाए जाते हैं जिनके नीचे बांस, करोंदा, दूधी, टामट आदि की सघन झाड़ियां मौजूद हैं, जो कई प्रकार के वन्य जीवों के लिए अच्छे आश्रय स्थल का काम करती है।

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बस्सी अभयारण्य

चित्तौड़गढ़ से लगभग 22 किलोमीटर दूर स्थित बस्सी कस्बे से सटा 13 हजार 804 हैक्टेयर क्षेत्र का वन खण्ड ’बस्सी अभयारण्य’ कहलाता है। इसमें 9 हजार 699 हैक्टेयर क्षेत्र आरक्षित वन और 4 हजार 105 हैक्टेयर क्षे़त्र संरक्षित वन की श्रेणी में आता है। वर्ष 1988 में राज्य सरकार ने संरक्षित वन क्षेत्र को अभयारण्य घोषित किया था। अभयारण्य में बघेरे, रीछ, भेड़िये, चौसिंगा, चिंकारा, जरख, गीदड़, नीलगाय, जंगली सूअर, जरख और लोमड़ियां आदि वन्य जीव पाये जाते हैं। सर्दियों में कई तरह के प्रवासी पक्षी देखे जा सकते हैं जिनमें जांघिल, घोंघिल, बुज्जे, बगुले, जलवाक, सर्पपक्षी आदि प्रमुख हैं। मगरमच्छ, कछुए तथा मछलियां आदि जलचर भी बड़ी संख्या में हैं। अभयारण्य में झरिया महादेव, अम्बा का पानी, जोगीदह, मोडिया महादेव, खेरा तलाई आदि जगहों पर भी वन्य जीवों के लिए साल भर पानी रहता है।

 

बाड़ोली मंदिर

पुरातात्विक महत्व के बाड़ोली के मंदिर अपनी स्थापत्य कला एवं मूर्तिकला की दृष्टि से विशेष महत्व रखते हैं। बाड़ोली का मंदिर समूह कोटा शहर से रावतभाटा मार्ग पर करीब 51 किलोमीटर दूर चित्तोड़गढ़ जिले की सीमा में आता है। आठवीं से ग्यारवीं शताब्दी के मध्य निर्मित यह मंदिर स्पष्ट करते हैं कि यहां कभी शैव मत का केन्द्र रहा होगा। मंदिर समूह परिसर में कुल 9 मंदिर स्थापित हैं। मंदिर समूह में सबसे महत्वपूर्ण एवं सुरक्षित मंदिर घटेश्वर महादेव का है। मंदिर के गर्भगृह से जुड़ा अन्तराल अर्थात अर्धमण्डप तथा इसके आगे रंगमण्डप (श्रृंगार चंवरी) बना है। गर्भगृह में पंचायतन परम्परा में पांच लिंग योनि पर बने हैं। सभा मण्डप के अष्टकोणीय स्तंभों पर घंटियों एवं प्रत्येक दिशा में विभिन्न मुद्रा में एक-एक अप्सरा की मूर्तियां आर्कषक रूप में तराशी गयी हैं। मंदिर का स्थापत्य कोणार्क एवं खजुराहों मंदिरों के सदृश्य है। सभा मण्डप से आगे रंगमण्डप अर्थात श्रृंगार चौरी 24 कलात्मक स्तम्भ पर पर बनाई गयी है। इस पर यक्ष, किन्नर, देवी-देवता की प्रतिमाओं के साथ महिला-पुरूष की युग्म प्रतिमाएं तथा रंगमण्डप की बाहरी कला देखते ही बनती हैं। मंदिर परिसर में गणेश मंदिर, महिषमर्दिणी, वामन, शिव आदि के मंदिरों के अवशेष भी दर्शनीय हैं। बाड़ोली मंदिर समूह की स्थापत्य एवं मूर्ति कला के वैशिष्ठय के कारण ही अनके विदेशी सैलानी भी मंदिर को देखने आते हैं।


श्री करेड़ा तीर्थ

श्री करेड़ा दिगम्बर जैन मंदिर चित्तौड़गढ़ जिले में भोपालसागर के समीप करेड़ा गांव में स्थित है। मंदिर का संचालन श्री करेड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ पेड़ी द्वारा किया जाता है। बताया जाता है कि मंदिर की स्थापना आचार्य भट्टारक श्री यशोभद्र सूरीश्वर जी द्वारा की गई थी। यहां प्रतिवर्ष पौष कृष्ण दशमी को भव्य मेले का आयोजन किया जाता है तथा पार्श्वनाथ के जन्म दिवस पर जन्मकल्याणक उत्सव का आयोजन किया जाता है। यहां भगवान पार्श्वनाथ की श्याम वर्ण की प्रतिमा पदमासन मुद्रा में स्थापित की गई है। एक स्तम्भ को संवत 55 का माना जाता है, जिससे कहा जाता है कि इस तीर्थ की स्थापना राजा विक्रम के पूर्व हुई थी।  वर्तमान मंदिर का निर्माण विक्रम संवत 1039 का माना जाता है। मंदिर में जीर्णोद्धार कार्य विक्रम संवत 2033 में आचार्य श्री सुशील सूरीश्वर द्वारा माघ शुक्ला त्रयोदशी को करवाया गया था और प्राचीन प्रतिमा को पुनः प्रतिष्ठित किया गया। मंदिर परिसर में 40 कमरों वाली आधुनिक सुविधायुक्त एक धर्मशाला भी है, जिसमें भोजनशाला की सुविधा भी उपलब्ध है।


आवागमन की दृष्टि से यह दिल्ली-उदयपुर रेलमार्ग पर स्थित है। यहाँ भारत के प्रमुख शहरों से रेलमार्ग एवं सड़क मार्ग से आसानी से पहुंचा जा सकता है। निकटतक एयरपोर्ट 90 किमी. दूर उदयपुर में डबोक हवाई अड्डा है। चित्तौड़गढ़ जिले से राष्ट्रीय राजमार्ग 27 एवं 79 हो कर गुजरते हैं।


- डॉ.प्रभात कुमार सिंघल

लेखक एवं पत्रकार

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