चिरकुट दास चिंगारी: गवँई ज़िंदगी के रंग और ढंग (पुस्तक समीक्षा)

By संतोष उत्सुक | Apr 17, 2019

जब कोई लेखक अपनी कलम से, समाज और जीवन की स्थितियों और सूक्ष्म परिस्थितियों को पूरी ईमानदारी, पारदर्शी नज़र से रचता है तो यकीनन वह रचना समाज का आईना हो जाती है। आज प्रसिद्धि पाने के लिए बहुत कम उम्र में किताब लिख डालना या कम समय में ज़्यादा से ज़्यादा किताबें लिखने का ट्रेंड बढ़ता जा रहा है। ऐसे में निश्चय ही किताब की विषयवस्तु को रचनात्मकता के स्तर पर संजीदगी से जीने की तमन्ना कम होती देखी गई है। लेकिन, ‘चिरकुट दास चिंगारी’ जैसे उत्सुकता जगाते शीर्षक से अपना पहला उपन्यास लिखने वाले वसीम अकरम ने अपनी रचना को स्थानीय मुहावरों, बेलाग भाषा, मानवीय सम्बन्धों के सुलझे अनसुलझे किस्सों, पात्र रचना, पुरबिया संस्कृति के सामाजिक परिदृश्यों को पूरी लेखकीय शिद्दत के साथ पूरी पारदर्शिता के साथ परोस दिया है। वसीम, बिना घुमाए फिराए अपने पाठकों को सीधे उपन्यास के माहौल के बीच बैठा देते हैं और कहते हैं, लो भैया लो मज़ा। शब्दों को अपने स्वभाव व परिस्थितियों के मुताबिक पका लेना, उनका विशिष्ट उच्चारण ठेठ गंवाई भाषा का गहना ही माना जाएगा। लेखक जीवन की तल्ख, रंग बिरंगी और नंगी सच्चाइयों को आत्मसात कर जीता है यही बात इस उपन्यास को बनावटीपन से दूर रखती है। वसीम अकरम की इस चिंगारी में कई छोटी बड़ी कहानियाँ, कहीं साथ साथ तो कभी अलग अलग चलती हैं। जो पात्र जैसे जी रहा उसे वैसे ही खड़ा कर दिया है उन्होंने। वे ठीक कहते हैं, ‘इस उपन्यास में भाषा के भदेस के साथ कुछ गालियां हैं। मेरा निवेदन है कि गालियों को वहाँ से हटकर न पढ़ें, नहीं तो उपन्यास की जुबान कड़वी हो जाएगी’। उनके एक चरित्र द्वारा बार बार, ‘यदि मान ल कि जदि’ बोलना और भी कितने ही शब्दों को बोलने का अनूठा गंवई सौंदर्य जैसे, ‘परदाफाश’ को ‘परदाफ्फ़ास’ सहज लगता है । 

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वसीम ने भाषा के ऐसे अनेक असली प्रयोग, ज़मीन से उठाकर उपन्यास को दिलचस्प बनाया है। उनकी अपनी शैली है बात लिखने की जैसे, ‘न तो केशव मास्टर अपनी आदत की कुर्सी छोडते थे, और न बच्चे अपनी शरारत की पोटली घर पे रख कर आते थे’। स्थानीय रंग में रचे कुछ टुकड़े, 'पेट में गैस गंजुआ रहा हो या नहीं, फागू जब चाहते स्टेचू ऑफ लिबर्टी के मशाल वाले हाथ को भी नाक दबाने के लिए मजबूर कर देते थे’, ‘एक किशोर के हरियाए देह में ‘इक्स’ का हल्का झोंका छू जाए तो बचपन की उमर भी जवानी के टीले पर पहुंच जाती है’, ‘उसके चेहरे पर सालियाना मुस्कान खिल उठी’, ‘बहुत जतन के बाद भी खपरैल के ज़्यादातर घरों के बदतमीज़ कोनिए तो बरसात के दिनों में चूने ही लगते थे’, ‘किसानों के लिए आखिर फसलें बेटियाँ ही हैं’। छपाई चिन्हों के माध्यम से पूरा ध्यान रखा गया है कि पढ़ते हुए महसूस हो जाए कि यह वाक्य नाक से बोलने वाले चरित्र द्वारा कहा जा रहा है। उनका सम्पादन भी उम्दा है। शहरी अभिभावक अपने ज्ञान व प्यार की तिकड़में लड़ाकर बच्चों के, आराम से न समझ में आने वाले नाम रखते हैं, उनके लिए कई नाम उपन्यास में हैं, जैसे हेनवा और मोहनिया। कई तरह के फिल्मी गीतों और चरित्रों की छाप, गांव के आम जीवन पर कितनी गहरी है यह भी उनका उपन्यास बताता है। तेरही (तेरहवीं) के शोकभोज में भी फिल्मी गीतों की उपस्थिति समझाती है कि हमने मनोरंजन कुछ ज़्यादा ही इंजेक्ट कर लिया है अपनी ज़िंदगी में। पाठक यदि आंचलिक साहित्य में लेखन की चिंगारी का कुछ अलग ‘इक्स’ (इश्क़) लेना चाहें तो यह उपन्यास इस लायक है।

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वसीम अकरम, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में पोस्ट ग्रेजुएट हैं। कईफनमौला वसीम ग़ज़ल, नज़्म, स्क्रिप्ट, कविताएं कहानियां लिखने के साथ साथ फिल्म निर्देशक भी हैं। उनका नज़्म संग्रह, ‘आवाज़ दो कि रोशनी आए’ आ चुका है। पेशे से पत्रकार, ‘प्रभात खबर’  के दिल्ली ब्यूरो में कार्यरत हैं।

 

पुस्तक- चिरकुट दास चिंगारी।

लेखक- वसीम अकरम

पुस्तक समीक्षा: संतोष उत्सुक

 

- संतोष उत्सुक

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