देखा जाए तो कोरोना के बाद से बच्चों में डिप्रेशन और एंजाइटी का रोग तेजी से बढ़ता जा रहा है। कोरोना की दहशत के हालात, लॉकडाउन, वर्क फ्राम होम और बच्चों की ऑनलाइन पढ़ाई के साइड इफेक्ट सामने आने लगे हैं। ऑनलाइन स्टडी के चलते बच्चें मोबाइल के अधिकांश इस तरह के ऐप्स से रुबरु होने लगे जो बालपन को कहीं ना कहीं सीधे सीधे प्रभावित करने लगा। एक और जहां चाहे-अनचाहे आनलाइन गेमों की बच्चों में लत लगी वहीं सोशियल मीडिया साइट्स भी बच्चों में लत के रुप में लगने के साथ ही बच्चों के दिलों दिमाग पर नकारात्मक प्रभाव ड़ालने में सफल रही है। देखा जाए तो खेल खेल में बच्चें ना चाहते हुए भी तनाव और एंजाइटी के दौर में प्रवेश कर गए हैं। बदलती जीवनशैली और सामाजिक आर्थिक सिनेरियों में सर्दी जुकाम की तरह एंजायटी यानी कि घबराहट और डिप्रेशन यानी कि अवसाद आज के बच्चों में आम होता जा रहा है। जानी मानी साइक्रेट्र्कि मैगजीन जामा साइक्रेट्री में हालिया प्रकाशित एक रिपोर्ट में यह दावा किया गया है। मनोवैज्ञानिकों ने अध्ययन के दौरान 11 से 15 साल के बच्चों के बीच अध्ययन किया और खासतौर से यह समझने की कोशिश की गई कि जिस तरह से सर्दी जुकाम संक्रामक बीमारी है और एक से दूसरे में फैल जाती है उसी तरह से एंजायटी या डिप्रेशन भी एक बच्चे से दूसरे बच्चे को प्रभावित कर सकता है क्या? अध्ययन में पाया गया कि घबराहट या एंजाइट प्रभावित बच्चें के लक्षण साथ वाले बच्चें में भी विकसित होने के देखे गए हैं। यह अध्ययन भी एक दो नहीं बल्कि सात लाख बच्चों में किया गया है। चिंता की बात यह है कि सर्दी जुकाम संक्रामक रहा है व संपर्क में आने वालों को गिरफ्त में लेने की प्रबल संभावनाएं रहती है, लगभग यही हालात एंजाइटी और डिप्रेशन को लेकर देखी जाने लगी है। हालात की गंभीरता को इसी से समझा जा सकता है कि फिनलैंड विश्वविद्यालय के शोधार्थियों के अध्ययन में यह साफ हुआ है कि छह में से एक व्यक्ति बैचेनी यानी कि एंजायटी से प्रभावित रहने लगा है। कोरोना के बाद इस तरह के मरीजों की संख्या में 60 फीसदी तक की बढ़ोतरी देखी जा रही है।
यदि अध्ययन कर्ताओं की मानें तो कोविड 19 अर्थात् कोरोना के बाद हालात तेजी से विकट हुए हैं। खासतौर से पैसों वालों व बुजुर्गों की बीमारी से बच्चें प्रभावित होने लगे हैं। बैचेनी, घबराहट, हाथों में कंपन, नींद ना आना, चिडचिडापन, तनावग्रस्त, कुंठा आदि लक्षण दिखने लगते हैं। इससे बच्चों में नकारात्मकता भी आती जा रही है। अधिक चिंता की बात यह है कि यह बीमारी बच्चों में संक्रामक रोग की तरह फैलती जा रही है। कोराना के लॉकडाउन के साथ ही पेरेंट्स की अंधी प्रतिस्पर्धा और अधिक से अधिक पाने की लालसा, बच्चों के बीच परस्पर सहयोग, समन्वय, मित्रता, सहभागिता के स्थान पर संवेदनहीनता और गलाकाट प्रतिस्पर्धा के परिणाम सामने आने लगे हैं। बच्चों में कुंठा तो आम होती जा रही है। रही सही कसर सोशियल मीडिया ने पूरी कर दी है। सोशियल मीडिया जो परस्पर संवाद का माध्यम बन सकता है चह तनाव का प्रमुख कारण बनता जा रहा है। लाइक अनलाइक और कमेंट्स बालमन को नकारात्मक रुप से प्रभावित करता जा रहा है। ऑनलाइन अध्ययन के चलते बच्चों में मोबाइल का शोक लग गया है और उसका नकारात्मक असर वीडियो गेम्स के रुप में देखा जा सकता है जो बच्चों को गेम के चक्कर में डिप्रेशन में जाते हुए देखा जा सकता है। गेम्स बच्चों में तनाव का कारण बनते जा रहे हैं। ओटीटी प्लेटफार्म भी अपना असर दिखाता जा रहा है। रील्स का तो कहना ही क्या? लगता है बच्चों के बालमन को नकारात्मक रुप से प्रभावित करने वाले सभी कारक सामने आते जा रहे हैं। शिक्षण संस्था हो या परिवार खासतौर से एकल परिवार के हालात हालात और भी गंभीर करते जा रहे हैं। हालात यहां तक होते जा रहे हैं कि बच्चें आक्रामक होते जा रहे हैं। बात बात पर झगड़ना या इस तरह का रिएक्शन की सामने वाला कोई भी हो लिहाज तो कहीं देखने को ही नहीं दिखता। मानों बालपन तो कहीं दिखाई नहीं देने लगा है।
समाज विज्ञानियों के सामने यह गंभीर समस्या दस्तक दे रही है। हालात बद से बदतर हो उससे पहले ही समस्या की गंभीरता को समझना होगा। दादा-दादी और नाना-नानी कहीं पीछे छूट रहे हैं, पेरेंट्स अवकाश भी परिवार के साथ बिताने के स्थान पर कहीं घूमने जाना पसंद करने लगे हैं जिससे परिवार और परिवार से मिलने वाले संस्कार खोते जा रहे हैं। एकल परिवार और एक ही बच्चें के कारण कई पारिवारीक संबंध तो इतिहास की बात बन जाएं तो कोई असंभाव्यता नहीं होगी। हालात दिन प्रतिदिन बदतर होते जा रहे हैं और इसके परिणाम आए दिन सामने आते जा रहे हैं। अत्यधिक तनाव के कारण बच्चों को आत्महत्या जैसे कदम उठाते देखा जा रहा है। वहीं बदले की भावना, बात बात में गुस्सैल होना, तुनक मिजाजी आदि तो बस पूछो ही मत। अत्यधिक महत्वाकांक्षा भी तनाव का कारण बनती जा रही है। फिर दूसरे के बच्चों की उन्नति से अपने बच्चें को प्रेरित करने के स्थान पर इस तरह का रिएक्शन देना कि बच्चा प्रोत्साहित होने के स्थान पर निरुत्साहित होने लगे हैं। ऐसे में समाज विज्ञानियों और मनोविज्ञानियों के सामने अधिक चुनौती पूर्ण समय आ गया है। समय रहते इसका समाधान खोजना ही होगा नहीं तो दुनिया के देशों में जिस तरह से बच्चों को छोटी उम्र में ही हिंसक होते देखा जा रहा है उसमें कमी होने के स्थान पर गंभीरता पूर्वक हालात बदतर ही होंगे। इसका समाधान खोजना होगा नहीं तो आने वाली पीढ़ी किसी भी हालत में हमें माफ नहीं करेगी।
दरअसल यह समस्या इसलिए और अधिक गंभीर हो जाती है कि संक्रामक रोग की तरह इसके असर देखे जा रहे हैं। कहते हैं ना कि संगत का असर पड़ता है तो यह सीधे सीधे साथ वाले बच्चों को प्रभावित करने लगा है। लाख प्रयासों के बावजूद बच्चों का बालसुलभ मन कहीं खोता जा रहा है। यह समाज के लिए बडी चुनौती है और इसका समाधान घर से ही खोजना होगा।
- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा