Chandrashekhar Azad Death Anniversary: चंद्रशेखर आजाद ने मातृभूमि के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी

By अनन्या मिश्रा | Feb 27, 2024

भारतीय स्वतंत्रता में न जाने कितने वीरों ने अपनी जान गंवाकर हमारे देश को आजादी दिलवाई है। जहां गांधीजी ने अंहिसा के मार्ग पर चलकर अंग्रेजों का सामना किया तो भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद जैसे महान स्वतंत्रता सेनानियों ने अपनी जानपर खेलकर दुश्मनों के छक्के छुड़ाए थे। एक दौऱ था जब चंद्रशेखर आजाद का नारा हर युवा दोहरा कर दोगुने जोश के साथ आजादी की लड़ाई में शामिल होता था। आजाद कहते थे 'दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे, हम आजाद हैं और आजाद ही रहेंगे।' आज ही के दिन यानि की 27 फरवरी को यह महान क्रांतिकारी वीरगति को प्राप्त हुआ था। उनकी डेथ एनिवर्सिरी पर जानते हैं उनकी जिंदगी और देश प्रेम के बारे में...


जन्म और शिक्षा

मध्य प्रदेश के भाबरा गांव में 23 जुलाई सन् 1906 को चंद्रशेखर आजाद का जन्म हुआ था। उस दौरान इनके पिता पंडित सीताराम तिवारी नौकरी के काऱण उत्तर प्रदेश को छोड़कर मध्य प्रदेश अलीराजपुर रियासत में भाबरा गांव में रहने लगे थे। आजाद बचपन से ही विद्रोही स्वभाव के थे। आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में स्थित भाबरा गांव में ही आजाद का पूरा बचपन बीता। आजाद ने भील बालकों के साथ मिलकर निशानेबाजी सीखी और कुछ ही दिनों में यह निशानेबाजी में पारंगत हो गए। जलियांवाला बाग कांड के दौरान आजाद बनारस में पढ़ाई कर रहे थे। वह बहुत कम उम्र से ही आजादी की लड़ाई में जुड़ गए थे।

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कैसे पड़ा आजाद नाम

साल 1921 में गांधीजी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया तो आजाद अपनी पढ़ाई छोड़कर सड़कों पर उतर आए। उस दौरान असहयोग आंदोलन अपने चरम पर था। ऐसे में महज 15 साल की उम्र में आजाद को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया। इस दौरान नाम और पता पूछे जाने पर उन्होंने अपना नाम आजाद बताया और जेल को अपना पता बताया। जिस पर मजिस्ट्रेट ने उन्हें 15 कोड़ों की सजा सुनाई थी। लेकिन सजा के दौरान आजाद ने उफ्फ तक नहीं किया। बल्कि हर कोड़े के साथ वह भारत माता की जय के नारे लगाते रहे। सजा भुगतने के लिए उन्हें तीन आने दिए गए थे। जिसे आजाज ने जेलर के मुंह पर फेंक दिया था। इस घटना के बाद से लोगों ने उन्हें आजाद बुलाना शुरू कर दिया था।


काकोरी कांड 

चंद्रशेखर को जलियांवाला बाग कांड के बाद समझ में आया कि बंदूक के बिना आजादी नहीं मिलेगी। साल 1922 में गांधीजी ने चौरी चौरा की घटना के बाद अपना आंदोलन वापस ले लिया। जिसके बाद उन्होंने कांग्रेस से नाता तोड़ दिया। वह 1924 में ण्डित राम प्रसाद बिस्मिल और शचीन्द्रनाथ सान्याल योगेश चन्द्र चटर्जी द्वारा गठित हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़ गए। फिर आजाद ने 1925 में रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में काकोरी कांड में भाग लिया। धन की कमी को दूर करने के लिए आजाद ने अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ मिलकर ऐतिहासिक काकोरी ट्रेन डकैती को अंजाम दिया। जिसका ब्रिटिश सरकार पर गहरा असर पड़ा था।


शहादत

चंद्रशेखर आजाद इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में सुखदेव और अन्य साथियों के साथ मिलकर अंग्रेजों से लड़ाई करने के लिए योजना बना रहे थे। वहीं अंग्रेजों को इस बात की जानकारी पहले ही लग चुकी थी। ब्रिटिश सरकार की नींव हिलाने वाले चंद्रशेखर आजाद को सरकार किसी भी हालत में गिरफ्तार करना चाहती थी। जिसके चलते सैकड़ों अंग्रेज पुलिस ने पार्क में उनपर हमला कर दिया। आजाद ने सुखदेव और अन्य साथियों को बचाने के लिए पुलिस पर जवाबी कार्यवाही की। साथियों को मौके से भगाने के बाद वह अंग्रेजों से अकेले लोहा लेने लगे। इस लड़ाई में वह बुरी तरह से घायल हो गए। इस दौरान वह 20 मिनट तक अकेले अंग्रेजों का सामना करते रहे। आजाद ने संकल्प लिया था कि वह कभी ब्रिटिश सरकार के हाथ नहीं लगेंगे। अपने इसी संकल्प को पूरा करने के लिए आजाद ने आखिरी गोली खुद को मारकर भारत माता के लिए अपने प्राणों की आहूति दे दी।


इलाहाबाद के म्यूजियम में है आजाद की पिस्टल

इलाहाबाद के जिस अल्फ्रेड पार्क में आजाद ने जिस पिस्‍तौल से अपने आप को गोली मारी थी। उसे पिस्तौल को अंग्रेज इंग्लैंड लेकर चले गए थे। जिसके बाद इसे वहां के म्यूजियम में रखा गया था। वहीं भारत सरकार के तमाम प्रयासों के बाद आजाद की पिस्तौल को भारत वापस लाया गया। बता दें कि अभी भी आजाद की पिस्तौल इलाहाबाद के म्‍यूजियम में रखी है। आजाद ने पूरी उम्र अंग्रेजों के हाथों गिरफ्तार न होने के अपने संकल्प को पूरा किया। 27 फरवरी 1931 को वह अंग्रेजों के साथ लड़ाई करते हुए हमेशा के लिए अपना नाम इतिहास में अमर कर गए।

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