चायवाले प्रधानमंत्री हैं, संत मुख्यमंत्री हैं और अब आदिवासी समुदाय से राष्ट्रपति हैं

By डॉ. रमेश ठाकुर | Jul 22, 2022

राष्ट्रपति पद यानी देश का राजा, इस गरिमा को ध्यान में रखकर आजादी के बाद से बनी स्वयंभू व्यवस्थाओं के चलते रसूख और बड़ी हैसियत वाले व्यक्तियों को ही महामहिम की कुर्सी पर आसान कराया जाता रहा। पंक्ति में खड़ा अंतिम व्यक्ति देश का महामहिम बने, ऐसी कोई कल्पना तक नहीं कर सकता था। पर, अब वैसी सोच और वो पुरानी रिवायतें बदल चुकी हैं। देश की सियासत में रोजाना नित कोई ना कोई अप्रत्याशित चमत्कार हो रहे हैं। यूं कहें कि राष्ट्रपति पद का इतिहास अब पहले के मुकाबले बदल दिया गया है। क्योंकि इंसान और उसकी इंसानियत से बढ़कर कोई औहदा नहीं होता। शायद ये हमारी भूल थी कि हमने इंसान के बनाए औहदों को व्यक्ति विशेष से बड़ा समझा। इंसान से ही सभी चीजें सुशोभित हैं, वरना धरती, आकाश, जल जंगल, घर, संसार सभी वीरान हैं।


बहरहाल, अगर कायदे से विचार करें तो समझ में आता है कि किसी भी पद-प्रतिष्ठा पर किसी का भी हक हो सकता है और होना भी चाहिए? फिर चाहे कोई आम हो या खास। कमोबेश, यही इस बार के राष्ट्रपति चुनाव में देखने को मिला। एक अति शोषित, पिछड़े आदिवासी समाज की बेटी को पहली बार राष्टृपति बनाया गया है जो सपनों और कल्पनाओं से काफी परे है। इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दूरगामी और सर्वसम्मानी सोच का अक्स दिखता है। उनकी अकल्पनीय और जिंदा कल्पनाओं का ही असर है कि मौजूदा समय में देश का जनमानस ऐसी बदली हुई तस्वीरें देख पा रहा है। भारत के राजनैतिक इतिहास में पहली मर्तबा ऐसा हुआ है जब प्रधानमंत्री पद पर कोई चाय बेचने वाला आसीन है, मठ-मंदिर में पूजा-अर्चना करने वाला संत मुख्यमंत्री बनकर जनता की सेवा में लगा हो और उसी कड़ी में अब राष्ट्रपति पद पर आदीवासी समाज से ताल्लुक रखने वालीं बेहद सरल-सादगी की मूर्ति द्रौपदी मुर्मू जैसी समान्य महिला विराजमान हुई हों।

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दरअसल, ये सब बदलती राजनीति परपाटी की ही देन है, जिसके लिए इच्चाशक्ति और ईमानदारी का होना जरूरी है। शायद द्रौपदी मुर्मू ने भी कभी ना सोचा हो कि एक दिन देश के सर्वोच्च पद की सोभा बढ़ाएंगी। लेकिन अब असल में ऐसा हो चुका है। द्रौपदी मुर्मू के प्रथम महिला व हिंदुस्तान की 15वीं राष्ट्रपति निर्वाचित होने पर समूचा देश गौरवान्वित है, विशेषकर उनका आदिवासी समाज! जो उनके निर्वाचन के ऐलान के बाद से ही ढोल-नगाड़े बजाकर जीत की खुशियां मनाने में लगा है, आपस में मिठाईयां बांट रहे हैं। गांव में लोग खुशी से झूम रहे हैं। दरअसल, ये ऐसा समाज है जो शुरू से हाशिए पर रहा, कागजों में उनके लिए पूर्ववर्ती हुकूमतों ने जनकल्याकारी योजनाओं की कोई कमी नहीं छोड़ी, लेकिन धरातल पर सब शून्य। जंगलों में रहना, कोई स्थाई ठौर ना होना, रोजगार-धंधों में भागीदारी ना के बराबर रही। उनकी असली पहचान गरीबी और मजबूरी ही रही। रंगभेद का भी शिकार हमेशा से होते रहे हैं। कायदे से आज तक इनका किसी ने भी ईमानदारी से प्रतिनिधित्व नहीं किया। ऐसा भी नहीं कि संसद या विधानसभाओं में इनके जनप्रतिनिधि ना आए हों, आए पर उन्होंने सिर्फ अपना भला किया, अपने समुदाय को पीछे छोड़ दिया।


हालांकि इसके पीछे कुछ कारण भी रहे, आदिवासी जनप्रतिनिधियों की कोशिशों को किसी ने सिरे से चढ़ने भी नहीं दिया। द्रौपदी मुर्मू के साथ भी ऐसा ही हुआ। पार्षद से लेकर विधायक, मंत्री और राज्यपाल तक रहीं लेकिन उनके मूल गांव में बिजली नहीं पहुंच पाई, जिसके लिए उन्होंने प्रयासों की कोई कमी नहीं छोड़ी। दरअसल बात घूम फिर के वही आ जाती है कि इस समुदाय पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। राष्ट्रपति बनने के बाद इस समुदाय को उनसे बहुत उम्मीदें हैं। कितना कर पाएंगे ये तो वक्त ही बताएंगा, लेकिन उनकी जीत पर समूचा आदीवासी समाज गदगद है, खुशी से झूम रहा है। साथ ही अभी से खुद को विकास की मुख्यधारा से जुड़ा देख रहा है। द्रौपदी मुर्मू उनकी आखिरी उम्मीद हैं, अगर वह भी कुछ नहीं कर सकीं, तो यहीं से उनकी आखिरी ख्वाहिशें दम तोड़ देंगी। उम्मीद है ऐसा ना हो, नई महामहिम अपने समुदाय के लिए कुछ करें, उनके सुदीर्घ सामाजिक, राजनीतिक, सार्वजनिक जीवन के अनुभव का लाभ लेने की प्रतीक्षा में हैं उनका अपना मूल समुदाय।

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द्रौपदी मुर्मू को लेकर लोगों में एक डर है। कहीं उनकी आड़ में कोई राजनीतिक स्वार्थ तो पूरा नहीं करना चाहता। इस डर का समाज भुक्तभोगी है। जब रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया था, तब प्रचारित किया गया था कि उनके आने के बाद दलित समाज का उद्धार होगा, समस्या दूर होंगी, तब दलित समुदाय बेहद खुश था। लेकिन बीते पांच वर्षों में उन्होंने अपने समुदाय के हित में क्या किया, ये शायद बताने की जरूरत नहीं? हां, इतना जरूर है कि उनके जरिए दलित समुदाय का बहुसंख्यक वोट जरूर हासिल किया गया। काश, ऐसा द्रौपदी मुर्मू के साथ भी ना हो? क्योंकि राजस्थान जैसे प्रदेशों में चुनाव होने हैं, जहां आदिवासियों की संख्या बहुत ज्यादा है। क्या उन्हें साधने के लिए ही तो ये सब नहीं किया गया। ऐसी आशंकाएं लोगों के मन में हैं। इसके अलावा छत्तीसगढ़ और ओडिसा प्रदेश हैं जो उनका मूल राज्य भी है वहां आदिवासियों की संख्या अनगिनत है। ओडिशा भाजपा के आगामी एजेंडे में है जहां दशकों से नवीन पटनायक सत्ता संभाले हुए हैं। उन्हें हटाने के लिए कई पार्टियों ने अपने जनाधार को बढ़ाने का प्रयास किया, लेकिन पटनायक की लोकप्रियता के सामने किसी की नहीं चली। भाजपा अब उनके किले को भेदना चाहती है जिसमें द्रौपदी का निर्वाचन शायद मील का पत्थर साबित हो सकता है।  


-डॉ. रमेश ठाकुर

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