केन्द्र ने वित्त विधेयक, 2017 को धन विधेयक के रूप में प्रमाणित करने को सही ठहराया

By प्रभासाक्षी न्यूज नेटवर्क | Apr 03, 2019

नयी दिल्ली। केन्द्र ने वित्त विधेयक, 2017 के धन विधेयक के रूप में प्रमाणीकरण को मंगलवार को उच्चतम न्यायालय में न्यायोचित ठहराते हुये कहा कि इसके प्रावधानों में न्यायाधिकरणों के सदस्यों को भुगतान किये जाने वाले वेतन और भत्ते भारत की संचित निधि से आते हैं। प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने वित्त अधिनियम, 2017 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर मंगलवार को सुनवाई पूरी कर ली। इस कानून को चुनौती देते हुये कहा गया है कि संसद ने इसे धन विधेयक के रूप में पारित किया है। पीठ ने कहा कि इस मामले में फैसला बाद में सुनाया जायेगा। संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति एन वी रमण, न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़, न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना शामिल हैं। केन्द्र की ओर से अटार्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने दलील दी कि लोकसभा अध्यक्ष ने वित्त अधिनियम को धन विधेयक के रूप में प्रमाणित किया है और न्यायालय इस फैसले की न्यायिक समीक्षा नहीं कर सकता है।

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वेणुगोपाल ने वित्त अधिनियम को धन विधेयक के रूप में प्रमाणित करने के निर्णय को न्यायोचित ठहराते हुये कहा कि यह भारत की संचित निधि से मिलने वाले धन और उसके भुगतान के बारे में है। उन्होंने कहा कि इसके एक हिस्से को नहीं बल्कि पूरे को ही धन विधेयक के रूप में प्रमाणित किया गया है, इसलिए इसके किसी हिस्से को अलग करके यह नहीं कहा जा सकता है कि इसे धन विधेयक नहीं माना जा सकता। वेणुगोपाल ने संचित निधि से न्यायाधिकरणों पर खर्च होने वाले धन से संबंधित प्रावधानों का हवाला देते हुये कहा कि न्यायाधिकरणों के सदस्यों के वेतन और भत्ते संविधान के अनुच्छेद 110 (1)(जी) में उल्लिखित मामलों के तहत आयेंगे।

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अटार्नी जनरल ने अपनी दलीलों के लिये आधार मामले में शीर्ष अदालत के उस फैसले का सहारा लिया जिसमें कहा गया था कि आधार कानून का मुख्य उद्देश्य संचित निधि से समाज के हाशिए वाले वर्गों तक सामाजिक योजनाओं का लाभ पहुंचाना है। याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता अरविन्द दातार ने दलील दी कि न्यायाधिकरण के सदस्यों को वेतन और भत्तों के भुगतान की बात करने वाला विधेयक अपने आप में ही इसे धन विधेयक नहीं बनाता है। उन्होंने न्यायाधिकरणों को स्वतंत्र बनाने पर जोर देते हुये कहा कि उनकी मुख्य न्यायिक ड्यूटी को नहीं लिया जा सकता है या फिर उन्हें कम से कम कानून मंत्रालय के नियंत्रण में लाया जा सकता है जैसा कि शीर्ष अदालत के 1997 और 2010 के फैसलों में कहा गया था।

 

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