By अजय कुमार | May 22, 2021
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार के 'आंख-कान-नाक’ इस समय इसी में लगे हैं कि किस तरह से जानेलवा कोरोना महामारी पर विजय प्राप्त की जा सके। किसी भी सरकार के लिए इतने लम्बे समय तक महामारी से मुकाबला करना आसान नहीं होता है। पिछले साल-डेढ़ साल में कोरोना ने समाज और अर्थव्यवस्था का काफी नुकसान पहुंचाया है। भले ही समय के साथ कोरोना के ‘जख्मों’ की पीड़ा कुछ कम हो जाए, लेकिन जिन्होंने इस महामारी में अपनों को खोया है, उनके लिए तो कोरोना की कड़वी यादों को भुलाना असंभव ही होगा। न जानें कितनी जिंदगियां तबाह हो गईं ? कितनों के घर उजड गए। सरकार भरसक प्रयास कर रही है कि जल्द से जल्द स्थितियां सामान्य हो जाएं। कोरोना ऐसी महामारी है जिस पर पार पाना किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं है। अभी भी कुछ राज्यों और जिलों में इसका रौद्र रूप जारी है।
महामारी ने हमारी स्वास्थ्य सेवाओं की पोल खोकर रख दी तो इस बात के भी संकेत दे दिए कि देश पर चाहे जितना भी बड़ा संकट या आपदा क्यों न आए, कुछ भ्रष्टाचारियों, रिश्वतखोरों और कालाबाजारी करने वालों की सेहत पर इसका कोई असर नहीं पड़ता है। संकट की इस घड़ी में जब सरकार से लेकर विभिन्न क्षेत्रों के तमाम छोटे-बड़े लोग महामारी का मुकाबला करने के लिए कंधे से कंधा मिलाकर समाज और सरकार को पूरा सहयोग दे रहे है, तभी कुछ लोग इसमें भी पैसा कमाने और मौका तलाशने में जुटे हैं। ऐसे लोगों पर सरकार शिकंजा कस रही है। अनेक लोग पकड़े भी जा चुके हैं, लेकिन उन लोगों का क्या जिन्हें आपदा की इस घड़ी में भी अपनी राजनीति चमकाने की चिंता है। आखिर जब जनता कोरोना महामारी से त्राहिमाम कर रही हो तब कोई नेता इसको अपनी सियासत चमकाने का मौका कैसे बना सकता है। अब तो बात यहां तक चलने लगी है कि पश्चिम बंगाल की कहानी यूपी में दोहराई जाएगी। यह बयान किसी साधारण नेता का नहीं पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का है, जिन्हें लगता है कि बंगाल में बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा है। जबकि हकीकत यह है कि बीजेपी बंगाल में 03 सीटों से 77 सीटों पर पहुंच कर वहां मुख्य विपक्षी दल बन गई है। यदि यूपी में भी बंगाल जैसे नतीजे आए तो यहां तो बीजेपी को अबकी से चार सौ के पास पहुंच जाना चाहिए। यह हम नहीं सपा प्रमुख अखिलेश यादव का चुनावी गणित बता रहा है। सवाल यही है कि जब करीब-करीब हर परिवार या उसका कोई सदस्य इस समय कोरोना पीड़ित है तो उस समय उसकी पीड़ा को भूलकर कोई पार्टी या नेता चुनाव की सोच भी कैसे सकता है।
समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव हों या कांग्रेस का गांधी परिवार और उसके आगे-पीछे घूमने वाली ‘मंडली’ के लोगों को अगर लगता है योगी सरकार को ‘बदनाम’ करके वह 2022 के विधान सभा चुनाव जीत सकते हैं तो यह उनकी गलतफहमी है। आज जैसी कोशिशें योगी को बदनाम किए जाने की चल रही हैं, वैसी साजिशें गुजरात के मुख्यमंत्री रहते नरेन्द्र मोदी के खिलाफ कांग्रेस द्वारा करीब दो दशक तक मुहिम की तरह चलाई गई थीं, जिसका नेतृत्व तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी कर रही थीं, पंरतु नतीजा क्या रहा। कांग्रेस गुजरात की सत्ता से तो मोदी को हटा ही नहीं पाई, उलटे मोदी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हो गए और कांग्रेस मोदी-मोदी करते हुए रसातल में पहुंच गई है। कुछ ऐसी ही परिस्थितियां यूपी में पैदा की जा रही हैं। बस फर्क इतना है कि गुजरात में कांग्रेस घृणा की राजनीति का खेल, खेल रही थी और यूपी में अखिलेश यादव इसकी अगुवाई कर रहे हैं। अखिलेश को नहीं भूलना चाहिए कि भले ही वह सत्ता में न हों, लेकिन विपक्ष में रहते हुए भी उनकी कुछ जिम्मेदारियां हैं।
लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका भी लक्ष्मण रेखा की तरह से निर्धारित की गई है, जिसका सभी विरोधी दलों के नेताओं को पालन करना चाहिए। यह बात अखिलेश पर भी लागू होती है आखिर वह सत्ता में न रहने के बावजूद जनप्रतिनिधि तो हैं ही, इस हैसियत से उन्हें जनता को बरगलाने की जगह समझाने का काम करना चाहिए था। शायद ही कोई दिन ऐसा जाता होगा जब अखिलेश सोशल मीडिया के माध्यम से बीजेपी और मोदी-योगी सरकार को खरी खोटी नहीं सुनाते हों। वह कोरोना पर राजनीति करते हैं, वैक्सीन पर सवाल उठाते हैं। ऑक्सीजन और दवाओं की कमी पर सरकार को घेरते हैं। मगर अपने आप से नहीं पूछते हैं कि वह योगी की तरह घर से बाहर निकलकर जनता के दुख-दर्द को बांटने का काम क्यों नहीं करते हैं। अखिलेश यादव के पिछले कुछ महीनों का कार्यक्रम देख लिया जाए तो यह समझने में देरी नहीं लगेगी कि अखिलेश एक-दो मौकों का छोड़कर घर से बाहर निकले ही नहीं हैं। निकले भी होंगे तो कभी पंचायत चुनाव में वोट डालने या फिर पारिवारिक कारणों से। वैसे इसमें कुछ नया भी नहीं हैं क्योंकि अखिलेश प्रदेश की जनता को वोट बैंक से अधिक कुछ समझते ही कहां हैं, यह बात किसी से छिपी नहीं है।
सत्ता में रहते भी अखिलेश जनता से मेल-मिलाप बढ़ाना या मुलाकात करना पसंद नहीं करते थे। इसीलिए उन्हें 2014 के लोकसभा चुनाव से लेकर 2017 के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव में ही नहीं, कई उप-चुनावों में भी करारी हार का सामना करना पड़ा था। रही बात हाल में सम्पन्न हुए पंचायत चुनाव की तो भले ही समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव नतीजों को लेकर जनता के सामने अपनी पीठ थपथपा रहे हों, परंतु 2021 पंचायत चुनाव के नतीजे समाजवादी पार्टी के लिए किसी ‘आईने’ से कम नहीं हैं। समाजवादी पार्टी 2016 के पंचायत चुनाव तक का आंकड़ा नहीं छू पाई है। ऐसा नहीं है कि कोरोना महामारी के चलते योगी सरकार की लोकप्रियता का ग्राफ गिरा है बल्कि योगी की प्रयासों की तरीफ हो रही है। यह तारीफ बीजेपी नहीं अन्य राज्यों की हाईकोर्ट कर रहे हैं। विदेशों तक में योगी के काम करने के तरीके की चर्चा है, लोग योगी के महामारी से निपटने के तौर-तरीके से काफी खुश हैं। कोरोना को नियंत्रित करने के लिए योगी सरकार द्वारा लिए गए निर्णयों से प्रभावित होकर अन्य राज्यों की सरकारें भी उस पर अमल कर रही हैं, इसमें कुछ कांग्रेस की राज्य सरकारें भी हैं।
अच्छी बात यह है कि जिस रास्ते पर अखिलेश यादव चल रहे हैं वह रास्ता बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने नहीं पकड़ा है। ऐसा लगता है कि मायावती का नकारात्मक राजनीति से मोह भंग हो गया है। इसीलिए वह कोरोना महामारी के समय जनता को भड़काने की बजाए योगी सरकार को सही रास्ता दिखाने का ज्यादा प्रयास करती हुई दिखती हैं। मायावती के कुछ सुझाव सरकार को सकारात्मक भी लगे हैं। आजकल मायावती उतना ही बोलती हैं जितना जरूरी होता है। कम शब्दों में वह मोदी-योगी सरकार के सामने बसपा का नजरिया प्रकट करती हैं। कहीं कोई धमकी नहीं कहीं कोई झूठा गुस्सा नहीं। इसीलिए पूर्व सीएम मायावती यह कहकर चुप हो जाती हैं कि पंचायत चुनाव के बाद गांव देहात में कोरोना फैलने से लोग दशहत में हैं। सरकार को इसकी रोकथाम के लिए युद्धस्तर पर काम करना चाहिए, वहीं मायावती देश के विभिन्न राज्यों में कोरोना वैक्सीन व अस्पतालों में इलाज हेतु ऑक्सीजन की जबर्दस्त कमी को देखते हुए केन्द्र सरकार से अनुरोध करती सुनाई पड़ जाती हैं कि ऑक्सीजन की सप्लाई सुनिश्चित करने के लिए प्राथमिकता के आधार पर मोदी सरकार विशेष ध्यान दे और यदि इसके लिए आयात करने की जरूरत पड़ती है तो आयात भी किया जाए। एक तरफ सरकार को संदेश तो दूसरी तरफ देश की जनता से भी वह बार-बार अपील कर रही हैं कि राज्य सरकारों द्वारा कोरोना महामारी से बचाव के उपाय के तहत जो भी सख्ती तथा सरकारी गाइड लाइन्स बतायी जा रही हैं हैं उसका सही से अनुपालन करें ताकि कोरोना प्रकोप की रोकथाम हो सके अर्थात् लोग भी अपनी जिम्मेदारी को निभाएं। इसके अलावा मायावती इस बात पर भी चिंता जताती हैं कि कोरोना वायरस अब युवाओं को भी अपनी चपेट में लेने लगा है। अतः वह यह कहने से भी गुरेज नहीं करती हैं कि कोरोना वैक्सीन के संबंध में उम्र की सीमा के संबंध में भी केन्द्र सरकार को यथाशीघ्र पुनर्विचार करना चाहिए। अफसोस ऐसी भाषा अखिलेश ही नहीं राहुल-प्रियंका को भी समझ में नहीं आती है। यह नेता कोरोना से हालात सुधरें इसकी बजाए हालात बिगाड़ने की मुहिम में ज्यादा लगे हैं। कहीं सपा-कांग्रेस की यही हठधर्मी एक बार फिर उन्हें हाशिये पर नहीं ढकेल दें क्योंकि जनता सब जानती है। उसे बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता है।
-अजय कुमार