By ललित गर्ग | Dec 10, 2021
आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक महान सेनानी चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के योगदान को याद करना एक सुखद अहसास है। इस लड़ाई में उन्होंने पर्दे के पीछे से चुपचाप कार्य किया और देश की अनूठी एवं अविस्मरणीय सेवाएं की। ऐसे महानायक ने शोर-शराबे से दूर रहकर अपना काम किया। जिन्हें प्यार से लोग राजाजी कहकर बुलाते थे। भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान “भारत रत्न” के वे प्रथम हकदार बने और भारत के आखिरी गवर्नर जनरल भी वे ही थे। वे जितने कद्दावर के राजनीतिज्ञ थे उतने ही गहन आध्यात्मिक भी थे। उन्होंने राजनीतिक समस्याओं के अतिरिक्त धार्मिक तथा सांस्कृतिक विषयों पर भी साधिकार कलम चलाई, एक नई दृष्टि एवं दिशा दी। इस दृष्टि से वे एक महान साहित्यकार, विचारक, महामनीषी एवं चिन्तक थे।
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, यह नाम भारतीय इतिहास का एक ऐसा स्वर्णिम पृष्ठ है, जिससे एक सशक्त जननायक, स्वप्नदर्शी राजनायक, आदर्श चिन्तक, दार्शनिक के साथ-साथ युग को एक खास रंग देने की महक उठती है। उनके व्यक्तित्व के इतने रूप हैं, इतने आयाम हैं, इतने रंग है, इतने दृष्टिकोण हैं, जिनमें वे व्यक्ति और नायक हैं, दार्शनिक और चिंतक हैं, प्रबुद्ध और प्रधान है, वक्ता और नेता हैं। उनकी उपलब्धियों के वैराट्य को देखते हुए उनको दी गयी ‘राजाजी’ की उपाधि उचित है। उन्हें भारतीय राजनीति के शिखर पुरुष कहा जाता है। गीता, रामायण और महाभारत के अनुवाद उन्होंने अपने ढंग से किए। मौलिक कहानियों के सृजन में वे सिद्धहस्त थे। मोपासां और खलील जिब्रान की तरह उन्होंने जीवन के गहन से गहन तत्व पर बड़ी सहज-सरल भाषा में अपनी अभिव्यक्ति दी। साहित्य अकादमी ने उन्हें उनकी पुस्तक ‘चक्रवर्ती थिरुमगम्’ पर सम्मानित किया। उन्होंने कुछ दिनों तक महात्मा गांधी के ‘यंग इंडिया’ का संपादन कर इस क्षेत्र में भी अपनी प्रतिभा प्रदर्शित की थी। वे शराब की बिक्री और लाटरी पर प्रतिबंध लगाने के प्रबल पक्षधर थे। शराब से होने वाली आय की कमी पूरी करने के लिए उनके सुझाव पर सबसे पहले मद्रास में बिक्री कर लगाया गया था। 1946 में जब नेहरू के नेतृत्व में अंतरिम सरकार बनी तब उन्हें उद्योग तथा वाणिज्य मंत्री बनाया गया। बाद में शिक्षा व वित्त मंत्रालय भी उन्हें दे दिया गया। स्वराज्य मिलने पर उन्हे भारत का प्रथम गवर्नर जनरल मनोनीत किया गया। इस पद से अवकाश ग्रहण करने के बाद जब सरदार पटेल का निधन हो गया तो वह गृहमंत्री बने।
गांधीवादी राजनीतिज्ञ चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को आधुनिक भारत के इतिहास का ‘चाणक्य’ माना जाता है। बीसवीं शताब्दी के भारत के महान सपूतों की सूची में कुछ नाम हैं जो अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं, उनमें राजाजी का नाम प्रथम पंक्ति में है, वे राजनीति में एक रोशनी बने और वह रोशनी अनेक मोड़ों पर नैतिकता का, राष्ट्रीयता का सन्देश देती है कि राजनीति में घाल-मेल से अलग रहकर भी जीवन जीया जा सकता है। निडरता से, शुद्धता से, स्वाभिमान से, स्वतंत्र सोच से। राजगोपालाचारीजी एक बहुआयामी व्यक्तित्व थे, उनकी बुद्धि चातुर्य और दृढ़ इच्छाशक्ति के कारण महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, और सरदार पटेल जैसे अनेक उच्चकोटि के कांग्रेसी नेता भी उनकी प्रशंसा करते नहीं अघाते थे। विलक्षण प्रतिभा, राजनीतिक कौशल, कुशल नेतृत्व क्षमता, बेवाक सोच, निर्णय क्षमता, दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता के कारण कांग्रेस के सभी नेता उनका लोहा मानते रहे। कांग्रेस से अलग होने पर भी यह अनुभव नहीं किया गया कि वह उससे अलग हैं। वे गांधीवादी सिद्धान्तों पर जीने वाले व्यक्तियों की श्रृंखला के शिखर पुरुष थे। उन्हें हम राजनैतिक जीवन में शुद्धता का, मूल्यों का, आदर्श के सामने राजसत्ता को छोटा गिनने का या सिद्धान्तों पर अडिग रहकर न झुकने, न समझौता करने का प्रतीक पुरुष कह सकते हैं।
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का जन्म 10 दिसंबर 1878 को तमिलनाडु के सेलम जिले के होसूर के पास धोरापल्ली नामक गांव में हुआ। वैष्णव ब्राह्मण परिवार में जन्मे चक्रवर्तीजी के पिता नलिन चक्रवर्ती थे, जो सेलम न्यायालय में न्यायाधीश के पद पर कार्यरत थे। राजगोपालाचारी की प्रारंभिक शिक्षा गांव के ही स्कूल में हुई। इंटरमीडिएट परीक्षा बंगलौर के सेंट्रल कॉलेज से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने वकालत भी की। योग्यता और प्रतिभा के बल पर उनकी गणना सेलम के प्रमुख वकीलों में की जाने लगी। चक्रवर्ती पढ़ने-लिखने में विलक्षण एवं तीक्ष्ण बुद्धि के तो थे ही, देशभक्ति और समाजसेवा की भावना भी उनमें स्वाभाविक रूप से विद्यमान थी। वकालत के दिनों में वे स्वामी विवेकानंद के विचारों से प्रभावित हुए और वकालत के साथ समाज सुधार के कार्यों में सक्रिय रूप से रुचि लेने लगे। उनकी समाजसेवा की भावना को देखते हुए जनता ने उन्हें सेलम की म्युनिसिपल कॉपोरेशन का अध्यक्ष चुन लिया। इस पद पर रहते हुए उन्होंने अनेक नागरिक समस्याओं का तो समाधान किया है, साथ ही तत्कालीन समाज में व्याप्त ऐसी सामाजिक बुराइयों का भी जमकर विरोध किया, जो उन्हीं के जैसे हिम्मती व्यक्ति के बस की बात थी। सेलम में पहली सहकारी बैंक की स्थापना का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। वे शब्दों के जादूगर और ज्ञान के भंडार थे तो उनका मजाकिया अंदाज भी खूब था।
राजागोपालाचारी को महात्मा गांधी ने अपना ‘कॉनशंस कीपर’ यानी विवेक जागृत रखने वाला कहा था। राजाजी के राजनीति में आने की वजह गांधी ही बने। पहली ही मुलाकात में गांधीजी ने उन्हें मद्रास में सत्याग्रह आंदोलन का नेतृत्व करने का आह्वान किया। इस दौरान वे जेल भी गए। जेल से छूटते ही वे अपनी वकालत और तमाम सुख-सुविधाओं को त्याग, पूर्ण रूप से स्वतंत्रता संग्राम को समर्पित हो गए और खादी पहनने लगे। चक्रवर्ती देश की राजनीति और कांग्रेस में इतना ऊंचा कद प्राप्त कर चुके थे कि गांधीजी भी प्रत्येक कार्य में उनकी राय लेने लगे थे। वे गांधीजी के समधी भी थे। राजाजी की पुत्री लक्ष्मी का विवाह गांधीजी के सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी से हुआ था।
राजाजी गांधी के कोरे समर्थक ही नहीं थे, बल्कि उनके विरोधी भी बने। दूसरे विश्व युद्ध का आरम्भ हुआ, कांग्रेस और चक्रवर्ती के बीच पुनः ठन गयी। इस बार वह गांधीजी के भी विरोध में खड़े थे। गांधीजी का विचार था कि ब्रिटिश सरकार को इस युद्ध में मात्र नैतिक समर्थन दिया जाए, वहीं राजाजी का कहना था कि भारत को पूर्ण स्वतंत्रता देने की शर्त पर ब्रिटिश सरकार को हर प्रकार का सहयोग दिया जाए। यह मतभेद इतने बढ़ गये कि राजाजी ने कांग्रेस की कार्यकारिणी की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद 1942 में ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन प्रारम्भ हुआ, तब भी वह अन्य कांग्रेसी नेताओं के साथ गिरफ्तार होकर जेल नहीं गये। इसका अर्थ यह नहीं कि वह देश के स्वतंत्रता संग्राम या कांग्रेस से विमुख हो गये थे।
राजाजी हिन्दी के प्रबल समर्थक थे। एक समय हिंदी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा देने की पैरवी करने वाले राजाजी के विचार 60 के दशक में भले ही बदल गए। फिर भी तमिलभाषी राजगोपालाचारी हिंदी को प्रतिष्ठा दिलाने के लिए आजीवन संघर्षशील रहे। सबसे पहले गैर-हिंदीभाषी राज्यों में से एक तत्कालीन मद्रास प्रांत में हिंदी की शिक्षा अनिवार्य कराने का श्रेय उन्हें जाता है। उनका मानना था कि हिंदी ही एकमात्र भाषा है, जो देश को एक सूत्र में बांध सकती है। वे अहिंसक एवं अहिंसावादी थे। विश्व में परमाणु हथियारों की होड़ को लेकर वे बेहद चिंतित थे और सबसे बड़ी बात जो उन्हें कचोटती थी, वह थी देश में कांग्रेस पार्टी का विकल्प न होना। उन्होंने भारतीय जात-पात के आडंबर पर भी गहरी चोट की। कई मंदिरों में जहां दलित समुदाय का मंदिर में जाना वर्जित था, इन्होंने इस नियम का डटकर विरोध किया। इसके कारण मंदिरों में दलितों का प्रवेश संभव हो सका। 1938 में इन्होंने एग्रीकल्चर डेट रिलीफ एक्ट कानून बनाया ताकि किसानों को कर्ज से राहत मिल सके। अपनी वेशभूषा से भारतीयता के दर्शन कराने वाले इस महापुरुष का 28 दिसंबर 1972 को देहांत हो गया।
- ललित गर्ग