By अजय कुमार | Jan 19, 2022
उत्तर प्रदेश में कोई भी चुनाव हो मुस्लिम वोटर हमेशा एक बड़ा फैक्टर रहते हैं। यूपी की कुल आबादी में करीब 20 प्रतिशत हिस्सा मुसलमानों का बताया जाता है। (हालांकि कभी अलग से प्रदेश में मुसलमानों की कितनी आबादी है इसकी गणना नहीं की गई है)। बीस फीसदी मुसलमान, कोई इतना बड़ा संख्या बल नहीं है कि यह किसी प्रत्याशी की हार-जीत में अहम किरदार निभा सके, लेकिन मुस्लिम वोटर जिस तरह से एकजुट होकर किसी राजनैतिक दल के प्रत्याशी को हराने या फिर जिताने के लिए वोटिंग करते हैं, वह कई बार निर्णायक साबित होता है। मुस्लिम वोटरों के बारे में एक और आम धारणा यह है कि वह भारतीय जनता पार्टी को कभी जीतते हुए नहीं देखना चाहते हैं, इसीलिए जो प्रत्याशी या दल भाजपा से टक्कर लेता नजर आता है, मुसलमान उसी के पक्ष में एक मुश्त वोटिंग कर देते हैं। इसीलिए जब तक मुसलमान वोटर कांग्रेस के साथ खड़ा रहा तब तक यूपी में कांग्रेस की सरकार सहज रूप से बन जाती थी, लेकिन 1992 में अयोध्या में जिस तरह से ढाँचे को कारसेवकों ने धवस्त कर दिया, उसके बाद से मुस्लिमों का विश्वास कांग्रेस से खिसक गया। क्योंकि 06 दिसंबर 1992 को जब अयोध्या में ढांचा गिरा तब यूपी में भले बीजेपी की सरकार थी और कल्याण सिंह उसके मुख्यमंत्री थे, लेकिन केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी और नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे। अयोध्या में कारसेवक विवादित ढाँचे को गिराने की हुंकार भर रहे थे, लेकिन राव साहब वहां कोई कार्रवाई करने या फिर यूपी सरकार को कोई नसीहत देने की बजाय पूजा-पाठ करते रहे थे। उनकी पूजा तब खत्म हुई जब कारेसेवकों ने विवादित ढाँचे को पूरी तरह से गिरा दिया। इसका हश्र यह हुआ कि मुसलमानों ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया और इसी के साथ यूपी में कांग्रेस के बुरे दिन शुरू हो गए जो अभी तक जारी हैं।
यूपी में मुस्लिम वोट बैंक कांग्रेस से खिसका तो समाजवादी पार्टी ने मुस्लिम वोटरों को लपकने में समय नहीं लगाया, वैसे भी 1990 में जब कारसेवक विवादित ढाँचा गिराने अयोध्या पहुंचे थे तो तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कारसेवकों पर गोलियां चलाकर ढाँचे को कथित रूप से शहीद होने से बचा लिया था। इसी के बाद से मुलायम मुसलमानों के नए रहनुमा बनते दिखने लगे थे और समय के साथ मुसलमानों का विश्वास मुलायम में बढ़ता ही गया। 2007 के विधानसभा चुनाव जरूर इसका अपवाद थे, जब मुस्लिम वोटरों ने बसपा की तरफ रूख कर लिया था और बीएसपी की पूर्ण बहुमत की सरकार भी बनी थी। यह वह दौर था जब सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने बीजेपी से बाहर कर दिए गए पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को आगरा के सपा सम्मेलन में अपने साथ सपा की टोपी और गमछा पहना कर जोड़ लिया था। इससे नाराज मुस्लिम वोटरों ने खुलकर बसपा के पक्ष में मतदान करके मायावती को मुख्यमंत्री बनवा दिया था। उस समय समाजवादी पार्टी में अमर सिंह की चलती थी, मुलायम अमर सिंह के बिना कोई बड़ा फैसला नहीं लेते थे, इसी वजह से आजम खान तक को पार्टी से बाहर जाना पड़ गया था। यह और बात है कि बाद में अमर सिंह के समाजवादी पार्टी से रिश्ते काफी खराब हो गए थे, खासकर अखिलेश यादव ने अमर सिंह को काफी अनदेखा ही नहीं किया बल्कि अपशब्द भी कहे थे।
खैर, बात यूपी में मुस्लिम विधायकों के संख्याबल की कि जाए तो उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में 2012 में सबसे अधिक 68 मुस्लिम विधायक चुने गए थे। इससे पहले 2002 में 64, 2007 में 54, 1977 में 49, 1996 में 38 और 1957 में 37 मुस्लिम विधायक चुने गए थे। मुस्लिम वोटर किसी की हार जीत का फैसला कर पाएं या नहीं, लेकिन देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में 2017 में मुस्लिम विधायकों का ग्राफ काफी गिर गया और केवल 23 मुस्लिम विधायक चुने गए। इससे पूर्व 1967 के विधानसभा चुनाव में 23 मुस्लिम विधायक चुने गए थे, वहीं इससे भी बुरा हाल 1991 में मुसलमान प्रतिनिधित्व का हुआ था और मात्र 17 विधायक जीते थे। बात 2017 के विधानसभा चुनाव में मुस्लिम प्रतिनिधितत्व घटने की की जाए तो ऐसा इसलिये हुआ क्योंकि बीजेपी ने शानदार प्रदर्शन करते हुए 300 से अधिक सीटें जीती थीं। सपा और बसपा की सबसे शर्मनाक हार हुई थी, इसीलिए यूपी विधानसभा में मुस्लिम प्रतिनिधित्व भी कम हो गया था। यूपी में योगी सरकार बनी तो यहां सरकार बनाने वाली भाजपा से एक भी मुस्लिम विधायक नहीं जीता था जबकि इसके पहले 2012 के विधानसभा चुनाव में 64 मुस्लिम प्रत्याशी चुनाव में जीत दर्ज करने में सफल रहे थे।
राज्य की जनसंख्या में मुस्लिमों की हिस्सेदारी करीब 20 फीसदी है। अब विधानसभा में मुस्लिम प्रतिनिधित्व गिरकर 5.9 प्रतिशत रह गया है। साल 2012 में मुस्लिम प्रतिनिधित्व 17.1 प्रतिशत था। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभाग के प्रोफेसर आफ़ताब आलम कहते हैं, ‘पहली बात राष्ट्रीय पार्टी भाजपा ने मुसलमानों को एक भी टिकट नहीं दिया था, जिसके कारण मुसलमानों का यूपी विधानसभा में प्रतिनिधित्व तेजी से गिर गया था।' आफताब सवाल खड़ा करते हैं कि क्या मुसलमान हितों की रक्षा के लिए उनका ही प्रतिनिधि विधायिका में होना जरूरी है? क्या सरकार में शामिल लोग उनके हितों की रक्षा नहीं कर रहे हैं? इस पर तमाम मत हैं। वे आगे कहते हैं, ‘अगर लोकतंत्र में सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व नहीं रहेगा तो विशिष्ट वर्ग की सरकार बनेंगी। अगर सभी वर्गों और समुदायों का उचित प्रतिनिधित्व रहेगा तो हम कह सकेंगे कि सर्वांगीण सरकार है। फिलहाल जहां तक विधायिका में मुसलमानों के घटते प्रतिनिधित्व का सवाल है तो इसका परिणाम यह हो रहा है कि सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय होने के बावजूद वह अलग-थलग होते जा रहे हैं। यह हमारे लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक है।'
बहरहाल, 2012 और 2007 के विधानसभा चुनाव की तरह इस बार के विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती और समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने काफी बड़ी संख्या में मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में उतारे हैं। ओवैसी की पार्टी भी बड़ी संख्या में मुस्लिम प्रत्याशियों को उतार रही है। लेकिन यूपी विधानसभा में मुसलमान विधायकों की संख्या कितनी बढ़ेगी यह नतीजे आने के बाद ही पता चलेगा। फिलहाल सपा हो या बसपा अथवा कांग्रेस और ओवैसी की पार्टी, सभी मुस्लिम वोटरों को लेकर अति आत्मविश्वास में नजर आ रहे हैं। मुस्लिम वोट बैंक की सियासत ने उक्त दलों के नेताओं को ऐसा ‘जकड़’ लिया है कि वह सही-गलत, अच्छे-बुरे, छोटे-बड़े तक का फर्क भूल गए हैं। उनको लगने लगा है कि वह सत्ता हासिल करने के लिए जो भी फैसला लेंगे, वह सर्वमान्य होगा।
खासकर समाजवादी पार्टी मुस्लिम वोटरों और प्रत्याशियों को लेकर कुछ ज्यादा ही उत्साहित है। उसको लगता है कि मुस्लिम प्रत्याशी सपा के लिए तुरूप का इक्का साबित होगा। इसीलिए उसने बड़ी संख्या में दागी-दबंगों और दंगाइयों तक को टिकट बांट दिए हैं। ऐसे लोगों को भी टिकट दे दिया है जिनके ऊपर गैंगस्टर और रासुका लगा है, इसीलिए तो 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों और कैराना से हिन्दुओं के पलायन के आरोपी तक को टिकट थमा दिया है।
उम्मीद की जा रही थी कि पिछले पांच वर्षों से बीजेपी जिस तरह से समाजवादी पार्टी पर अपराधियों को संरक्षण देने और अपराध को बढ़ावा देने का आरोप लगा रही थी उसको ध्यान में रखते हुए इस बार शायद अखिलेश द्वारा अपराधियों व दुराचारियों को सत्ता से दूर रखा जाएगा। लेकिन सपा-रालोद गठबंधन की सामने आई सूची में प्रत्याशियों के नाम इन उम्मीदों से मीलों दूर दिखे। बेहतर कानून को स्थापित करने का विश्वास दिलाने वाली समाजवादी पार्टी ने एक बार फिर अपराधियों, दंगाइयों को सत्ता में आने का न्योता देते हुए विधानसभा का टिकट दे दिया। इसमें सबसे बड़ा नाम पश्चिमी यूपी में हिंदुओं के पलायन का मास्टरमाइंड नाहिद हसन था। उत्तर प्रदेश की कैराना सीट से गैंगस्टर नाहिद हसन को प्रत्याशी बनाकर सपा प्रमुख अखिलेश यादव घिर गए हैं। सपा ने कैराना और मुजफ्फरनगर, बुलंदशहर और लोनी में हिन्दुओं के पलायन के आरोपी और माफियाओं को भी टिकट दिया है।
सपा-रालोद गठबंधन द्वारा दंगों के आरोपियों को टिकट देने का मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है। भाजपा के एक नेता ने चुनाव आयोग के निर्देशों का उल्लंघन का आरोप लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। इसमें मांग की गई है कि सुप्रीम अदालत, चुनाव आयोग को अखिलेश यादव पर मुकदमा चलाने व सपा की मान्यता रद्द करने का निर्देश दे।
खैर, 13 जनवरी को ओर से सपा-आरएलडी के गठबंधन वाले प्रत्याशियों की ओर से पहली सूची जारी की गई। इस सूची में समाजवादी पार्टी द्वारा शामली जिले की कैराना सीट के लिए नाहिद हसन के अलावा सपा गठबंधन ने बुलंदशहर सदर सीट से बसपा के टिकट पर विधायक बनते रहे हाजी अलीम की मृत्यु के बाद उनके छोटे भाई हाजी यूनुस को टिकट दिया है। यूनुस पर बुलंदशहर की कोतवाली नगर में ही 23 मुकदमे दर्ज हैं। प्रभारी निरीक्षक द्वारा एसएसपी को भेजी गई रिपोर्ट में हत्या, हमला, लूट, गुंडा एक्ट, गैंगस्टर एक्ट जैसे 23 मुकदमों का जिक्र किया गया है।
मेरठ से समाजवादी पार्टी के विधायक रफीक अंसारी को दोबारा टिकट दिया गया है। उन पर भी कई आपराधिक केस लंबित हैं। वो अपनी ही पार्टी के एक अन्य नेता को मौत की धमकी देने के बाद चर्चित हुए थे। अक्टूबर 2021 में मेरठ की एक अदालत ने बुंदू खान अंसारी की शिकायत पर रफ़ीक अंसारी को गिरफ्तार करने का आदेश दिया था। शिकायत में कहा गया था कि विधायक रफ़ीक अंसारी ने उन्हें अपनी जमीन फर्जी कागज़ातों के आधार पर बेच कर उनका पैसा हड़प लिया है। इतना ही नहीं, नवम्बर 2017 में रफीक अंसारी का एक ऑडियो वायरल हुआ था। ऑडियो में वो समाजवादी पार्टी के ही एक अन्य नेता को नगर निगम चुनावों के दौरान जान से मारने की धमकी दे रहे थे। विधायक अंसारी मेरठ के नौचंदी थाने में हिस्ट्रीशीटर भी हैं।
सपा-आरएलडी के गठबंधन से जुड़ी प्रत्याशियों की इस सूची में एक नाम भाजपा नेता गजेंद्र भाटी की हत्या करने वाले अपराधी अमरपाल शर्मा का है। गाजियाबाद के खोड़ा में भाजपा नेता गजेंद्र भाटी उर्फ गज्जी की दो सितंबर 2017 को हत्या हुई। शूटरों ने खुलासा किया था कि अमरपाल शर्मा ने उन्हें सुपारी दी थी। प्रशासन ने इस मामले में अमरपाल पर रासुका भी लगाई थी। अमरपाल पर साल-2018 में 10 लाख की रंगदारी मांगने का केस दर्ज हुआ। कभी बसपा और कांग्रेस के साथी रहे अमरपाल शर्मा आज सपा-रालोद गठबंधन से साहिबाबाद सीट से प्रत्याशी हैं। इसी प्रकार हापुड़ जिले की धौलाना विधानसभा सीट से सपा विधायक एवं मौजूदा प्रत्याशी असलम चौधरी विवादित बयान के लिए अक्सर चर्चाओं में रहते हैं। इसके चलते पिछले पांच साल में उन पर तकरीबन छह से ज्यादा मुकदमे दर्ज हुए।
-अजय कुमार